हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका) संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक" ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐

शनिवार, 3 अगस्त 2019

हाइकु : रामेश्वर बंग

हाइकुकार

रामेश्वर बंग

हाइकु 

लगा ग्रहण
उम्मीदों ने निखारा 
चमका चाँद ।

शूल के पथ
कर्म करता चल
होगा सफल ।

निभा कर्तव्य
चमके भाग्य रेखा
स्वर्णिम कल ।

रख उर में
मधु मधुर रस
महके रिश्ते ।

शहरी फ्लैट
बिखरे परिवार
टूटते रिश्ते ।

बासंती सोच
महकाती जीवन
लाती बहार ।

मन चमन
महकता पराग
शब्द सुमन ।

देते हैं दिशा
जीवन पथ पर
हमारे पिता ।

टूटते स्वप्न
उदास मन झरे
नयन नीर ।

गुरु का ज्ञान
जीवन पथ पर
देता प्रकाश ।

झरते पत्ते
दे जाते नव आशा
सृष्टि का सार ।

प्रेम सुमन
उदास जीवन में
लाए बसंत ।

मन बसंत
खिला स्नेह की कली
महके रिश्ते ।

मिट्टी की काया
कर जीवन कर्म
छोड़ अहम ।

वक्त की आंधी
टूटे शाख से पत्ते
ढूंढते ठौर ।

सुंदर फूल
जीवन की बगिया
झरे खुशबू ।

मन की धरा
पानी बदले रंग
वक्त के संग ।

कण्टक पथ
राही चला अकेला 
खिलाने फूल ।

काँटो के पथ
खिले कर्म के फूल
झरे खुशबू ।

भाव अलाव
बदलता जीवन
नव विचार ।

मन के नभ 
अंतर्मन के शून्य
दिव्य आलोक ।

छोटा सा सच
पल भर में काटे
झूठ के पर ।

नहाती रोज
उल्फत की फसलें
बहता लहू ।

टूटते रिश्ते
अस्तित्व को ढूँढता
बुजुर्ग पेड़ ।

मन सागर
सीप सी थाह सोच
देती है मोती ।

मन सरिता
बहे निर्मल धार
शुद्ध विचार ।

श्वेत बादल
नभ में भरे रंग
हवा के संग ।

पीला है पर्ण 
रंगहीन जीवन
ढूँढता ठौर ।

मन का मौन
बदलता जीवन
देता है पथ ।

रिश्तों की कली
स्नेह प्यार से खिले
फूल महके ।

है सतरंगी
कहे दिल की बात
मन गुलाब ।

वर्ष नूतन
सूर्य रश्मियों संग
भर दे रंग ।

झरते पत्ते
चली वक्त की आँधी
ख्वाब टूटते ।

खुशी के फूल
महकाये जीवन
निखारे मन ।

हुई उदास
पेड़ की झुकी डाली
देख कुदाली ।

रक्षा कवच 
ममता का आँचल 
देता ममत्व ।

मन के शून्य
ईश्वर का स्वरूप
गहरा मौन ।

स्नेह की गंध
महकाते जीवन
खुशी के फूल ।

पढ़ तू मन
स्वयं दीपक बन
जग रोशन ।

स्वयं निखर
सूरज सा बिखर
फैले प्रकाश ।

दिव्य उजास
जग करे रोशन
मन दीपक ।

श्रेष्ठ मित्र वो,
बदल दे रंगत
दीपक बन ।

शब्द के शिल्प
व्यक्तित्व को दर्शाते
तौल के बोल ।

शब्द के फूल
महकाते चमन 
प्रेम से रंग ।

देता चुभन
जब स्वयं को खोजे 
मन दर्पण ।

वन औषधि
तन को रखे स्वस्थ
मन साधना ।

रख संवाद
छोड़ वाद विवाद
मिटे दूरियाँ ।

वक्त का दौर
शाख से झरे पात
ढूँढते ठौर ।

टूटी हैं छतें
गरीब परेशान
तेज थी आंधी ।

नदी में बाढ़
फसलें बरबाद
कृषक त्रस्त ।

पिता का गुस्सा
जिंदगी में भूकंप
देता है पथ ।

नदियाँ सूखी
धरती पे अकाल
धरा बेचैन ।

कड़वी वाणी
जीवन में सुनामी
करे विनाश ।

पथ दुर्लभ
राह में अवरोध
है भूस्खलन ।

मन का दर्द
उर का ज्वालामुखी
बरसे अग्नि  ।

कड़वा सत्य
जिंदगी में भूकंप
लाया प्रलय  ।

□ रामेश्वर बंग

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