हाइकु कवयित्री
पुष्पा सिंह "प्रेरणा"
हाइकु
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कैदी सूरज
कोहरे की गिरफ्त
इंद्र भी रुष्ट ।
मेघ गर्जन
प्रसव वेदना से
रंभाती गाय।
मात-पिता को
भेजा वृद्धाश्रम में
कुलभूषण ।
लौटा सपूत
तिरंगे में लिपटा
पथराई माँ ।
चाँद की ओर
बढ़ता रवि अस्त
उदास निशा ।
स्याह बादल
बरसात में धुला
उजला हुआ ।
शोर मचाया
पाँवों की बेड़ियों ने
मर्यादा टूटी ।
होठों की हँसी
आँखों में गुम हुई
टूटे सपने ।
बन्द लिफ़ाफ़ा
अधरों का चुम्बन
शब्द मुस्काए ।
रुष्ट प्रकृति
मानव हतप्रभ
कर्म का फल ।
प्रेम शाश्वत
मवेशी पीते पानी
एक घाट में ।
मृग शावक
आखेट के पश्चात
समूह भोज ।
रंगपंचमी
बरसात की बूंदे
धुला सिंदूर ।
कटी टहनी
झाँकते हरे पत्ते
नवजीवन ।
नयन नीर
होठों पर मुस्कान
यही जिंदगी ।
सितारे टँके
अम्बर की चुनरी
ओढ़े रजनी ।
हिमस्खलन
पहाड़ों पे कफ़न
विक्षिप्त नदी !
कीमत बढ़ी
पेट में लगी आग
ठंडी रसोई !
धूप में खड़े
तपते तरुवर
देते हैं छाँव ।
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□ पुष्पा सिंह "प्रेरणा"
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