हाइबुन लेखन प्रतियोगिता
हाइकु ताँका प्रवाह
(जनवरी-2021, वर्ष-2, क्र. 09)
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चयनित प्रतिभागी
कुल प्रविष्टियाँ-19
हाइबुन क्र. 01
(आम का पेड़)
हस्तिनापुर भारत का जाना माना एक प्राचीन ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है जैसा कि हम सभी जानते हैं।महाभारत काल में इसका काफी वर्णन हुआ है। जैनधर्मावलंबियों के अनुसार 24 तीर्थंकरों में से 4 तीर्थंकरों की यह जन्मस्थली है। जब हम हस्तिनापुर की यात्रा करने गये तो पहुँचते ही हमें वहाँ के स्थानीय लोगों ने बंदरों से अपना सामान बचाये रखने और पर्स हाथ में नहीं रखने की विशेष सलाह दी । मैंनें मंदिर जाने के लिए कुछ पैसे , चावल , मिठाई लेकर एक कपड़े का छोटा सा पर्स तैयार किया। होटल से निकलकर हाथ में पर्स कसकर पकड़कर सावधानी पूर्वक गाड़ी में बैठी। उस दौरान एक दो बंदर आकर मेरा पर्स छीनने की नाकाम कौशिश कर गये थे। मैं भी मन में विजय के भाव लिये हुए मंदिर तक पहुंच ही गई ,ज्योहीं हमारी गाड़ी मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुँची, गाड़ी से नीचे उतरने के लिए एक पाँव नीचे रखा अभी दूसरा पाँव हवा में ही था कि पेड़ पर बैठा एक बंदर पीछे से छलांग लगाता हुआ मुझ पर कूदा पलक झपकते ही मेरे हाथ से पर्स छीनकर ले भागा। हम सब स्तब्धता से देखते ही रह गये। हमारी नजर पेड़ की तरफ गयी जहाँ बंदर बटुए को खोलकर सामान खंगाल रहा था।बंदर ने बटुए से निकालकर पर्स में पड़े सभी नोट और चिल्लर नीचे फेंक दिये। वह खाने की चीजें पर्स में ढ़ूढ़ रहा था।वह हमारा पर्स हाथ में लिए हुए कभी हमारी तरफ तो कभी बटुए की तरफ देख रहा था । हम सब ठगे से उसे देख रहे थे। वहाँ पास में एक चाय और बिस्किट की लारी थी। उस लारी वाले ने हमें आकर कहा कि यह तो हमारे यहाँ पर रोज का किस्सा है। आप चाहो तो मैं आपको बंदर से आपका पर्स वापिस दिलवा सकता हूँ। हम भी अपना पर्स पुनः प्राप्त करने और उस दृश्य को देखने के लिए उत्सुक थे। हमारी सहमति मिलते ही लारी वाला एक एक करके बिस्किट ऊपर बंदर की तरफ फेंकने लगा। बंदर सावधानी पूर्वक बिस्किट भी पकड़ने लगा , परंतु बिस्किट पकड़ने के चक्कर में आखिर उससे बटुआ छूट ही गया । हमें हमारा पर्स वापिस मिल गया था। वह रोमांचक दृश्य आज भी आँखों के सामने घूमने लग जाता है।
आम का पेड़
कपि फेंके सामान
मैं देखूँ पर्स ।
□ मधु सिंघी
नागपुर (महाराष्ट्र)
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हाइबुन क्र. 02
नसीहत
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आफिस के काम से बिटिया मुंबई जा रही थी ।स्टेशन जाने के लिए वह जब कार में बैठने वाली थी तभी मैंने बेटी से कहाँ ,जो मोबाईल पर बात कर रही थी,बेटा बाद में आराम से ट्रेन में बैठ कर बात कर लेना, अभी जरा सामान और आजु-बाजू का ध्यान रखो ,मेरी बेटी ने उत्तर दिया,आपको क्या समझता है, आप कितना बाहर जाती हो ।मन ही मन मैं सही बात तो है यह मन को समझा कर चुप हो गयी ।
तीसरे दिन बिटिया को वापस आना था ।आदतानुसार मैंने दस बजे फोन किया बेटा समय से स्टेशन पहुँच जाना ।जवाब भी हाँ में मिला । चार बजे जब मैंने बिटिया को फोन किया तो वह बंद था, मैं घबरा गई, घर के अंदर-बाहर करने लगी ।शंकाओं से मन अशांत हुआ जा रहा था ।अचानक छः बजे फोन की घंटी बजी,नंबर अनजान था,उठाते ही बिटिया की आवाज आई, माँ मेरे मोबाईल में चार्जिंग नही है इसलिए मैं आपको फोन नही कर पाऊँगी, सुबह घर पहुँचती हूँ । मैं निश्चिंत हो गयी ।सुबह जब बिटिया घर आई, तो उसे देखकर मेरे के होश उड़ गए, जीन्स फटा हुआ था, हाथ मे काफी सूजन थी, चेहरे में भी चोट के निशान थे ।उसे आराम से बिठाया, चाय-पानी देने के बाद पूछा तो बेटी ने बताया कि कल जब वह लोकल ट्रेन में बैठने जा रही थी तब एक बदमाश ने हाथ मे जोर से मारा,मोबाईल के लिए,और धक्का देकर चला गया,भगवान ने बचाया वरना बहुत बड़ी अनहोनी घट जाती । जाते समय आप सही बात कह रही थी ।अब सारी उम्र मैं आपकी उस बात को नसीहत समझ कर दिल मे सजा कर रखूँगी, और याद रखूँगी यदि बड़े कोई बात कहते है तो उसमें अवश्य कोई न कोई सीख होती है ।
है अनमोल
नसीहत का रत्न
जीवन पूँजी ।
□ नीलम अजित शुक्ला
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हाइबुन क्र. 03
ज्ञान की गंगा - माँ
घर में सबसे बड़ी होने के कारण, वसुधा का विवाह जल्दी ही हो गया, वो भी बड़े शहर में, चौथी के बाद उसकी पढ़ाई अधूरी ही रह गई थी, कम पढ़ी होने के कारण ससुराल में उसकी पढ़ाई को लेकर ताने कसे जाते थे, उसके मन मे पढ़ने की बड़ी चाहत थी,परंतु बबलू की जिम्मेदारी से अपनी पढ़ाई का विचार उसने छोड़ दिया था
माँ की तबियत ठीक न होने के कारण मैं राजनांदगांव जा रही थी,मेरे पास ही वसुधा बैठी थी ,वो अपनी परेशानी मुझे बता चुकी थी, जैसे ही डोंगरगढ़ स्टेशन पर गाड़ी रुकी, चार साल का बबलू ,इधर उधर देख, चारों ओर पहाड़ ही पहाड़ देख असमंजस में था,पूछ बैठा वसुधा से , माँ-माँ ये पहाड़ कौन बनाता है, मैं वसुधा के उत्तर की प्रतीक्षा में उसकी ओर देखने लगी, वसुधा बोली --ये सब पहाड़ भगवान बनाते हैं बेटा, मैंने एम ए किया है मैं सोच में पड़ गई, की मैं भी तो यही कहती-
हाइबुन
संस्कार देती
भगवान की आस्था
बे पढ़ी माँ भी ।
□ मीरा जोगलेकर
नागपुर
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हाइबुन क्र. 04
30 अगस्त 1991 मेरे लिए खुशी के पल आज मैं एक प्यारी सी गुड़िया की माँ बनी।प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। मातृत्व का अनुभव बखान ही नही कर सकती। इतनी खुश के गोद प्यार से भर गई।ऐसा लग रहा था जैसे गोद में किसी ने गोल मटोल, सुन्दर,गोरी गुलाबी गुड़िया रख दी।जो आंखें मटकाती, मुस्कुराती,रोती अपनी हंसी से हमें रिझाती।
31 जनवरी 2020 आज उसका विवाह फिर बहुत ही खुशी का दिन। हाथों में मेहंदी, बालों में गजरा,मांग में सिंदूर चेहरे पर वही प्यारी सी मुस्कान जो उस समय मेरी गोद में थी। लेकिन आज मन भीतर ही भीतर उदास है। अपनी कोख की जायी।हर पल संग जैसे मेरा ही साया, मेरी सखि, मेरी बहन, मेरी बेटी, मेरी माँ हर रूप में मेरी बेटी चैताली। आज उसकी विदाई से मन भर आया है। लेकिन मैं अपनी बेटी को रोते हुए विदाई नही देना चाहती।मैं चहती हूं वो नये घर में हंसते हुए प्रवेश करें।वो नए लोगों के बीच अपनी रोती हुई मांँ देखते हुए या रोते हुए जाए।और सच में चैताली ने हंसते मुस्कुराते अपने नये घर में प्रवेश किया।
सबसे खुशी की बात बेटी के ससुराल में सभी उसको बहुत चाहतें हैं।गर्व से गर्दन ऊंची हो गई जब हमारी समधन ने चैताली से कहां "तुम्हें तुम्हारी मां ने बहुत अच्छे संस्कार दिए"।
ईश्वर का आशीर्वाद सदा चैताली और दामाद पर बना रहे।
मेरी बिटिया
ससुराल की आन
बढ़ाएं मान ।
□ रेशम मदान
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हाइबुन क्र. 05
२७ दिसंबर २०२०,रविवार को दोपहर के वक्त, हमारी माताजी की प्रथम पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में, भाई के घर में रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया था। बहुत से रक्तदाताओं ने रक्तदान किया। लेकिन उनमें एक इंसान ऐसा भी था जिसे आम भाषा में विकलांग कहते हैं। उसके पैरों की हड्डियों में किसी रोग की वजह से चलने में भी दिक्कत आ रही थी। उसे कहीं से पता चला कि वहाँ रक्तदान के शिविर का आयोजन है, तो वह बेचारा पता पूछते हुए उस जगह तक पहुँच गया था। मुझे बहुत हैरानी हुई क्योंकि ऐसे भी कई पूर्ण रूप से स्वस्थ लोग मैंने देखे हैं जो रक्तदान करने से कतराते हैं।
मैं स्वयं को उसके सामने बौना महसूस कर रही थी क्योंकि उम्र अधिक होने की वजह से मैं रक्तदान नहीं कर पा रही थी।उसकी परोपकार की भावना के सम्मुख मैं नतमस्तक थी।
रक्तदाता वो
नहीं था विकलांग
आत्मा महान ।
□ संतोष बुधराजा
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हाइबुन क्र. 06
50 साल पुरानी पर सच्ची घटना है । हमें रायपुर से जगदलपुर जाना था । एक जुलाई को तो पहुंचना ही था ।बस में हमारी सीट बीच में थी सामने वाली सीट पर भी 3 लोग थे एक बच्ची , पति पत्नी 2माह का बच्चा । बगलवाली दो सीटर पर पति पत्नी और 4 माह का बच्चा था ।3 घण्टे बाद दो सीटर पर बैठी महिला को बार बार उल्टी हो रही थी । दोनों गांव के लग रहे थे । बच्चा खूब रोने लगा , और माँ तो उसे गोद मे ले नही पा रही थी । एक घन्टा हो गया बच्चा लगातार रो रहा था । आगे पीछे बैठे लोग भी मदद कर रहे थे ।लेकिन बेकार , अब तो उस आदमी को भी रोना आ गया । लेकिन ये क्या 3 सीटर पर महिला , जो अच्छी पढ़ी लिखी लग रही थी उसने झट से उस बच्चे को लिया और अपना दूध पिलाने लगी । बच्चा चुप हो गया । बस में बैठे सभी आश्चर्य से देखने लगे ।ममता की ऐसी मिसाल और कहाँ -
दूध का दान
सोने चांदी से बड़ा
एक माँ करे ।
□ निर्मला हांडे
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हाइबुन क्र. 07
जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं
रिक्शेवाले मेरी यादों से हमेशा झाँक लिया करते हैं। अब तो जाने कितने वर्ष बीत गये इस सवारी पर चढ़े , पर कॉलेज के दिनों में दूर जाना हो तो यही नियमित सवारी थी।
अलबत्ता उन दिनों भी जब रिक्शे पर बैठता तो अटपटा लगता। उसकी हर पैडल का दबाव मुझे अपने दिल पर महसूस होता ।
कॉलेज में बड़ी आम बात थी कि एक रिक्शे पर तीन-तीन, चार-चार मुस्टंडे सवारी गाँठ रहे हैं। सबसे कमजोर तबका जिसपर कोई भी ,कभी भी भड़ास निकाल सके , उन दिनों रिक्शावाला ही था। कम पैसे देना , ज्यादा पैसा माँगने पर थप्पड़ जड़ देना , उस गरीब के टायर की हवा निकाल देना, कुछ लोगों के लिए फ्रस्ट्रेशन निकालने का जरिया होता था।
उन दिनों पटना में नून शो में पुरानी क्लासिक फिल्में लगा करती थी। एक सन्डे मन थोड़ा उचाट था। मेरे सारे संगी साथी भी कहीं बिजी थे, तो मैं अकेले ही रिक्शे पर सवार हुआ और चल पड़ा पिक्चर हॉल की ओर । टॉकीज पहुँचकर जेब में हाथ डाला तो देखा पर्स नदारद।
उस जमाने में न मोबाइल होता था, न एटीएम , क्रेडिट कार्ड।
मैंने रिक्शेवाले से कहा - "भैया ! वापस ले लो , हॉस्टल चलते हैं। मूड नहीं है आज सिनेमा देखने का।"
वह माजरा समझ गया। बोला- "बाबू ! हम इंजीनियरिंग कॉलेज मोड़ से हमेशा गुजरते हैं। अगर पैसे भूल गये हैं तो हमसे ले लीजिए ये दस रुपये। बाद में वापस कर दीजियेगा।"
मैं शर्म से गड़ गया। जान न पहचान, जिसको हमने कभी ठीक से आदमी तक नहीं समझा , आज वही दाता की भूमिका में !
मैंने उसे गौर से देखा।हड्डी के ढाँचे जैसी काया , बेतरतीब दाढ़ी-मूँछ, खुरदरे हाथ-पैर, पसीने से लथपथ ललाट , मगर आंखों में खुद्दारी की चमक।
मेरे मना करने के बाद भी वह माना नहीं और मुझे कर्जदार बना कर ही छोड़ा।
उस दिन मैं गुरुदत्त की *प्यासा* देख रहा था ,
गीत चल रहा था - *जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं ?*
और अन्दर कहीं मेरा कृतज्ञ मन कह रहा था कि *इन्सानियत* जिस पर नाज किया जा सके वह *कहीं और नहीं ,बस यहीं हैं*।
बाद में मैंने उस रईस दानी को ढूँढने की बहुत कोशिश की , मोड़ की चाय टपरी पर घण्टों बैठा रहा, मगर दुबारा उसके दर्शन न हुए और ऋण के उस बोझ का दबाव आज भी ढो रहा हूँ… ठीक उसीके रिक्शे के पैडलों की तरह ।
बोझ उठाता
खुद्दार रिक्शेवाला
जिन्दा दधीचि ।
✍️राकेश गुप्ता
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हाइबुन क्र. 08
अन्तरराष्ट्रीय यात्रा
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मेरे जीवन की पहली अन्तरराष्ट्रीय यात्रा वो भी अकेले, बेटी के पास लंदन जा रही थी। भय ,उत्साह के साथ रोमांचकारी यात्रा थी।कुछ कारणवश मुझे अकेले ही जाना पड़ गया। दिशा निर्देशों के साथ वायुयान मे बैठ ढेर सारी कल्पनाओं के बीच आसमान मे झूलने लगी।
विश्व का सबसे बड़ा हिथ्रो हवाई अड्डा देखकर आँखे चौंधिया गई। वहां की अंग्रेजी मेरे समझ के बाहर थी।conveyor belt का निर्देश समझने मे गल्ति कर गई और गलत जगह जा खड़ी हुई।सामान न पाकर घबरा गई तभी एक सज्जन मेरी गलती को सुधार कर मेरी सहायता की।बाहर निकल कर मुझे लगा मेरी बेटी शाबाशी देगी कि यात्रा अकेली की पर उसके विपरीत निकलने मे देर होने की वजह धबरा गई और पकड़ कर रोने लगी कि मै कही गुम हो गई।
मैने कहा
रोना धोना अभी नहीं पहले मुझे इस देश की Discipline देखने दो ।
अंजान राहें
रोमांचक सफर
बेटी से भेंट ।
□ रूबी दास
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हाइबुन क्र. 09
बात उन दिनों की है जब पापा बिमार थे । उन्हें केन्सर था । मुंबई के डॉक्टर ने केस खराब कर दिया था । वो अपने पैरों पर चल कर मुंबई गए थे, और दोस्तों के कंधों पर झूलते हुए वापस आए थे । उनकी हालत देखी नहीं जा रही थी । अकोला के डॉक्टर की सलाह पर उन्हें नागपुर ले जाना तय हुआ था । मैं और मेरे पति डॉक्टर से मिलने गए । फाइल दिखाई । उन्होंने कहा कि ऑपरेशन से ठीक हो सकते हैं । हम फिर वापस अकोला गए ।
एम्बुलेंस से नागपुर ला कर पापा को एडमिट किया । फिर से सारे टेस्ट करवाये गए । जब खून की टेस्ट के लिए खून लिया तो मैंने देखा कि खून तो पानी जैसा है । ये डॉक्टर क्या ऑपरेशन करेगा ? डॉक्टर के आने पर मैंने उनसे कहा हमें ऑपरेशन नहीं करवाना । आप डीस्चार्ज दे दीजिए । तो चिढ़ गए और बोले आपको voluntary discharge लेना होगा । कुछ भी हुआ तो आप जवाबदार होगे । मैंने Discharge paper पे सही कर दी और पापा को लेकर हम गोंदिया की ओर निकले । गोंदिया पहुंचने से पहले ही पापा चल बसे ।
सवाल ये है कि मरते हुए आदमी का ऑपरेशन करके पैसे कमाने की नियत को क्या कहा जाए !
डॉक्टर होते
भगवान स्वरूप
कसाई बने !!
□ अमिता शाह
मेलबोर्न, आस्ट्रेलिया
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हाइबुन क्र. 10
मै गंगा नहा रही थी साथ में परिचित महिला बात करते हुए नहा रही थी उसी क्षण चोर गोता खोर ने उसे नीचे खींच चैन अंगूठी निकाल मार दिया शीघ्र ही मृत देह ऊपर आ गई इस घटना को मै बहुत अरसे तक भुला ना सकी
खोटी नीयत
देती दर्द सबको
मासूम फंसे ।
□ निर्मला पांडेय
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हाइबुन क्र. 11
आज मैं तड़प रही हूं एक छटपटाहट लिए कि मैं क्यूं नहीं बोल सकी छोटा सा वाक्य , क्यूं सदा
झिझकती रही, जबकि मैं
अपना सर्वस्व उन पर ,,,
न्यौछावर करने को तत्पर रहती थी, मेरे ह्रदय में भी
बहुत प्यार था उनके लिए
केवल एक वाक्य लाख कोशिश करने पर भी,,, उन्हें ना कह पाई और जब मैं खुद बिमार हो गई अस्पताल में पड़े पड़े मैंने
दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब जाकर मैं जरूर उन्हे
वो कहूं गीत जो' वो' मुझ
से सुनना चाहते है ,पर ईश्वर को मेरी खुशी मंजूर
ना थी मैं ना कह सकी उन्हें,मैं चीत्कार कर उठी
क्योंकि वो "मुत्युशैय्या" पे थे ,मेरी बात मेरे मन में ही रह गई, मेरे जज़्बात हमेशा के लिए दफन हो गए मैंने उनकी मृत देह को छू मन ही मन कहा
"लो सुनो जो तुम चाहते
थे "मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूं" ----
अकुलाहट
छटपटाहट सी
व्याकुलता है ।
□ रति चौबे
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हाइबुन क्र. 12
खनक
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आज कन्या पूजन में पाँच,दस,पच्चीस,पचास और एक रुपए के बहुत सारे सिक्के जमा हो गए। इनकी खनक और मेरी आँखों की चमक,दोनों एक दूसरे को तुष्ट कर रहे हैं।आधी गुल्लक अब पूरी भर जाएगी। गुल्लक में सिक्के डालते वक़्त उस खनकती आवाज़ को सुनने का आनंद ही कुछ और होता है। जब भी कभी पैसे मिलते, दौड़कर गुल्लक में डाल देती हूँ। कभी खर्च नहीं किए।
मेरे बाक़ी मित्र-सहोदर चवन्नी अठन्नी ले दौड़ पड़ते पास के दुकान की ओर।किंतु मुझे गुल्लक के जल्द भरने की प्रतीक्षा रहती। आज भर गयी है। अब खर्च करने के लिए तो गुल्लक को तोड़ना ही होगा! जो जोड़ने में आनंद ढूँढती रही, वह तोड़ने में कैसे सुख पाती!
यादें खनकी
बचपन गुल्लक
तोड़े न मिटी ।
□ विद्या चौहान
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हाइबुन क्र. 13
बीस साल पहले, परिवार एवं मित्रों के साथ की सिक्किम यात्रा, मन मस्तिष्क पर अपना सिक्का जमाए हुए है। पेलिंग, प्रपातों एवं झीलों से सजी वादी जिसमें कंचनजंगा की विशाल श्रृंखला है। सुबह पाँच बजे ही हम सब प्रकृति के सुंदरतम दृश्य को देखने चले गए। संकरे रास्तों से चलती गाड़ी मानो फूंक फूंक कर कदम रख रही थी। जहां तक नजरें जाती, हरी भरी वादियां, ऊँचे पर्वत, आकाश से सिर टकराते नुकीले वृक्ष, झर झर झरते झरने अपना जादू चला रहे थे।
जब प्राची से रश्मियों ने खिलखिलाना शुरु किया, उनकी गूंज कंचनजंगा के उत्तुंग शिखर से टकराई। मिदास स्पर्श हुआ, पूरी पर्वत श्रृंखला, वादी और आसपास के पूरे क्षेत्र ने सुनहरा आवरण ओढ़ लिया। ओह! अप्रतिम! ऐसा अनूठा सौंदर्य! कंचनजंगा से टकराती किरणों ने जैसे पर्वत का नाम रोशन कर दिया। हृदय की गहराइयों में आज भी वह सुनहरी स्मृति चमक जाती है।
पोटली खुली
झरीं स्वर्ण मुद्राएँ
धरा समेटे ।
□ शर्मिला चौहान
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हाइबुन क्र. 14
बिटिया गुरू
संयुक्त परिवार में, गर्मी की छुट्टियों में, बच्चों की धमा-चौकड़ी, उनकी बदमाशियाँ, उनकी फरमाइशें, उनके झगड़े-झाँसे, उनका पसारा!!!! सब कुछ से तंग आकर मैं लगभग रोने को हो उठी और जोर से चिल्ला पड़ी...
"मैं तुम्हारी नौकर हूँ क्या??"
मेरा चिल्लाना सुन सब सहम कर चुप हो गये। मेरी बिटिया मेरे पास आई और गले में हाथ डालकर बोली...
"पर आप हमारी "माँ" तो हो ना"
बस सारा गुस्सा छूमंतर हो गया। बिटिया को गले लगाकर सुबक पड़ी। उस एक पल के लिए मेरी बिटिया, मेरी गुरू बनकर मुझे बहुत कुछ सिखा गई ।
प्रेम से पगा
सहज बालमन
हरता पीड़ा ।
□ सुषमा अग्रवाल
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हाइबुन क्र. - 15
पुणे का हमारा घर हमारे पडोसी थे जोशी परिवार जो वहाँ के विजय थिएटर के मालिक थे । हमारे व उनके घर के बीच सिर्फ जालीदार बिन कांटे के तार की फेन्सिंग थी और एक जास्वंद के फूल का पेड था जिसका झुकाव कुछ हमारे मुख्य द्वार की ओर भी था । वहाँ सुबह शाम झुंड में चिडियों का कलरव मंत्रमुंग्ध कर देती । कभी कभी तो दोपहर में भी एक दो चिडिय़ा आ जाती । मेरा बेटा रोता जो उस समय दस महीने का था तो उन
चिडियों की आवाज सुनाने या चिडिय़ा दिखाने बाहर ले जाती ।
उस जास्वंद के पेड पर एक चिडिय़ा रोज अपनी चोंच पर कभी सूखी टहनी लाती तो कभी घास लाती और एक सुंदर घोंसला बनाया । बडा ही खुशी का माहौल रहता जब चिडिय़ों का झुंड एक टहनी से दूसरी टहनी फुदकती कलरव करती और फिर घोंसला आबाद हुआ अंडे से नन्हें चिडिय़ा के बच्चों की किलकारियां सुनाई देने लगी और मां चोंच मे दाना लाती और बच्चों को खिलाती । मां फिर दाना लाने चली जाती बच्चे भी मां की आहट सुनते ही आवाज करते
लेकिन एक दिन एक बिल्ली आती है और घोंसले पर पंजा मार नन्हे बच्चों की आवाज मौन हो जाती मां जोर जोर से चिल्लाती यहाँ से वहां की टहनी पर बैठती । घोंसला टूट जाता और मातम छा जाता ।
तिनका जोड़
घोंसला मातृत्व का
बिखरे स्वप्न ।
□ पूनम मिश्रा पूर्णिमा
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हाइबुन क्र. 16
कभी-कभी मन कसैला हो सोचने पर मजबूर होता है क्यों लोग रिश्तों की दुहाई देते हैं ? निजस्वार्थबश, अपना काम निकालते ही बस इतिश्री!
यह एक मूकव्यथा है परिवार के मुखिया की. उसे अपने रूबरू होकर भी मैं पहचान नहीं पाई. बचपन से ही सुनती आ रही थी ,वह एक ऐसे समृद्ध परिवार की बहू है ,जिसकी चार पीढ़ियां एक ही छत के नीचे रहकर औरों के लिए मिसाल कायम किए हुए है .उसी घर की इकलौती बहू सुध विहीन जर्जर हालत में !
धीरे-धीरे परतें खुली. सासू मां नाती पोतों के बीच पिसते ,बहुओं का आपसी जुड़ाव कराते हुये, उनका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रहा. आदर्श बहू का खिताब लिए गृहस्थी का भार संभाले ,एक धुरी की तरह बस चलती चली जा रही थी ,इस विश्वास के साथ कि उसके आगे पीछे दौड़ने वाले, पुकारने वाले, अनेकों हाथ हैं उसे थामने केलिए, पर विडंबना -
एक दिन जर्जर हो ढह गई । कृतज्ञ होने की बजाय ,उपेक्षित कर सभी ने उसे अपने जीवन से परे कर दिया ःःःउबरे कचरे के समान.
सामने बैठी निरंतर टकटकी लगाए ,सूनी आंखें मानो पूछ रही हो मुझसे गलती कहां हुई ,कैसे हुई? किस गुनाह की सजा मिली ? क्या वे मेरे अपने ही थे ?
ना पहचानें
वेदनायें घुमड़ी
गुमनाम सी ।
□ शीला शर्मा
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हाइबुन क्र. 17
इकतीस दिसंबर दो हज़ार बीस की वह अंतिम रात नहीं भुलाए नहीं भूलती। पटाखों और डीजे के शोर में दब गया था उस घायल श्वान का चिंचियाता स्वर। मैं रिंग रोड के किनारे स्थित अपने घर की बालकनी में खड़ी थी। कुछ देर पहले ही एक आवारगी करता युगल उसे अपनी चिंघाड़ती,भगाती बाइक से कुचल गया था। उसे लहूलुहान देख मैंने अनजानी आशंका से आँखें बंद कर लीं ।
आँखें खोलीं तो देखा एक श्वान उसके घाव सहला रहा,चाट रहा था।पूँछ हिलाकर स्नेह प्रदर्शित कर रहा था। मूक प्राणी में इतनी गहरी सम्वेदना का होना मुझे चकित कर रहा था। कर्फ्यू के कारण सड़क पर सन्नाटा था। सोच रही थी कि ऐसा कुछ करूँ कि इंसानियत के नाम पर लगा दाग़ धुल जाए। परन्तु मेरी सोच धरी की धरी रह गई जब देखा कि श्वान के कई भाई-बंधु उसे घेरे खड़े हैं। इर्दगिर्द घूमकर अजीब से स्वर निकालकर मानों घायल में हौसला फूँक रहे थे। आश्चर्य तो तब हुआ जब वह लंगड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ और अपने साथियों के साथ सड़क किनारे आ गया।उसे जीवित देख मैंने चैन की साँस ली, पर मेरा मन उन मूक पशुओं से पराजय से उपजी शर्मिंदगी महसूस कर रहा था।
अरे मानव!
सम्वेदना ज़रूरी
पशु की सीख ।
□ सुधा राठौर
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हाइबुन क्र. 18
जब आस्था गहराई
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बात सन् 2003 की है। मेरे पति के स्वास्थ्य लाभ हेतु हम दोनों नासिक जा रहे थे मनमाड़ स्टेशन पर ट्रेन कुछ अधिक रुकती है यह जानकार मैं जल लेने कुछ दूरी पर चली गई जहां कोई नहीं था पानी भर भी नहीं पाई थी कि दूर से आवाज आई कि ट्रेन छूट रही है मुड़ कर देखा तो सच था।मैं दौड़ी, कहीं दूर से आवाज आई जो सामने डब्बा है उसी में चढ़ जाओ । मैंने वैसा ही किया मैंने चढ़ कर गेट का हेंडिल पकड़ा ही था कि हवा के झोंके में उधर से गेट तेजी से बंद हो गया और मैं पलट कर झूमती हुई नीचे धड़ाम से गिर गई। दूर तक सन्नाटा। प्लेटफॉर्म का किनारा एक दम चिकना। मृत्यु और मेरे बीच कुछ सेकंड भी नहीं थे ।मैंने आंखें बंद कर पतिदेव और ईश्वर को याद किया अंतिम समय के लिए कि इतने में किसी किसी के हाथों ने मेरी दोनों भुजाओं को पकड़ कर इतने हल्के से मुझे उठा कर प्लेट फार्म पर खड़ा कर मुझे सहारा देकर धीमे से
चलाया मानों मेरा कुछ वज़न ही नहीं। ट्रेन रुकी, मेरे पति मिले।
स्टेशन पर स्वर गूंज रहे थे भगवान त्र्यंबकेश्वर ने इन्हें बचा लिया।
भगवान शिव को अनंत कोटि प्रणाम
विपदा भारी
डगमग जीवन
ईश उबारे ।
□ डॉ. शीला भार्गव
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हाइबुन क्र. 19
"जैसा दिखता है वैसा होता नहीं"
मैं पहली बार अकेली यात्रा कर रही थी, नागपुर से दिल्ली ।जिस बोगी में आरक्षण मिला था उसमें एक नवयुवकों का समूह था जोकि शायद किसी कॅम्प में जा रहे थे ।मेरा मन किसी अनजाने भय से घबरा रहा था ,मैंने अपनी तसल्ली के लिये, टाॅयलेट जाने के बहाने, पूरी बोगी का जायज़ा लिया तो देखा सिर्फ २-३ महिलाएं ही थी तो और भी भयभीत हो गई , अपने आपको सहज करने के लिये एक किताब निकालकर पढ़ने की कोशिश करने लगी।
तभी उन लड़कों के ज़ोर ज़ोर से बात करने,हंसी -मजाक, मस्ती करने की आवाज़ें आने लगी उनका शोरगुल सुन मन आशंकित होने लगा ,पर जैसे जैसे रेलगाड़ी ने रफ्तार पकड़ी, आपस में बातचीत होने लगी और थोड़ी ही देर में मैं आश्वस्त हो गई ,खाना खाया ,दिन भर की थकी होने के कारण कब नींद लग गई पता ही नहीं चला मझे दिल्ली उतरना था और उन्हें जयपुर जाना था ,अगर वे शोर गुल करने वाले लड़के मुझे न जगाते तो पता नहीं क्या होता?मैं उनका धन्यवाद करके उतरी।जब कभी उस यात्रा को याद करती हुं तो अपने आप पर हंसी आती है कि मैं उन लड़कों के बारे में क्या -क्या सोच रही थी,कितनी ग़लत थी मैं ।
दिल ने कहा_जैसा दिखता है वैसा होता नहीं ।
मन का डर
यात्री थे अनजान
बर्ताव भला ।
□ माया शर्मा (नटखटी) नागपूर
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