हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका) संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक" ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

गुनगुनी सी धूप (ताँका संग्रह)

 गुनगुनी सी धूप  

(ताँका संग्रह)

गुनगुनी सी धूप (ताँका संग्रह)
प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
● GUNGUNI SI DHOOP (गुनगुनी सी धूप) 
      (A COLLECTION OF TANKA POEM)
●  Ayan prakashan, Delhi 
● Edition First :2020
● Price : ₹ 220/--
● ISBN : 9789389999426


 विवरण


        वर्णिक जापानी छन्द रूपराशि का इन्द्रजाल रचते हैं । सहेज लेते हैं लघु में विराट का हर स्पंदन । अनुभूति की बूँद आखर-सीपी में ढलती है और आबदार मोती बनकर बाहर निकलती है । दमक उठती है अनूठी आभा से ।
        प्रकृति की अश्रुत ध्वनियों की पकड़ बड़ी मजबूत होती है।आँखों को कान बनाकर सुनना पड़ता है । वे स्वयं ही शब्दों का पीछा करती हैं । और करती हैं अनुकूल लय का अनुसंधान । समंदर की हर भंगिमा को जिसने जी भरकर देखा है वह तांका के मोहपाश से मुक्त नहीं हो सकता । जापान में इसे "लघु गीत" की संज्ञा दी गई है ।
         इतिहास का रुख करें तो पता चलता है कि सन् 1952 में "प्रो. आदित्यप्रताप सिंह" के सृजन से तांका ने भारत भू पर कदम रखे । कथितव्य है कि "कवीन्द्र रवीन्द्र" ने अपनी जापान यात्रा के दौरान एक तांका लिखा था । सन् 2000 से तांका विधा ने निर्झर सी सतत प्रवाहमानता पाई । सर्व श्री सतीशराज पुष्करणा, डाॅ मिथिलेश दीक्षित, भागवत दुबे, रामनिवास मानव ,आदि के क्रम में "प्रदीप कुमार दाश" जी तांका शैली को अपने अभिनव स्पर्श से संवारने को संकल्पित हुये ।
       5-7-5-7-7 वर्णक्रमवाला" पंचपदी तांका छन्द "रूपानुरागी प्रकृति, जीवन संघर्ष और अंततोगत्वा दार्शनिक परिणति के संकेतों तक विस्तृत है ।अनछुए प्रतीकों और बिंबों में मुखर होती सौंदर्य चेतना को अंकित करने में दाशजी सिद्धहस्त हैं । आठ कृतियों , 2 अनूदित संग्रहों एवं 13 सहयोगी संकलनों के साथ उनका रचना संसार अभिभूत करता है । 35 से अधिक सम्मान और पुरस्कार उनके सृजनात्मक वैभव के साक्षी हैं । विश्व के प्रथम रेंगा संग्रह "कस्तूरी की तलाश" के संपादन का श्रेय भी उन्हीं के नाम है । साथ ही ""तांका की महक "" में 271 रचनाकारों के 1421 तांकाओं के संचयन-संपादन का गौरव भी उन्होंने पाया है । उनका प्रणयन प्रणयी के जुनून, छायावाद के सूक्ष्मग्राही संस्कार और अध्यात्म के अलौकिक संकेतों की त्रिवेणी है ।
          साठोत्तरी ग़ज़ल ने जैसे महबूब की बांहों से छूटकर खुरदुरे धरातल पर चलना सीखा । पाँव के छालों की चुभन,वो टीस, वो कसक महसूस की उसी भाँति प्रकृति के रम्य अनुप्राणों से आगे तांका विधा में जीवन का हर रंग हर स्फुरण समाने लगा ।
           जापानी काव्य "सौंदर्य चेतना" को चुंबक की तरह आकृष्ट करता है । प्रकृति का ऐसा कोई उपादान नहीं जो प्रदीप जी का अनुगामी नहीं । जीवन दर्शन से जुड़े सारे "प्रतीक प्रतिमान" उनके तीव्र संवेदनों से संचालित हैं ।
           उनके कितने ही "तांका" "चाँद का परिक्रमा पथ" सजाते हैं । उसका मानवीकरण रूप अंतस्तल छू लेता है । चाँद रोया रात भर/भोर ओस पी गई जैसी अप्रतिम व्यंजना वाह करने पर मजबूर कर देती है । चाँद शरद का रूमान रचता है,सिसकता है, दरिया की लहरों को नाव बनाकर उस पर सवार होकर अलगोजे की धुन छेड़ता है, तो कभी "नर्सिसस" सा अपने ही रूप पर रीझ उठता है ।
"कवीन्द्र रवीन्द्र" नदी के रूप पर मुग्ध थे । निराला बादलों पर रीझे  तो भवानीप्रसाद मिश्र जंगलों की रूप सुषमा के दीवाने थे । अमृता प्रीतम को लपट अंगारों आदि से लगाव रहा तो "रमानाथ अवस्थी ", चंदन, चाँदनी पर मोहित हुये । अज्ञेय, अहेरी, मछली द्वीप जैसे बिंबों को हेरते रहे, टेरते रहे । दाशजी को चाँद चाहिए । चाँद बिना उनका गुजारा नहीं । धरती से मात्र 59% अपना रूप दिखलाने वाले चाँद का पूरा रूप किसी ने नहीं देखा पर उन्होंने उसके बहुविध दर्शन से छंदों की तिजोरी भर ली है ।
पलाश, हरसिंगार, अमलतास, कास घास के फूल, गुलाब, जूही, सूरजमुखी जैसे फूल अनुभूतियों की रेशमी डोर में गूँथे गये हैं "सर्वहारा की प्रवक्ता दूब" भी उपस्थित है । आँसुओं का रहस्य समझानेवाली "ओस" भी ।
         निसर्ग का हर आंदोलन संगीन क्षणों की कारा से मुक्त कर जिजीविषा जगाता है । महामायावी विश्व में आत्मतत्व की कस्तूरी इतस्ततः ढूंढनेवाले मानव की नादानी पता है उन्हें । मिट्टी का तन मन लिये पानी के बुलबुले सी जीवन की सत्ता तांका श्रृंखला में साकार हुई है ।
         जीवन की रंगशाला में कवि अपनी भूमिका को तत्परता से निभाने में संलग्न हैं । "वज्रादपि कठोर मृदूनि कुसुमादपि "जीवन के दोनों छोर उनकी दृष्टि के केन्द्र में हैं । "शब्दचित्र गढ़ने में महारत है "उन्हें-------- "ठूंठ के तन/आई कोंपलें देख/टटोले मन/चूम चली अधर/हवा बंजारन।"
--'--"दूल्हा मेंढक/दुलही है मेंढकी/बेला शादी की/पेड़ बाँचे नेवता/मेघ आओ बाराती/""
--''''-दार्शनिक निष्कर्ष सौंपता हुआ ये तांका द्रष्टव्य है-'-
--"धीरज धर/सफलता के शीर्ष/पंछी जानते/नभ में नहीं होती/बैठने की जगह/":"
जीवन का फलसफा इससे अधिक खूबसूरत शब्दों में कोई क्या समझा पाएगा---
---जेब में छेद/पहुंचाता है खेद/सिक्के से ज्यादा/गिरते यहां रिश्ते/अचरज ये भेद/"""
               रसार्द्र रंगों के मिश्रण से आकृत सार्थक उत्प्रेक्षाएं उनकी भाषायी संपन्नता की द्योतक हैं । बेटी के लिये "दीपशिखा" और "चिड़िया" सी उपमा मन के नाज़ुक रेशों से बनी है !
खून का रंग एक है फिर धर्म को अलग से परिभाषित करने की गरज क्या है--मनुष्यता के हक में ये बेहद उम्दा सवाल पूछा है उन्होंने । समसामयिक संदर्भ चाहे गलवान घाटी हो पुलवामा , पर्यावरण, कोरोना , कन्या रक्षा, स्त्री विमर्श, किसान, कबीर दर्शन, कुछ भी तो नहीं भूले ।
भौतिकवादी आग्रहों ने सहज मानवीय संवेदनों को घायल कर दिया है । अपार क्षति पहुंचाई है । आँसू और मुस्कान दोनों नकली हैं ।
          शिव की भाँति तम पीने का हुनर सिखलाता "दीपक "स्वयं उनके नाम में स्थित है । किरणों के ताने बाने से अनगिन तांका सूरज बुनते हुये कवि रात की मुट्ठी में बंद सबेरे को निकाल लाने को कृतसंकल्प हैं ।
वृक्षों की "बोन्साई शैली" जैसे जापानी छन्द समूचे अस्तित्व को झंकृत करते हैं। "ओस में समंदर" समा जाने जितनी सुरीली कल्पना छांदस सृजन में प्रतिबिम्बित  होती है । 
         तांका के इतिहास में स्वर्णाक्षरित यह "गुनगुनी सी धूप" पाठकों को खुशी की खनक सौंपेगी और मौन को बाँसुरी बना देगी । कीर्ति पताका/लहराये नभ में/मंजुल तांका/दिशि दिशि गुंजित/मुस्काए मधु राका ।।


                                         - इन्दिरा किसलय



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