हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

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शनिवार, 3 अगस्त 2019

हाइकु : सुरेन्द्र बांसल

हाइकुकार

सुरेन्द्र बांसल 


हाइकु 


अंधड़ याद
गुमसुम तितली
उजड़ा बाग़ ।

टूटे न मौन
पूछे रोज़ आईना
बता तू कौन ?

मोह के नाते
बोएं सुख सपने
दुख उगाते ।

याद है छांव
है यही विरासत
घर, न गांव ।

याद पराई
जीवन भर खोजे
नेह रजाई ।

फुस्स दलील
न्यायविद्ध बहरे
काणे वकील ।

प्रेम का पथ
दुर्गम औ  दूरस्थ
तप, न थक ।

कर्म की पूंजी
खोया भाग का खाता
लापता कुंजी ।

याद सुरंग
ये देह का पिंजरा
प्राण विहंग ।

बहता पानी
हमें याद दिलाए
जीवन फ़ानी ।

मन अशांत
जीवन अतुकान्त
खोजूं एकांत ।

जग का फेरा
रेत पे जैसे कोई
चित्र उकेरा ।

दो जून रोटी
गंवाया अस्तित्व
कटाई बोटी ।

जन्म का दिन
मिट्टी का ढेला भर
करो सृजन ।

रोता रहता
बहता मन सोता
चुप न होता ।

उड़ते पात
हैं जग के सब खेले 
ज्यों झंझावात ।

मन वीरान
कटी नेह की फसल
दु:ख लगान ।

रोटी की खोज
आत्म सम्मान जहां
मरता रोज़ ।

□  सुरेन्द्र बांसल

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