हाइकुकार
सुरेन्द्र बांसल
हाइकु
अंधड़ याद
गुमसुम तितली
उजड़ा बाग़ ।
टूटे न मौन
पूछे रोज़ आईना
बता तू कौन ?
मोह के नाते
बोएं सुख सपने
दुख उगाते ।
याद है छांव
है यही विरासत
घर, न गांव ।
याद पराई
जीवन भर खोजे
नेह रजाई ।
फुस्स दलील
न्यायविद्ध बहरे
काणे वकील ।
प्रेम का पथ
दुर्गम औ दूरस्थ
तप, न थक ।
कर्म की पूंजी
खोया भाग का खाता
लापता कुंजी ।
याद सुरंग
ये देह का पिंजरा
प्राण विहंग ।
बहता पानी
हमें याद दिलाए
जीवन फ़ानी ।
मन अशांत
जीवन अतुकान्त
खोजूं एकांत ।
जग का फेरा
रेत पे जैसे कोई
चित्र उकेरा ।
दो जून रोटी
गंवाया अस्तित्व
कटाई बोटी ।
जन्म का दिन
मिट्टी का ढेला भर
करो सृजन ।
रोता रहता
बहता मन सोता
चुप न होता ।
उड़ते पात
हैं जग के सब खेले
ज्यों झंझावात ।
मन वीरान
कटी नेह की फसल
दु:ख लगान ।
रोटी की खोज
आत्म सम्मान जहां
मरता रोज़ ।
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