हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

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शनिवार, 23 नवंबर 2019

SEDOKA 旋頭歌 सेदोका (धूप, शीत, ओस)


SEDOKA  旋頭歌   सेदोका 

24 नवम्बर 2019
वर्ण क्रम  - 05/07/07/-05/07/07

विषय - धूप, शीत, ओस
उत्कृष्ट रचनाएँ 

01.
भोर के साथी
धूप ओस व शीत
साथ साथ सुखद
मनभावन
सुबह हो सुरीली
जब ये तीन साथ ।

□ अविनाश बागड़े

2.
ओस की बूंदें
मोती सी चमकतीं
धूप ऊर्जा पाकर
हम चमकें
ज्ञान छटा बिखेरें
ज्ञानवान होकर ।
--00--

□ ए.ए.लूका

3.
सुहानी धूप
शाखो पर परिंदे
मानो गुनगुनाते
जीवन मंत्र
मुस्कुराना सिखाते
गम की घड़ियों में ।
--00--

4.
भोर की बेला
केले के पत्तों पर
बिखरे ओस कण
मन लुभाते
कल-कल नदियां
जीना हमें सिखाते ।
--00--

□ क्रान्ति

5.
शीत की धूप
पड़ती ओस कण
चमक उठे मोती
नर्म कोमल
मुलायम सी धूप
शीत में प्यारी लगे ।
--00--

शर्मिला चौहान

6.
शीतल भोर
कड़कड़ाती सर्द 
ठंड-धुंध-कोहरा
इनकी जोर
जीव-जंतु-मनुज
जकड़े शीत डोर ।
     --00--

□ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

7.
धूप सुहानी
मस्ती में मस्तानी
स्वास्थ्य की निगरानी
धूप सेवन
सेहत का साधन
मुफ्त डी विटामिन ।
--00--

8.
सूर्य प्रकाश
पौधों को दे जीवन
बनाये क्लोरोफिल
पैदा हो अन्न
पोषित हो जीवन
बढ़े सृष्टि का क्रम ।
--00--

9.
धूप कारक
बैक्टीरिया नाशक
जगत प्रकाशक
दिन व रात
स्वर्णिम हो प्रभात
करें सूर्याराधना ।
--00--

10.
ओस की बूंद
पड़ी भोर की धूप
चमकते सितारे
स्वर्णिम वर्ण
बिछी पीत चादर
प्राकृतिक मंजर ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

11.
कड़ी धूप मे
मेहनत करती
वह अबला नारी
पति शराबी
बच्चों के राशन की
करनी  है जुगाड़ ।
--00--

12.
ओस के मोती
गिरते पौधो पर
मिलता जो पौषण
लहलहाती
फसले इठलाती
किसान होते खुश ।
--00--

13.
बूढा भिखारी
शीत से ठिठूरता
पड़ा  है फुटपाथ 
देखा उसने
निकालकर दे दी
अपनी ओढ़ी शाॅल ।
--00--

□ संजय डागा 

14.
शीत के दिन 
भानु निकले झट
सेंके धरा के लट
दिवसान्त में 
ओढ़े लाल कंबल
दुबके झटपट ।
--00--

15.
यामिनी रोयी
अश्रु बिखरे पात
ओस-कण प्रभात
लाल पूरब 
हंस निकला एक
मोती चुगते जात !
--00--

□ निमाई प्रधान "क्षितिज"

16.
पत्ती पे बैठा
चमकदार मोती
धीरे से हुआ क्षीण
सूर्य में समा
कहीं खो गया वह
जीवन देने हेतु ।
--00--

□ ओमप्रकाश क्षत्रिय "प्रकाश"

17.
धूप के पाखी
खिड़की पर बैठे
चहचहाने लगे
जागी सुबह
उष्मा के पथ पर
दाना चुगने लगी ।
--00--

18.
खिला सबेरा
रवि की गागर से
छलक गई धूप
स्वर्णिम रूप
टहनियों के बीच
अटक गई धूप ।
--00--

19.
धूप की उष्मा
उर्जा से भरपूर
है सुबह का नूर
चेतना जागी
चले वक़्त के साथ
कर्म के अनुरागी ।
--00--

20.
नन्हीं सी ओस
दूब पर ठिठकी
पत्तों बीच अटकी
भयभीत हैं
चुन लेगा सूरज
अंतर्मन की नमी ।
--00--

21.
रात ने लिखी
ओस की इबारत
ठंडी की शरारत
भोर चिंतित
ले लेगा दिनकर
ओस की शहादत ।
--00--

22.
पियूष कण
चमकदार मोती
पारदर्शी है द्युति
नन्हे नाजुक
सूर्य को देखकर
होने लगे विलुप्त ।
--00--

23.
शीत की गली
धुंध है मनचली
मचाती खलबली
ठंड अपार
सूरज गिरफ्तार
चली सर्द बयार ।
--00--

24.
शीत के शूल
भोर की गलियों में
उग रहा बबूल
चुभने लगी
कँटीली हैं हवाएँ
सिहरन जगाएँ ।
--00--

25.
शीत के गाँव
सुलगने लगा है
सूरज का अलाव
कुटिया दुखी
बुझी हुई अँगीठी
भड़क रही भूख ।
--00--

□ सुधा राठौर

26.
कड़क धूप
तरबतर देह
गर्भिणी मजदूर
तोड़े पत्थर
हाथों पावों में छाले
पड़े रोटी के लाले ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

27.
धूप है खिली
नव-प्रेरणा मिली
ज़िन्दगी फिर चली
कलियाँ खिली
सरगम है घुली
कलरव में ढली ।
--00--

28.
शीत की धूप
पुनर्जीवन देती
पीड़ा को हर लेती
सेवा करती
सृष्टि भी आनन्दित
सेदोका पल्लवित ।
--00--

29.
ओस की बूँदें
प्रकृति उपहार
हीरे जैसी चमके
फसल पलें
नव-स्पर्श भी मिलें
काव्य-पुष्प हैं खिलें ।
--00--

30.
मोती के जैसी
हरी घास पे ओस
नन्हें-नन्हें क़दम
मधुर स्मृति
प्रभात का समय
काश! फिर से लौटें ।
--00--

31.
तितली चूमे
मनीप्लांट की ओस
भँवरा फूल ढूँढे
सोना लाएगी
धूप फिर आएगी
चिड़िया भी गाएगी ।
--00--

32.
धूप का रूप
भुजाओं को फैलाए
करता है स्वागत
पूर्ण विश्व का
पनाह में इसकी
कायनात है बसी ।
--00--

33.
शीत धूप में
मवेशी इठलाते
बच्चें खिलखिलाते
पतंग उड़े
झूमे बाँस-झाड़ियाँ
कानों में हैं बालियाँ ।
--00--

34.
चलता रहूँ
शीत धूप के संग
ओस-भरी उमंग
लिखता रहूँ
प्रकृति के ही गीत
सेदोका मनमीत ।
--00--

□ अयाज़ ख़ान

35.
सर्द मौसम 
कुहासा ओढ़े दिन
काँख दबा सूरज
काँपती काया
गुनगुनी सी धूप 
रात कटती बैठ ।
--00--

□ सुशीला जोशी

36.
मोती सी बूँदें
चमचमाती धूप
खुब लुभानी रुप
शीतल छाया
धुंधली सी कोहरे
सुन्दरता बिखेरें ।
--00--

37.
गुलाबी ठंड
सूरज की रोशनी
कड़कड़ाती धूप 
मन को भाती
ऊर्जा देती है भर
ताजगी दिन भर ।
--00--

38.
ओस पड़ते
पत्तों में कण कण
लुभीती हर क्षण
गुलाबी धूप
पोखरों के अंदर
दिखे रुप सुन्दर ।
--00--

39.
ठंडी लहरें
ओस पत्तों में पड़ी
परियों की है छड़ी
बूँदे बिखेंरी
मोती चमचमाती
खुश होती धरती ।
--00--

40.
शीत लहरें
बलखाती हिलोरें
लहराती झरोखें
दुबक बैठे
समुद्र के किनारे 
शैवाल के सहारे ।
--00--

41.
पेड़ की डाल
शीतल सी छाया
ठिठुर रही काया
शीत ऋतु में
ओढे़ कर चादर
सिसकते अंदर ।
--00--


□ सुशीला साहू "शीला"

42.
शीत आयी तो
बदल गयी हवा
सूरज के तेवर
ढीले पड़े हैं 
सहम गयी धूप
भागने लगा दिन ।
--00--

43.
फुटपाथ पे 
कफन बन फैली
कोहरे की चादर
लिपटे पड़े 
ठिठुरते बदन
जगेगा प्रशासन ।
--00--

□ डाॅ. सुरंगमा यादव

44.
घना कुहासा
बिखरी घनी ओस
चरम पे ठंड़क
कांपे विक्षिप्त
फुटपाथ के कोने
फैले पत्तल दोने ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

45.
हिम शिखर
दमकता सौन्दर्य
भोर स्वर्णिम आभा
दर्पण बन
प्रतिबिंबित होता 
क्षितिज में नजर ।
--00--

□ मंजू सरावगी "मंजरी"

46.
शीत कहानी
उषा-संध्या सुहानी
सर्दी की मनमानी
गुलाबी ठंड
सूर्य से कहा-सुनी
दोनों के बीच ठनी ।
--00-- 

47.
ओस की बूँद
चाँदनी का वात्सल्य
वसुंधरा के नाम
क्षणभंगुर
करती अठखेली
कलियों की सहेली ।
--00--

48.
धूप सेवन
आरोग्य संवर्धन
रोग का निवारण
औषधियुक्त
उर्जा से भरपूर
चेतना का प्रवाह ।
--00--


□ सुधा राठौर

49.
सुमन-वृंत
पल्लव-कुसुमन
अशेष प्रभामय
ओस से भीगा
फलाँगती नदी का  
लहरिल प्रवाह ।
--00--

50.
शीत की धूप
कुहरे की चादर
अबोध ठिठुरन
जला अलाव
अविरल बहता
हिम भरा सैलाब ।
--00--


□ डाॅ. सुशील कुमार शर्मा

51.
धूप निराली
खिड़की सें झाँकती
मुस्कुराके कहती
सुबह हुई
लाओ मन में स्फूर्ति
रजनी चली गई ।
--00--

□ पूर्णिमा साह

52.
आई जो धूप
ओस खिसक गई
शीत प्रभाव बढ़ा
शीत मौसम
गुनगुनी सी धूप
ओस भीगी सुबह ।
--00--

□ अविनाश बागड़े

53.
नारंगी वस्त्र
लिए ऊर्जा का अस्त्र
खिड़की से झांकती
आरोग्यदात्री
ये धूप महारानी
है जीवनदायनी ।
--00--

54.
शीत लहर
कोहरे का कहर
कठिन है डगर
प्राण हरती
विषकन्या हवाएं
ज्यों मौसमी सजाएं ।
--00--

55.
नभ के आँसू
वसुधा के आँचल
ज्यों ममत्व,वात्सल्य
छटा निराली
बावरी तृण चूमे
नेह के गीत झूमे ।
--00--

□ नीलम शुक्ला 

56.
पतली धुंध
ठिठुरती वसुधा
चादर लपेटती
शीत हवाएं
भेदती बदन को
अलाव जलते हैं ।
--00--

57.
गुनगुनी सी
नर्म छुएं तन को
गर्मी का एहसास
लुकती छिपे
फुनगी तरु ओट
झिलमिलाए ओस ।
--00--

58.
तृण नोकों में
मुस्कुराती है ओस
देख रही ठिठकी
झणभंगुर
जीवन यथार्थता
सिखाती हमेशा  ।
--00--

□ शर्मिला चौहान

59.
जीवन चक्र
चलता रहता है
छाँव- धूप सा सदा
परिस्थितियां
बदलती रहतीं
दुख के बाद सुख ।
--00--

60.
धूप न बनो
तपता तपाता है
बनना है अगर
शीतल छाँव
नीम देता जैसे
ठंडक मेरे गाँव ।
--00--

61.
शीत लहर
सिकुड़ता दिवस
सूर्य देव ओझल
जनजीवन
अलाव के सहारे
मध्य रात गुजारे ।
--00--


□ पुष्पा सिंह "प्रेरणा"

62.
दस्तक शीत
मखमली सी धूप
खिल उठी बगिया
मन ली जीत
पक्षी का कलरव
प्राकृतिक गौरव ।

63.
ओस की नमी
वसुंधरा जो भीगी
महकी पुरवाई
उषा ले आई
धूप मनभावनी
जन-जन सुहानी ।
--00--

□ पूर्णिमा साह

64.
ओस की बूंदें
मोती के एहसास 
धरा करे श्रृंगार
उदित सूर्य
फिर रूप निखारे
मंत्र मुग्ध संसार ।
--00--

□ रंजन कुमार सोनी

65.
पथिक चला 
चिलचिलाती धूप 
नहीं पास था छाता 
ठंडी बयार 
प्रकृति उपकार 
ये पेड़ छायादार ।
--00--

□ अरूणा साहू

66.
परिवर्तन
सृष्टि अनुशासन
जन्म-मृत्यु-जीवन
ज़िन्दगी हेतु   
शीत-ऊष्म-बारिश
जीव-जंतु ख्वाहिश ।
--00--

67.
समय चक्र
चले हमेशा वक्र
धन-बल प्रभाव
शीत की रातें
गरीबी-ठिठुरती
अमीरी-सिहरती ।
--00--

68.
शीतलहर
त्रस्त गाँव-शहर
असमर्थ छप्पर
स्पंदित-धनी
अथाह आमदनी
हर रात चाँदनी ।
--00--

69.
ऋतु-समान
गर्म-सर्द-इंसान
फ़कीर-धनवान
माहौल देख
गर्मी में बिदकता
सर्दी में फुदकता ।
--00--

70.
शीत आगाज
ग़रीब को अंदाज
अंतिम दिन आज
रैन बसेरा
मजबूर का डेरा
भ्रष्टाचार ने घेरा ।
--00--

71.
शीत-प्रहार
हाड़ मांस गलता
चूल्हा नहीं जलता
राम-भरोसे
भूखा नंगा पलता
यूँ ही देश चलता ।
--00--

72.
शीत हवाएँ
दीन कंपकपाए
लोक-तंत्र कमाए
निरीह-प्राणी
अलाव इंतजाम, 
मृत्यु खबर आम ।
--00--

73.
शीत का स्पर्श
पतझड़ समाप्त
आर्द्रता भी पर्याप्त
पुष्प-पुष्पित
मुस्कान-मुखरित
कोपलें प्रस्फुटित ।
--00--

74.
हरित-वन
रंगीन उपवन
भ्रमर का गुंजन
शीतल फिजा
हरी-भरी पत्तियाँ
फूल बनी कलियाँ ।
--00--


□ विनय कुमार अवस्थी

75.
हिम के कण
दुब पर जो गिरे
कई मोती बिखरे
चंचल मोती
अनजान राह में
चले किरण संग ।
--00--

□ रूबी दास

76.
रवि किरण
है जीवन दायिनी
नव पथगामिनी
पथिक बैठा
उत्साही रथ पर
लेकर कर्म-झोला ।
--00--

□ मधु सिंघी

77.
ऋतु शिशिर
गुनगुनी सी धूप
सुखद एहसास
चाय की प्याली
हाथों में अखबार
भला लगे संसार ।
--00--

78.
ओस की बूंदें
मोती सी बिछती
जेवर भू धारती
स्वर्णस्वरूप
सौर किरणों संग
चहुँओर उमंग ।
--00--

79.
शीत कहर
कोहरे की चादर
ओढ़ लेती प्रभाती
पंछी के स्वर
जीवन कर्म मर्म
सुख चैन गंवाती ।
--00--

□ पूर्णिमा सरोज

80.
खिलती धूप
सुबह का सौन्दर्य
बिखर गया सोना
जगमगाये
सूरजमुखी गाये
कमलदल भाये ।
--00--

81.
निर्दयी शीत
ठिठुरें बाल वृद्ध
नवजात आबद्ध
हैं भयभीत
सनसनाती हवा
काँपें वन, वानर ।
--00--

82.
झिलमिलाते
स्वर्णिम ओस कण
रुपहले हैं तृण
मनमोहक
मन रंजित सृष्टि
हो रही स्वर्ण वृष्टि ।
--00--


□ डाॅ. आनन्द प्रकाश शाक्य "आनन्द"

83.
ऋतु शीत की 
सुबह की दस्तक 
खुले नैनन द्वार 
नीलाभ नभ 
स्पर्श रवि किरण 
मन पंछी भ्रमण ।
--00--

84.
शीत की भोर
जलद घनघोर 
सिहराती बयार 
थिरके पत्ते  
धुंध भरी दिशाएँ 
धूप भटकी राहें ।
--00--

85.
ओस की बूँदे 
       आसमान से गिरीं       
        दुर्वा अंक समायीं        
मोती से बुना 
कालीन रुपहला 
वसुंधरा ने ओढ़ा ।
--00--


□ मंजु शर्मा

86 
अठखेलियाँ
करती भोर किरण
खिले कमल संग
प्यार जताती
चूम पुष्प अधर
पी लेती प्रेम रस ।
--00--

□ मंजू सरावगी मंजरी

87.
धूप बर्फिली
ज्यों रूप सतरंगी 
मिले बिछुड़े मीत
शीत लहर
ये ओस मुस्कुराये
बूंद बूंद संगीत ।
--00--

□ श्रवण चोरनेले 'श्रवण'

88.
पूस की रात
धान खेत चौकसी
घन घोर अंधेरा
अलाव संग
ठंड से बचने को
शीत रात को छाई ।
--00--

□ देवेन्द्र नारायण दास 

89.
तपती रेत
समुद्र का किनारा
चढ़े सूर्य का पारा
जलते पांव
कही न दिखे छांव
आंखें तलाशे गाँव ।
--00--

□ मंजू सरावगी मंजरी

90.
उषा आ रही
कोहरे की चादर
वसुधा पर ओस
हर तरफ
बिछी हुई भू पर
बटोरता सूरज ।
--00--


□ देवेन्द्र नारायण दास

91.
ओस बिखरी
ठंड जरा ठहरी
धूप ये सुनहरी
ठान निकली
ओस गलाने चली
कैसी है ये सहेली ।
--00--


□ डाॅ. संजीव नाईक

92.
जेठ-महीना
अविरल पसीना
ऋण चुके किसान
फसल-पके
उचित मिले दाम
आशानुरूप-घाम ।
--00--

93.
बदनसीबी
असहाय की वर्दी
असरदार सर्दी
सामर्थ्यवान-
कब्जाए आसमान
धूप-छाँव समान ।
--00--

94.
अनिश्चितता
धूप-छाँव का मेल
राजनीति का खेल
सिद्धांतहीन
भ्रष्ट तंत्र के साथ
कुर्सी बिना अनाथ ।
--00--

95.
आम-के-आम
गुठली के भी दाम
प्राथमिकता काम
भीषण धूप
हल जब चलता
परिश्रम फलता ।
--00--

96.
धूप हो तेज
दुःख-दर्द निस्तेज
सूरज का प्रताप
मिटे संताप
फसलें पक जातीं
घर खुशियाँ लातीं ।
--00--

97.
वर्षा जरूरी
मिटाए मजबूरी
आगमन गर्मियां
प्रभाव धूप
फटक रहे सूप
कृषक बने भूप ।
--00--

98.
आशा-किरण
खलिहान में अन्न
काश्तकार प्रसन्न
पके अनाज
सूदखोर बने बाज
किसान मोहताज ।
--00--

99.
लू के थपेड़े
हाँफ रहे फेफड़े
परिवार उजड़े
आंधी-तूफ़ान
मजदूर-किसान
रोगों से परेशान ।
--00--


□ विनय कुमार अवस्थी
~~●~~

~ प्रस्तुति ~
प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
संचालक : सेदोका की सुगंध 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

हाइकु कवयित्री मंजू सरावगी "मंजरी" जी के हाइकु

हाइकु कवयित्री 

मंजू सरावगी "मंजरी"

हाइकु 

अंधेरी रात
जुगनू चमकते
दिखे डगर ।
-0-

सूर्य किरण
खेले जल थल में
स्वर्णिम भोर ।
-0-

ठड़ी हवायें
शबनम से मोती
बिखरे धरा ।
-0-

चांदनी रात
ओसकण से धरा
श्रृंगारित हो ।
-0-

अधर प्यास
शबनमी बूंदों से
तृप्त यौवन ।
-0-

खिले कमल
लजरते सुमन
ओसकण में ।
--0--

□ मंजू सरावगी "मंजरी"

रविवार, 17 नवंबर 2019

SEDOKA 旋頭歌 सेदोका (गिरि, वन, समुद्र)


SEDOKA  旋頭歌   सेदोका 

सेदोका रचना : 17-नवम्बर 2019

वर्ण क्रम  - 05/07/07/-05/07/07

विषय - गिरि, वन, समुद्र 

उत्कृष्ट रचनाएँ

01.
खोजें विकास
पेड़-पौधे-पहाड़ 
वन-जंगल काट 
स्वार्थ सफर  
मतलब के दास 
तराश रहे राह ।
--00--

□ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

02.
कटते वन
कर रहे क्रंदन
संकट में जीवन
बचाओ वन
सजेगा उपवन
शुद्ध पर्यावरण ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

03.
पर्वत माल 
खड़ी  हैं सीना तान 
झेलती हवा वेग 
हिम का आगार 
वनस्पति प्रकार 
मीठा जल आधार ।
--00--

□ सुशीला जोशी

04.
हमारे वन
बिक रहे हैं आज
लील गया विकास
भूल ही गए
जंगल उपकार
मिट्टी, पानी, बयार ।
--00--

□ शशि मित्तल

05.
ऊंचे पहाड़
टुकड़ों में टूटते
तब्दील होते रहे
गिट्टी रेत में
विकास की योजना
धराशायी रोजाना ।
--00--

□ डाॅ. पुष्पा सिंह "प्रेरणा"

06.
अडिग नग 
गर्वित मानव सा 
मुस्कुराता रहता 
मलाल नहीं  
अपने में मस्त है 
लगता वो व्यस्त है । 
--00--

□ ओम हरित

07.
समुद्री हवा
एक होके बूंदों से
बारिश के तीरों से
बरस रही
मदमस्त गिरि को
धीरे से घिस रही ।
--00--

□ मनीभाई "नवरत्न"

08.
कटते वन
विनाश की झलक
देखती नयी पीढ़ी
सम्भल जाएं
सब वृक्ष बचाएं
स्वस्थ्य जीवन पाएं ।

   --00--

 □ ए.ए.लूका

09.
चंचल मन
भरे ऊंची उड़ान
निहारते गिरि को
छू ले गगन
दृढ़ हो कर मन
रखे यही लगन ।
--00--

10.
सघन वन
भयभीत डालियाँ
मानव का प्रहार
चलती आरी
प्रकृति को बचाएँ 
आओ वृक्ष लगाएँ ।
--00--

11.
दिल दरिया
समुद्र के समान
एक ही अरमान
इच्छाएं पूरी
अधरों पर हँसी
चहुँ ओर हो खुशी ।
--00--

□ मधु गुप्ता "महक"

12.
प्रभु का प्यार
सागर से गहरा
उमड़ता ही जाता
जीवन सोता
जो कभी न सूखता
निरन्तर बहता ।
--00--

□ ए.ए.लूका

13.
उत्तुंग गिरि
अनुपम सौंदर्य
प्राकृतिक सम्पदा
जीवनदायी
सदैव रक्षणीय
सम्मान करणीय ।
--00--

14.
गहन वन
प्राणों के संरक्षक
बनता विनाशक
हृदयहीन
स्वार्थ हित मानव
काटने लगा वन ।
--00--

15.
रत्न प्रदाता
अकूत सम्पत्ति का
अनुपम भंडार
देता जीविका
करता यह सिंधु
भोजन की आपूर्ति ।
 --00--

16.
सागर तल
जल जीव आगार
जलमय संसार
यात्रा का पथ
थका सूर्य का रथ
कर लेता विश्राम ।
--00--

□ डॉ. रंजना वर्मा

17.
स्वार्थ के कर्म 
हो रहें है निर्धन 
गिरि, सागर,वन 
दिखें न खग 
डूबे प्रदूषण में  
तैरते झूठे स्वप्न  ।
--00--

18.
सम्पदा भरी 
वन,गिरि की गोद 
सभ्यताएं थीं पली 
कृतघ्न मनु 
प्रकृति है कुपित 
सागर भी दूषित ।
--00--

□ ऋतुराज दवे

19.
क्षीरसागर
विष्णुजी का निवास
लक्ष्मी संग विराजे
शेषनाग है
लक्ष्मी विष्णु बिछौना
हर समय  साथ ।
--00--

20.
पर्वतराज
हिमालय है दु:खी
अपनी व्यथा पर
कूड़ा-कचरा
फैकते मानव जो
कूड़े का ढेर बना ।
--00--

21.
कटते वन
बढ़ता प्रदूषण
दम लगा घुटने
बचाना होगा
वनो को विनाश से
वरना धरा नष्ट ।
--00--

□ संजय डागा

22.
वन-महत्व
जीवन का आधार
कितना है लाचार
स्वार्थी मनुष्य
करता है दोहन
आपदा-आमंत्रण ।
--00--

23.
सघन वन
बड़े परोपकारी
लाते बारिश प्यारी
सभ्यता पली
आदिम मानवों की
आज क्यूँ है विलुप्त?
--00--

24.
काला पहाड़
मानवाकांक्षाओं-सा
करता है प्रेरित
सृजन हेतु
किनारे में इसके
संस्कृति है जीवित ।
--00--

25.
मन-समुद्र
आकाश-सा विशाल
उमंग की लहरें
सेदोका खिले
समुद्री पौधे जैसा
अप्रतिम रचना ।
--00--

□ अयाज़ ख़ान

26.
समुद्र  शीशा 
परछाई  देखते
ऊँचे पर्वत,  वन 
मंजुल  दृश्य 
ब्रह्म रूप साकार 
खूबसूरत  संसार ।
--00--

□ चंचला इंचुलकर सोनी

27.
शब्दों के मोती
कल्पना सागर से
चुनकर जो लाये
गीत सजाये
भावना की लहरें
दुनिया को दिखाएँ ।
--00--

28.
चाँद का रुप
सौंदर्य अपरुप
गगन से निहारे
हँसी चाँदनी
झिलमिलाते तारे
सागर दर्पण में ।
--00--

29.
वन वैभव
प्राकृतिक संपदा
नष्ट होते जा रहे
विपदा भारी
बनी है महामारी
बढ़ती जनसंख्या ।
--00--

□ पूर्णिमा साह

30.
ये नग्न गिरि
कटते हुए वन
समुद्र का विस्तार
आशंका यही
कलयुग पसारे
अब अपने पैर ।
--00--

□ अविनाश बागड़े

31.
प्रकृति गोद
समुद्र की लहरें
बलखाती हिलोरें
हो प्रफुल्लित
चंचल हवा चली
सांझ किरण ढली ।
--00--

□ सुशीला साहू "शीला"

32.
उत्तुंग गिरि
खड़े हैं सीना तान
मानव है नादान
काटे पहाड़
धरती पे भूचाल
नतीजे से अंजान ।
--00--

□ शशि मित्तल

33.

नदी की धार
देश की तरुणाई 
चल पड़ी जिधर
ऊँचे पर्वत 
बनाते स्वयं पथ
देख बढ़ते पग ।
--00--

34.
पीर पर्वत 
लांघते-लांघते यूँ
क्लान्त मत हो मन
प्रीत निर्झर
मिलेंगे यहीं पर 
तनिक धीर धर  ।
--00--

35.
जीवन क्या है!
सागर तट पर
लहरों का नर्तन
चलता क्रम 
उसके संकेतों से
होता आवागमन ।
--00--

□ सुरंगमा यादव

36.
वृक्षारोपण 
वनों का संरक्षण 
शुद्ध पर्यावरण 
नित नवीन 
देते ये प्राणवायु 
जीवन हो दीर्घायु ।
--00--

□ अरूणा साहू

37.
देश की शान
बर्फ से ढका गिरि
भारत का रक्षक
अमरनाथ
पवित्र तीर्थस्थल
हिमालय अचल ।
--00--

□ सविता बरई "वीणा"

38.
समुद्र तट
सौंदर्य था निराला
फिर भी प्यासा मन
धैर्य पूर्वक
पीया अमृत प्याला 
किया आत्म चिंतन ।
--00--

□ जाविद अली

39.
पर्याय वन
अरण्य व गहन
कान्तार व कानन
अख्य-समुद्र
विपिन व जंगल
ध्येय जीव मंगल ।
--00--

40.
वन पर्याप्त
शनैः शनैः समाप्त
वायु कैसे हो प्राप्त
जीवन हेतु
जल-वायु आधार
सभी का सरोकार ।
--00--

41.
स्वार्थ-ग्रसित
इंसान की प्रवृत्ति
जीव-जंतु त्रसित
जीवन हेतु
वन अपरिहार्य
संरक्षण हो कार्य ।
--00--

42.
वन-विनाश- 
विषय चिंतनीय,
बने न दयनीय. 
आत्मविश्वास
सतत हो प्रयास
नैसर्गिक विकास ।
--00--

43.
कैसी बाध्यता ?
अरण्य विलुप्तता
क्या यही है सभ्यता ?
भूखे व प्यासे
जंगली जानवर
भटकें दर-दर ।
--00--

44.
जंगल नष्ट
हर तरफ आग
बुझ रहा चिराग
जीवन हेतु
विकास नाम पर
वन न नाश कर ।
--00--

45.
राजा सगर 
नाम पर सागर
जलचर-निर्भर
चन्द्र-मुस्कान
समुद्र में उफान
प्रसन्न आसमान ।
--00--

46.
सिन्धु-पर्याय
सागर व जलधि
रत्नाकर-उदधि
संग वारिधि
नदीश-नीरनिधि
पारावार-पयोधि ।
--00--

47.
दैत्य-असुर
विवेकहीन क्रुद्ध
उतारू हुए युद्ध 
अमृतपान
विषय था प्रधान
जरूरी था निदान ।
--00--

48.
दुर्वासा श्राप
देवता शक्तिहीन
विष्णु शरण दीन
मुक्ति-उपाय
एक मात्र जतन
समुद्र का मंथन ।
--00--

49.
देव को प्राप्त
विष्णु-महेश ज्ञान
करो अमृतपान
चमत्कारिणी
कामधेनु निकली
देवों ने सहर्ष ली ।
--00--

50.
सिन्धु-मंथन
हलाहल निकला
शिव जी ने निगला
विषपान से
महादेव शंकर
नीलकंठ ईश्वर ।
--00--

51.
सिन्धु में नदी
पूर्णतः समाहित
प्रेम अन्तर्निहित
जमी-आकाश
समुद्र-चन्द्र प्यार
सीख जीव संसार ।
--00--

52.
वाष्पोत्सर्जन
सिन्धु करे सृजन
बारिश की फुहार
हर्षित जमी
धानी कर श्रृगार
व्यक्त करे आभार ।
--00--

□ विनय कुमार अवस्थी

53.
प्रभु का प्यार
सागर से गहरा
उमड़ता ही जाता
जीवन सोता
जो कभी न सूखता
निरन्तर बहता ।
--00--

□ ए.ए.लूका

54.
सागर तट
आती जाती लहरें
मछली घोंघे सीप
जीवन पले
सामुद्रिक कचरा
बढ़ाये विषाक्तता ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

55.
हे रत्नाकर
गर्भ में है असंख्य
अनमोल मोतियां
अभिमानी हो
नदी सा मीठा जल
नहीं पास तुम्हारे ।
--00--

□ डॉ. पुष्पा सिंह "प्रेरणा"

56.
मरुस्थली सी
दरकती धरती
तपके कंचन सी
कटते वन
कहते हैं कहानी
मानव मनमानी ।
--00--

□ मंजू सरावग "मंजरी"

57.
जल उष्णीष
अख्य रम्य जीवन
अण्डज थांग मन
अर्णव तोय
उग्र कल्लोल डर
भय मुक्त भास्कर ।
--00--

□ राकेश चतुर्वेदी

58.
उदास गिरि
बिन तरुवर के
सूखे जल झरना
खोया सौंदर्य
अंधा हुआ मानव
सुकून अब कहाँ ।
--00--

□ साधना कृष्ण

59.
पर्याय गिरि
अचल, भूमिधर
पहाड़ व शिखर
तुंग-पर्वत
भूभृत महीधर
कूट-धरणीधर ।
--00--

60.
गिरि उच्चता
समाहित दृढ़ता
पर्वत श्रृंखलाएं
अद्भुत दृश्य
बर्फ से आच्छादित
मन हो आनन्दित ।
--00--

61.
पर्वत स्त्रोत
गंगा-अवतरण
यमुना उत्सर्जन
जीवन आस
भागीरथ प्रयास
मिटा जग संत्रास ।
--00--

62.
उच्च-शिखर
बर्फ के ग्लेशियर
क्यों पोलरबियर
लुप्तप्राय से
गिरि अतिक्रमण
वन्यजीव क्षरण ।
--00--

63.
सघन-वन
प्राप्त करें विस्तार
फल-फूल अपार
सर्वत्र झाड़
दरकते पहाड़
लुप्त सिंह दहाड़ ।
--00--


□ विनय कुमार अवस्थी

64.
प्रचण्ड गर्मी
सहता गिरिराज
पहन हिमताज
रक्षक वह
है हमारे देश का
हमको तो है नाज़ ।
--00--

65.
वृक्षारोपण
एक अभिवादन
जो बना देता  वन
पर्यावरण 
सुरक्षित रखने
खुश हो जाता मन ।
--00--

66.
नाप सकते
मन की गहराई
काश संभव होता
समुद्र में भी
हो फसल उगाई
ग़रीबी की विदाई ।
--00--

□ पद्म मुख पंडा

67.
समुद्र जल
रखे समेट कर 
कोरल संपदाएँ
विविध रंग
मीन और शैवाल
अजूबों का संसार ।
--00--

68.
कैलाश गिरि
पवित्र है जगह
सबका यह तीर्थ
शिव निवास
आदिनाथ का वास
देखकर उल्लास ।
--00--

69.
वन्य जीवन
होता  नहीं आसान
अस्तित्व का प्रयास
जद्दोजहद
भोजन की खोज में
है जान हथेली में ।
--00--


□ मधु सिंघी

70.
असंख्य जीव
पालता वन सदा
आश्रित देव मनु
उपेक्षा दंश
कराहता लाचार
है मौत के कगार ।
--00--

71.
खड़ा अटल
आसमान ताकते
झेलते विभीषिका
मौन सेवक 
गिरिधर के प्यारे
गिरिराज हमारे ।
--00--

72.
नील सागर
अथाह जलराशि
अद्भुत है संसार
विशाल हृद
लहरों पर नाचे
विष्णु पग पखार ।
--00--


□ रंजन कुमार सोनी

73.
सागर जल
लहरों संग फिर 
गुनगुनाते गीत 
मनभावन 
ये जीवन संगीत 
मन हो पुलकित ।
--00--

□ वृंदा पंचभाई

74.
सृष्टि सौन्दर्य
चिर प्रकृति हास
वसुधा के आंचल
श्वेत चादर
अनुपम अनूठी
गिरि आंचल शांत ।
--00--

□ देवेन्द्र नारायण दास

75.
खुले तन पे
मौसमी अचकन
झरने बरसाती। 
जीवन देते
मोड़े हवा का रुख
रोके गिरि की छाती ।
--00--

76.
ऐ दावानल 
     खौफ सदा चिंगारी     
जंगल न जलाओ
वन विलुप्त
पेड़ हो रहे ठूठे
वनचरी बचाओ ।
--00--

77.
सागर थाती
करें फिर मंथन 
मिल जाए संस्कार
निकल आये
अपने छूटे रिश्ते 
अपनापन प्यार ।
--00-- 


□ श्रवण चोरनेले 'श्रवण'

78.
जग जीवन
सागर  की लहरें
उठतीं व गिरतीं
उन्मादग्रस्त
श्वेत फेन बनातीं
नीली काया सुन्दर ।
--00--


□ स्वाति गुप्ता "नीरव"
••••ॐ••••

प्रस्तुति 

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

संपादक : सेदोका की सुगंध 

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