हाइकु कवयित्री
आरती परीख
हाइकु
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शिशिर ऋतु
धूँध दुपट्टा ओढ़े
शर्मिली संध्या ।
शीत लहर
सूरज सुलगाए
धूप अंगीठी ।
नम्र हो चले-
सूरज के तेवर
शीत लहर ।
नदियाँ नाली
धूप चूनर ओढे
अँगडाई ले ।
कातिल हवा
काँपे गाँव-शहर
धूप ही दवा ।
शीत ॠतु में
सब की पहली चाह
धूप चादर ।
शिशिर धूप
शीत लहरों संग
रेत में खेले ।
कभी तपना
कभी है ठिठुरना
कैसी है धूप ?
तन को प्यारी
आँगन में खेलती
जाड़े की धूप ।
धूप सवारी
खेत पर्वत गाँव
कोहरा भागा ।
पेड़पौधों पे
शीत मारता चाँटे
धूप ममता ।
बसंत आया
महके जर्रा जर्रा
हर्षित धरा ।
निशा की शाला
पढ़ें चांद सितारे
दृश्य निराला ।
सुबह प्यारी
कोहरे की सवारी
धूप पे भारी ।
रवि का ठेला
समंदर में गिरा
सांझ की बेला ।
तृण तृण से
ओस मोती चुराये
लुटेरी धूप ।
स्वर्णिम संध्या
अलौकिक नजारा
पर्वत कंघा ।
सूरज कांध
युग युग से घूमे
आशा गठरी ।
चुरा ले गया
काले घने से बाल
वक्त लुटेरा ।
भास्कर राज
लहरों पर नाचे
स्वर्णिम जल ।
चुरा ले गई
सूरजकी किरणें
धूंध निगोड़ी ।
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□ आरती परीख
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