प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
सेदोका नवगीत क्र. 01
गीत सुनाना
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ओ री ! तू पाखी
बन जाए जो नीड़
तब गीत सुनाना ।
पंख पसार
चोंच में ले तिनका
होंगे नव निर्माण
प्राची की दिशा
करते कलरव
तब गीत सुनाना ।
बहती हवा
बन कर दुश्मन
उड़ा ले जाए नीड़
फिर भरना
हौंसले की उड़ान
नव नीड़ बनाना ।
श्रम सीकर
बूँदें तू चख लेना
स्वाद फिर बताना
सृजन सिक्त
प्रीत बने मधुर
तब गीत सुनाना । □
- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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सेदोका नवगीत क्र.02
माँ की याद में
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माँ जो नहीं है
आँगन की तुलसी
मुरझा सी गयी है ।
उसकी याद
सिलबट्टा भी अब
भुलता देना स्वाद
माँ जो नहीं है
मात्र स्मृति बची है
जब से वह गयी है ।
चौंरे का दीप
चिढ़ा हुआ मुझसे ;
हृदय जलाता है
बेनुर वक्त
माँ बिन ये जगत
सूना सा लगता है ।
यादें उसकी
बस गयी हैं उर में
मुझे तड़पाती हैं
माँ जो नहीं है
आँगन की तुलसी
मुरझा सी गयी है । □
- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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सेदोका नवगीत क्र.03
दीप जो जला
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दीप जो जला
उजली हुई राहें
अग जग सँवरा ।
जलता रहा
प्रकाश गीत गाता
तम दूर भगाया
प्रीत की टोह
रोशन हुआ जग
हारी निविड़ निशा ।
पतंग जला
दीप से मिल जाना
प्रेम की पराकाष्ठा
हाय.. अर्पण
कैसा ये समर्पण
मन जान न पाया ।
सिसक रहा
था, रात भर जागा
थका, दिन में सोया
कोने दुबक
मधुर स्मृति स्वप्न
संजो रहा अकेला । □
- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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सेदोका नवगीत क्र.04
बचपन की याद
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पेड़ व ताल
ताजी हो गयी फिर
बचपन की याद ।
धुन सवार
कभी तितलियों के
तो कभी मेंढकों के
दौड़ता पीछे
दौड़ता ही रहता
जीवन बेहिसाब ।
बूढ़ा पीपल
खड़ा गाँव के बीच
देता था कभी न्याय
बिन उसके
न्याय मिलते नहीं
पंच बने अय्यास ।
वट का पेड़
रो रो कर सुनाता
गाँव के बुरे हाल
दुःखी हैं लोग
सूख गये हैं कुएँ
खो गया अब ताल । □
- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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सेदोका नवगीत क्र. 05
गुलमोहर
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गर्मी प्रखर
प्रेम का था असर
खिला गुलमोहर ।
कड़की धूप
हो गयी बेअसर
प्रेम की हुई जीत
खिलता रहा
मन बाग महका
हृदय हरषाया ।
गुल की लाली
मोह लेती मन को
लालित्यमयी शोभा
देख पथिक
रुक जाते तनिक
पाते शीतल छाया ।
पी प्रेम रस
तन किया सरस
सुर्ख रक्तिम हुआ
कृष्ण के माथ
चढ़ इठला रहा
मानो स्वर्ग से आया । □
- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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