हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका) संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक" ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐 ~•~ 卐

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

बाशो जी का प्रसिद्ध हाइकु

 

प्रसिद्ध जापानी हाइकुकार बाशो जी का प्रसिद्ध हाइकु :

[ जापानी, हिन्दी, छत्तीसगढ़ी,  ओड़िया, कोशली, अंग्रेजी, राजस्थानी, गोडवाड़ी, मारवाड़ी, मराठी, कन्नड़, मागधी, भोजपुरी, मैथली, पंजाबी, डोगरी, मालवी, अंगिका, एवं बांग्ला आस्वादन ]

The best-known Japanese haiku is Bashō's "old pond":




古池や蛙飛び込む水の音

ふるいけやかわずとびこむみずのおと
 ( transliterated into hiragana )

furu ike ya kawazu tobikomu mizu no oto
 (transliterated into rōmaji )

Japanese :

古池や
蛙飛び込む
水の音

furu ike ya
kawazu tobikomu
mizu no oto

This separates into on as:

fu-ru-i-ke ya (5)
ka-wa-zu to-bi-ko-mu (7)
mi-zu-no-o-to (5)

देवनागरी लिप्यंतरण :

फुरु इके या
कावाजु तोबिकोमु
मिजु नो ओतो  ।

हिन्दी  अनुवाद :

पुराना ताल
कूद गया मेंढक
छपाक छप ।

 अनुवादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

छत्तीसगढी अनुवाद :

जून्ना तरई
कूद देव मेंचका
छप्प अवाज ।

अनुवादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

ओड़िया अनुवाद :

पुरुणा बन्ध
बेंग गला दउड़ि
छपाक्'र स्वर ।

ପୁରୁଣା ବନ୍ଧ
ବେଙ୍ଗ ଗଲା ଦଉଡ଼ି 
ଛପାକ୍'ର ସ୍ୱର ।

- ପ୍ରଦୀପ କୁମାର ଦାଶ "ଦୀପକ"

କୋଶଳୀ ଅନୁବାଦ -

ଜୁହ୍ନା ଗୁଟେ ବଂଧ୍ 
ବେଂଗ୍'ଟା ଜାଏସି ନର୍'ଧି
ଛପାକ୍ ଛପ୍ ଆବାଜ୍ ।

- ମନୀଷା ମିଶ୍ର

Translated in eng.

Old pond
frog leaps in
water's sound .

□ Pradeep Ku. Dash

राजस्थानी अनुवाद :

जूनो जोहड़
टरड़ू कूद गयो
फदाक फद ।

Govind Singh Gehlot

राजस्थान की गोडवाड़ी बोली : ----

जूनू तराव
उलरियू भाड़कु
सपाक सप ।

मधु सिंघी

जोधपुरी मारवाड़ी बोली

जूनो तळाव
गंटो बीड़े मेंडको
धड़ाम धड़ ।

मधु सिंघी

मराठी अनुवाद

जुना तलाव
फुदकतो बेडुक
छपाक छक. ।

 - प्रकाश कांबले

मराठी अनुवाद

जुनं तलाव
उडी मारे बेडूक
छप्पाक छप

- सुधा राठौर

कन्नड़ अनुवाद...

ಹಳೆಯ ಕೊಳ -(5)
ಒಂದು ಕಪ್ಪೆ ಜಿಗಿದ -(7)
ಚಾಪ್ ಚಪ್ಪಕ್ -(5)

Haḷeya koḷa-पुराना तालाब
ondu kappe jigida-एक मेढक कूदा
cāp cappak- चोप चप्पक

- ऋता शेखर 'मधु'

बिहार की मागधी में अनुवाद

पुरान पोख्रा
कूद गेलई बेंग
छप्पक छप

- ऋता शेखर 'मधु'

भोजपुरी में अनुवाद

पुर् आन ताल
कुदळअस ढ़ाबुस
छप्पे छप्पाके ।

– विभा रानी श्रीवास्तव

 मैथली में अनुवाद

पुराणक ताल
कुदलैक जे बेंग
छप्पकाक छै।

– विभा रानी श्रीवास्तव


पंजाबी में अनुवाद

ਪਰਾਣਾ ਛੱਪੜ
ਡੱਡੂ ਦੀ ਟਪੂਸੀ
ਪਾਣੀ ਦੀ ਛਪਾਕ।

 पराणा छप्पड़
डड्डू दी टपूसी
पाणी दी छपाक।

- भुपिंदर कौर

डोगरी में अनुवाद- 

पराना तला
कुद्दी गेआ ऐ डिड्डूं
छपाक छप्प ।

- यशपाल निर्मल

मालवी  में अनुवाद -

जुनो तलाव
कुदी गयो डेडको
फट देनी से ।

- संजय डागा

अंगिका में अनुवाद -

बेंग कूदलै
पुराना पोखर में
छपाक सनी ।

- अजय चरणम्

वांग्ला में अनुवाद

पुरोनो पुकुर
ब्यांगेर लाफ
जलेर शब्द ।

- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
    
    यह जापानी हाइकु भारतीय हाइकु जगत में भी काफी चर्चित है ।


□ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

haikumanjusha.blogspot.in

बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

短歌 : ताँका

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

                                                        चौदह ताँका चाँद पर


01.
शरद रात
मध्य रात्रि का चाँद
हो पुलकित
दे गया पूनो को वो
पीयूष की सौगात ।
---0---

02.
रात पूनम
शरद की चाँदनी
धरा पे बिछी
कोर स्नेह गगन
आज चाँद मगन ।
---0---

03.
शरद रात
आज पूनो का चाँद
प्रेम पीयूष
खूब बरसायेगा
लिए कोमल याद ।
---0---

04.
कुनमुनाता
चल पड़ा अकेला
चाँद तनहा
झील की पगडण्डी
मुस्करा रही आज ।
---0---

05.
नभ हैरान
चहुँ ओर बादल
घने हैं छाये
पर दिखता नहीं
आज उसका चाँद ।
---0---

06.
सिसका चाँद
टपक पड़े अश्रु
दूबके ओस
मोतियाँ सुना रहीं
नेह पीर वृतांत ।
---0---

07.
नेह गगन
पीयूष बरसाने
चाँद मगन
सीपी को मिली मोती
जीवन हुआ धन्य ।
---0---

08.
सिसक पड़ी
दूबों पर चाँदनी
चमक उठी
चाँद रोया रात को
भोर ओस पी गयी ।
---0---

09.
पूनो की रात
नभ से लाया चन्द्र
सुधा सौगात
चन्द्रिका सुना रही
प्रियतम की बात ।
---0---

10.
चाँद से प्रीत
गुनगुनाती रही
चाँदनी गीत
मिलन की थी खुशी
ओस थाम ली पत्ती ।
---0---

11.
विहँसा चाँद
खिल गयी चाँदनी
महकी रात
चमकाने में लगी
काला चेहरा आज ।
---0---

12.
चाँद पे बैठी
चरखा चला रही
बुढ़िया दादी
बहु की लोरियों में
मीठी नींद बुनती ।


13.
चाँद व तारे
घूमें मौज मनाएँ
परी के वेश
गीत गाएँ खुशी से
झूमें झील प्रदेश ।
---0---

14.
चाँद जो रोया
टप. टपका अश्रु
नभ से ओस
पत्तियों ने ली थाम
कोहरा मुस्कराया ।
---0---

                                  - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

俳句 : हाइकु - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

                             

                               हाइकु : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"


                                                            मन पर हाइकु


01.
महका मन
हाइकु की सुगंध
बाँचे पवन ।

02.
मन फकीर
चित्रोत्पला के तीर
रे ! क्यों अधीर ?

03.
प्रथम वर्षा
सौंधी महकी धरा
मन हर्षाया ।

04.
बूँदें बरसीं
तन व मन गीले
प्रीत जगातीं ।

05.
मन गुलाब
झुलसाती धूप ने
जलाए ख्वाब ।

06.
मन रावण
वासना की कुटिया
सिया हरण ।

07.
मन बहके
फूटी स्वप्न कलियाँ
टेसू महके ।

08.
मन उल्लास
बौराया है फागुन
गा उठा फाग ।

09.
प्रेम का रंग
लग हर्षाया तन
फगवा मन ।

10.
होली के रंग
प्रेम से पगे मन
होली उमंग ।

11.
तेरी छुवन
मन बगर गया
मानो बसंत ।

12.
पंछी का मन
कँपकँपाता हिम
स्तब्ध जीवन ।

13.
मन की धुन
बचपन की बात
ले डाली सुन ।

14.
मीरा का मन
अनुराग से पगा
कनु का संग ।

15.
 पूष की रात
हल्कू जाएगा खेत
मन उदास ।

16.
होरी का मन
गोबर औ धनिया
रहें प्रसन्न ।

17.
गेहूँ की बालि
झूमती गीत गाती
मन हर्षाती ।

18.
फुली सरषों
पियराने लगे हैं
मन के खेत ।

19.
दीप जलते
रोशन कर जाते
मन हमारे ।

20.
घना अंधेरा
दीप जलता रहा
मन अकेला ।

21.
पत्ते झरते
ईश्वर की शरण में
मन रमाते ।

22.
माटी का तन
तप कर निखरा
कंचन मन ।

23.
घर थे कच्चे
तब की बात और
मन थे सच्चे ।

24.
मन के भेद
मिटाएँ तो मिटेंगे
मत के भेद ।

25.
मयारु मन
लोक गीत चंदन
माटी वंदन ।

26.
बाँसों के वन
रिलो में झूम उठे
लोगों के मन ।

27.
मन क्या जुड़े
जुड़ गये दिल भी
हृदय जुड़े ।

28.
घुँगरु बना
नाचता रहा मन
छन.. छनाया ।

29.
आदमी-पंक्ति
मन एक हाइकु
छंद प्रकृति ।

30.
धूप को धुने
मन मानो बादल
गुन गुनाए ।

31.
काँच सा मन
ह.ह. तोड़ ही दिया
धूप निर्मम ।

32.
तनहा मन
प्रकृति की गोद में
हुआ सानंद ।

33.
टूटी पत्तियाँ
कैसे संभले मन
रूठी डालियाँ ।

34.
मन व्यथित
भाव निर्झर हुए
निकली पीर ।

35.
भव सरिता
मन बना नाविक
खे रहा नाव ।

36.
मन का मृग
ईश्वर की तलाश
कस्तूरी चाँद ।


37.
बिखरे पात
मन में रह गयी
मन की बात ।

38.
मन गागर
उमड़ी भावनाएँ
समा सागर ।

■ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

चोका : 長歌

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"


चार चोका


01.

पूर्वा की गोद
खेले शिशु सूरज
भव्य ये दृश्य
खिल उठी री धूप !
देख प्रसन्न
बगिया के सुमन
हो कर मोद
पंछी के कलरव
करें भोर स्वागत ।
☆☆☆☆☆☆☆

02.

रंग रात के
मानो वे भेद रहे
मर्म तम के
या कहूँ जीवन के
हृदय गुफा
गहन अंधकार
सुख व दुःख
नीरवता की लहरें
बुन चलीं सन्नाटे ।
☆☆☆☆☆☆☆

03.

बढ़ी तपन
सूखने लगी घास
अब की बार
चिड़िया के मन में
जगी है आस
चुन चुन तिनके
बुनेगी नीड़
देख प्रसन्न पंछी
खुले सृजन द्वार ।
☆☆☆☆☆☆☆

04.

शैल खण्डों में
जाग उठी चेतना
आस्था से प्रीत
नयन ये तृषित
प्राण व्याकुल
गीत कलकल के
गाते सस्वर
निश्चल व निश्छल
बह चले निर्झर ।
☆☆☆☆☆☆☆

■ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

मो.नं- 7828104111

सेदोका : 旋頭歌

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"


सेदोका


01.
माँ केवल माँ
नहीं चाहिए उसे
व्यर्थ कोई उपमा
गुम जाती है
"उप" उपसर्ग से
माँ की महिमा ।
 --00--

02.
माता की छाया
पिता का अभिमान
बेटी सदा महान
कली खिलती
आँगन महकाती
दो कुलों की वो शान ।
--00--

03.
दीप से मिला
प्रेम की पराकाष्ठा
दीप बना निर्मम
प्राण अर्पण
प्रेम हुआ अमर
जल उठा पतंग ।
--00--

04.
ईश की धुन
जीवन एक थाप
मन रागिनी सुन
पाखी की भाँति
तृण तृण को चुन
गुना सृजन गुन ।
 --00--

05.
दीप जलाएँ
तम को पी जाने का
आओ हूनर सीखें
जगमगाएँ
तम से लड़ कर
आओ राह दिखाएँ ।
--00--

06.
दीपक जला
रोशन कर चला
वह जग समूचा
राह दिखाता
थकी, हारी व झुकी
निविड़ तम निशा ।
--00--

07.
बूढ़ा दीपक
रात भर था जागा
थका, दिन में सोया
कोने में पड़ा
मधुर स्मृति स्वप्न
संजो रहा अकेला ।
--00--

08.
माटी का तन
अग्नि में तप कर
निखरता कंचन
अह. ह. मन
अंत माटी को ही
करता आलिंगन ।
--00--

09.
लोक गीत के
लय पुष्प सरीखे
संस्कृति महकाते
तीज-त्यौहार
आंचलिकताओं की
प्रीत गंध लुटाते ।
--00--

10.
नारी जानती
अवसादों को ठेल
वह खुशियाँ लाती
गम पी लेती
रुलाई को बाहर
कभी आने न देती ।
--00--

11.
प्रातः पवन
सुमनों के बाग से
चोरी हुई सुगंध
महका जग
सुरभित हो उठे
आज दिग दिगंत ।
--00--

12.
आया वसंत
कूक रही कोयल
महकी अमराई
मुस्काती रही
देख नेन खुमारी
आज आम्र मञ्जरी ।
--00--

13.
खिला गुलाब
खूब भायी अमीरी
बन गया नबाब
लहू चुसता
हिफाजत के लिए
चुने काँटों का साथ ।

--00--

14.
सामने खड़ा
जब जब अँधेरा
करना रे संघर्ष
सूरज बन
हौसला के हथोड़े
बनाना स्वयं रास्ता ।
--00--

15.
घर की शोभा
संस्कृति की तस्वीर
आँगन की तुलसी
पूजा कर माँ
रोज दीप जलाती
गर खुशियाँ लाती ।
--00--

16.
लगी मञ्जरी
विरवा बन कर
पनपती तुलसी
भोर से साँझ
आँगन महकाती
घर रौनक लायी ।
--00--

17.
भीगी पलकें
माॅझी की रुसवाई
यादें पुरवाई की
महकी सौंधी
बहका सा आईना
दिखी शक्लें दोहरी ।
--00--

18.
लाड़ली ऊषा
रात की गहराई में
सूर्य के बीज बोयी
सूरज उगा
खिल उठी री धूप
मुस्करा रही धरा ।
--00--

19.
पृथ्वी के गर्भ
बीज में छिपे पेड़
पेड़ में छुपे वन
वन में गूँजे
जीवन रुपी गीत
पंछियों के संगीत ।
--00--

20.
देखे थे स्वप्न
शहर गया बेटा
बेचे हुए खेत का
ले सारा धन
बूढ़े और बूढ़ी के
लगे अब न मन ।
--00--

21.
किनारे तोड़
बहती नहीं झील
गति स्थिर उसकी
समा लेती है
झील की गहराई
प्रत्येक तूफान को ।
--00--

22.
मेघ बावला
ढोल बजाता आया
कृषक हरषाया
बूंदें टपकीं
सज उठी धरती
जग प्यास बुझाया ।
-----0-----

23.
सोन चिरैया
चहकती रहना
दमकती रहना
भटकना न
भटक जातीं जैसे
पश्चिम की गुड़िया ।
-----0-----

24.
पेड़ व ताल
ताजी हो गयी फिर
बचपन की याद
धुन सवार
भागता सरपट
जीवन बेहिसाब ।
---000---

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

haikumanjusha.blogspot.in

रविवार, 15 अक्तूबर 2017

सेदोका नवगीत

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

सेदोका नवगीत क्र. 01

गीत सुनाना
••••••••••••

ओ री ! तू पाखी
बन जाए जो नीड़
तब गीत सुनाना ।

पंख पसार
चोंच में ले तिनका
होंगे नव निर्माण
प्राची की दिशा
करते कलरव
तब गीत सुनाना ।

बहती हवा
बन कर दुश्मन
उड़ा ले जाए नीड़
फिर भरना
हौंसले की उड़ान
नव नीड़ बनाना ।

श्रम सीकर
बूँदें तू चख लेना
स्वाद फिर बताना
सृजन सिक्त
प्रीत बने मधुर
तब गीत सुनाना ।  □

- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
________________________

सेदोका नवगीत क्र.02

माँ की याद में
••••••••••••••

माँ जो नहीं है
आँगन की तुलसी
मुरझा सी गयी है ।

उसकी याद
सिलबट्टा भी अब
भुलता देना स्वाद
माँ जो नहीं है
मात्र स्मृति बची है
जब से वह गयी है ।

चौंरे का दीप
चिढ़ा हुआ मुझसे ;
हृदय जलाता है
बेनुर वक्त
माँ बिन ये जगत
सूना सा लगता है ।

यादें उसकी
बस गयी हैं उर में
मुझे तड़पाती हैं
माँ जो नहीं है
आँगन की तुलसी
मुरझा सी गयी है ।  □
   
- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_______________________

सेदोका नवगीत क्र.03

दीप जो जला
•••••••••••••

दीप जो जला
उजली हुई राहें
अग जग सँवरा ।

जलता रहा
प्रकाश गीत गाता
तम दूर भगाया
प्रीत की टोह
रोशन हुआ जग
हारी निविड़ निशा ।

पतंग जला
दीप से मिल जाना
प्रेम की पराकाष्ठा
हाय.. अर्पण
कैसा ये समर्पण
मन जान न पाया ।

सिसक रहा
था, रात भर जागा
थका, दिन में सोया
कोने दुबक
मधुर स्मृति स्वप्न
संजो रहा अकेला ।  □

   - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________

सेदोका नवगीत क्र.04

बचपन की याद
••••••••••••••••

पेड़ व ताल
ताजी हो गयी फिर
बचपन की याद ।

धुन सवार
कभी तितलियों के
तो कभी मेंढकों के
दौड़ता पीछे
दौड़ता ही रहता
जीवन बेहिसाब ।

बूढ़ा पीपल
खड़ा गाँव के बीच
देता था कभी न्याय
बिन उसके
न्याय मिलते नहीं
पंच बने अय्यास ।

वट का पेड़
रो रो कर सुनाता
गाँव के बुरे हाल
दुःखी हैं लोग
सूख गये हैं कुएँ
खो गया अब ताल ।  □

- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_______________________

सेदोका नवगीत क्र. 05

गुलमोहर
••••••••••

गर्मी प्रखर
प्रेम का था असर
खिला गुलमोहर ।

कड़की धूप
हो गयी बेअसर
प्रेम की हुई जीत
खिलता रहा
मन बाग महका
हृदय हरषाया ।

गुल की लाली
मोह लेती मन को
लालित्यमयी शोभा
देख पथिक
रुक जाते तनिक
पाते शीतल छाया ।

पी प्रेम रस
तन किया सरस
सुर्ख रक्तिम हुआ
कृष्ण के माथ
चढ़ इठला रहा
मानो स्वर्ग से आया ।  □

 - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_______________________

कस्तूरी की तलाश (रेंगा संग्रह)

कस्तूरी की तलाश 

विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह

   संपादक - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

प्रकाशन वर्ष - 2017



समीक्षित पुस्तक – “कस्तूरी की तलाश” (श्रृंखलित पद्य) 
सम्पादक, प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 2017, पृष्ठ 149 
    हिन्दी काव्य साहित्य को एक अनुपम उपहार 
  समीक्षक : डा. सुरेन्द्र वर्मा 

नए रास्तों की तलाश करने वाले श्री प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ हाइकु विधाओं की खोज में रेंगा काव्य से टकरा  गए और जापान से उसे भारत हिन्दी साहित्य में ले आए । हिन्दी में उन्होंने अपने वाट्सअप व फेसबुक समूह के हाइकु कवियों से श्रृंखलाबद्ध रूप से ये कवितायें लिखवाईं और उन्हें संपादित कर हिन्दी काव्य को परोस दिया । नाम दिया “कस्तूरी की तलाश’ । हिन्दी काव्य को उनका यह प्रयत्न एक अनुपम उपहार है ।
    दीपक जी ने पुस्तक के अपने ‘पुरोवाक्’...में जापान की काव्य विधा, ‘रेंगा’ का एक सुबोध परिचय कराया है । उसके विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है । संक्षेप में बताते चलें कि रेंगा एक समवेत श्रृंखला बद्ध काव्य है । यह दो या दो से अधिक सहयोगी कवियों द्वारा रचित एक कविता है । रेंगा कविता में जिस प्रकार दो या दो से अधिक सहयोगी कवि होते हैं उसी तरह् उसमें दो या दो से अधिक छंद भी होते हैं । प्रत्येक छंद का स्वरूप एक ‘वाका’ (या तांका) कविता की तरह होता है । रेंगा इस प्रकार कई (कम से कम दो) कवियों द्वारा रचित वाका कविताओं के ढीले-ढाले समायोजन से बनी एक श्रृंखला-बद्ध कविता है ।
    रेंगा कविता की आतंरिक मन:स्थिति और विषयगत भूमिका कविता का प्रथम छंद (वह तांका जिससे कविता आरम्भ हुई है) तय करता है । हर ताँके के दो खंड होते हैं । पहला खंड ५-७-५ वर्ण-क्रम में लिखा एक ‘होक्कु’ होता है । (यही होक्कु अब स्वतन्त्र होकर ‘हाइकु’ कहलाने लगा है ।) वस्तुत: यह होक्कु ही रेंगा की मन:स्थिति और विषयगत भूमिका तैयार करता है । कोई एक कवि एक होक्कु लिखता है । उस होक्कु को आधार बनाकर कोई दूसरा कवि ताँका पूरा करने के लिए ७-७ वर्ण की उसमें दो पंक्तियाँ जोड़ता है । उन दो पंक्तियों को आधार बनाकर कोई अन्य दो कवि रेंगा का दूसरा छंद (तांका) तैयार करते हैं । कविता के अंत तक यह क्रम चलता रहता है । रेंगा को समाप्त करने के लिए प्राय: अंत में ७-७ वर्ण क्रम की दो अतिरिक्त पंक्तियाँ और जोड़ दी जाती हैं । रेंगा इस प्रकार एक से अधिक कवियों द्वारा रचित एक से अधिक तांकाओं की समवेत कविता है  ।
    ‘कस्तूरी की तलाश’ रेंगा कविताओं का हिन्दी में पहला संकलन है । दीपक जी ने इसे बड़े परिश्रम और सूझ-बूझ कर संपादित किया है । एक पूरी कविता संपादित करने के लिए वह जिन सहयोगी कवियों को एक के बाद एक प्रत्येक चरण के लिए प्रेरित कर सके, वह अद्भुत है । कवियों को पता ही नहीं चला कि वे रेंगा कविताओं के लिए काम कर रहे हैं । उन्होंने इस रचनात्मक कार्य के लिए स्वयं को मिलाकर ६५ कवियों को जोड़ा । उनके एक सहयोगी कवयित्री का कथन है कि “एकला चलो” सिद्धांत के साथ गुपचुप अपने लक्ष्य को प्रदीप जी ने जिस खूबसूरती से अंजाम दिया, काबिले तारीफ़ है । सच, ‘समवेत’ कविताओं को आकार देने के लिए वे ‘अकेले’ ही चले और सफल हुए । कस्तूरी की तलाश में उनकी लगन, श्रम, और प्रतिभा वन्दनीय है |
     जैसा कि बताया जा चुका है किसी भी रेंगा कविता का आरंभ एक होक्कु से होता है । संकलन में संपादित सभी रेंगा कविताओं के ‘होक्कु’ स्वयं प्रदीप जी के हैं । कविता के शेष चरण अन्यान्य कविगण जोड़ते चले गये हैं । कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर रेंगा कवितायेँ ६ तांकाओं से जुड़कर बनी हैं ।
    अंत में मैं इन रेंगा कविताओं में से कुछ चुनिन्दा पंक्तियाँ आपके आस्वादन हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ –
   
जीवनरेखा / रेत रेत हो गई / नदी की व्यथा // नारी सम थी कथा / सदियों की व्यवस्था  (रेंगा,१)
नाजों में पली / अधखिली कली / खुशी से चली // खिलने से पहले / गुलदान में सजी  (रेंगा ११)
बरसा पानी / नाचे मन मयूर / मस्ती में चूर // प्यासी धरा अघाई / छाया नव उल्लास  (रेंगा २१)
गृह पालिका / स्नेह मयी जननी / कष्ट विमोचनी // जीवन की सुरभि / शांत व् तेजस्वनी  (रेंगा ३०)
रंग बिरंगे / जीवन के सपने / आशा दौडाते // स्वप्न छलते रहे / सदा ही अनकहे  (रेंगा ४०)
हरित धरा / रंगीन पेड़ पौधे / मन मोहते // मानिए उपकार / उपहार संसार  (रेंगा ५१)
पानी की बूंद / स्वाति नक्षत्र योग / बनते मोती // सीपी गर्भ में मोती / सिन्धु मन हर्षित  (रेंगा ६१)
पीत वसन / वृक्ष हो गए ठूँठ / हवा बैरन // जीवन की तलाश / पुन: होगा विकास  (रेन्गा ७१)
देहरी दीप / रोशन कर देता / घर बाहर // दीया लिखे कहानी / कलम रूपी बाती (रेंगा ८१)
गाता सावन / हो रही बरसात / झूलों की याद // महकती मेंहदी / नैन बसा मायका  (रेंगा ९०)
पौधे उगते / ऊंचाइयों का अब / स्वप्न देखते // इतिहास रचते / पौधे आकाश छूते  (रेंगा ९८)  
   
   (उपर्युक्त पंक्तियाँ जिन सहयोगी कवियों ने रची हैं उनके नाम हैः – प्रदीप कुमार दाश, चंचला इंचुलकर, डा. अखिलेश शर्मा, रमा प्रवीर वर्मा, नीतू उमरे, गंगा पाण्डेय, किरण मिश्रा, रामेश्वर बंग, देवेन्द्र नारायण दास, मधु सिन्घी और सुधा राठौर )
     मुझे पूरा विश्वास है, कि हिन्दी काव्य जगत दीपक जी के इस प्रयत्न की भूरि भूरि प्रशंसा करेगा और उसे रेंगा-पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगा ।

- डाॅ. सुरेन्द्र वर्मा (मो, ९६२१२२२७७८)
१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१
--------00--------

कस्तूरी की तलाश (विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह) संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
प्रकाशक : अयन प्रकाशन दिल्ली                                    प्रकाशन वर्ष - 2017
पृष्ठ - 149                                                                            मूल्य - ₹ 300
_______________________________________________________________

                   गूढ़  अर्थ  ओढ़े  बेजोड़  रेंगा - संग्रह "  कस्तूरी  की  तलाश  "
                                     
                               समीक्षक : - सूर्यनारायण गुप्त "सूर्य"
                   
       हाइकु  सम्राट  श्री  प्रदीप  कुमार  दाश ' दीपक ' के  महनीय प्रयास  से संपादित भावभरित  सम्भवतः   विश्व   का   प्रथम हिन्दी  रेंगा -संग्रह " कस्तूरी  की  तलाश "जो  मुझे  समीक्षार्थ  मिला , को  पढ़ने  का सौभाग्य  मिला । पढकर  मैं  धन्य  हो गया ।
                      जापान  से  चलकर  भारत के  साथ - साथ  विश्व  हाइकु  साहित्य के  आकाश में अपना  अमिट छाप छोड़ता हाइकु  का  ही  एक  आकार- प्रकार  ' रेंगा - छंद ' जो  दो  या  दो  से  अधिक  कवियों के  पूरक  सहयोग  से त्रिपदी  हाइकु  छंद 05 + 07 + 05  को  जोड़ते  हुए  इसमें  + 07 + 07  वर्ण - क्रम के जुड़ाव  से निर्मित पंचपदी  रेंगा  छंद  का  स्वरूप  धारण करते  प्रस्फुटित  होती  है । इसमें  एक व्यक्ति  द्वारा  रचित  हाइकु  छंद  में  दूसरा या   कभी - कभी      तीसरा    व्यक्ति ( साहित्यकार ) पूरक संदेशात्मक  पंक्ति 07 + 07  को  जोड़कर  रेंगा  छंद  का रूप  प्रदान  करता  है । इस  पूरक  जुड़ाव से  निर्मित छंद  जिसमें भावों  की संपूर्णता का  बोध  हो  तो  वही  छंद ही  ज्यादे शुद्ध व  ग्राह्य  माना  जाता  है ।

                           प्रतिभा  के  धनी  दर्जनाें कालजयी  कृतियों  के  रचयिता , अनेक सम्मानों  से  विभूषित , अनेक  साझा संकलनों  के  कुशल  संपादक - रायगढ़ ( छ० ग० )  के  निवासी , विश्व  प्रसिद्ध आदरणीय श्री प्रदीप कुमार  दाश ' दीपक' जो  हाइकु  साहित्य  में  अपना एक अलग नाम  व  मुकाम  बना  चुके  हैं , निश्चय  ही बधाई  के  पात्र  हैं ।
                             
                    बदलते  साहित्य  के  परिवेश के  इस  नये -नये  प्रयोगवादी दौर  में इस कालजयी  संग्रह  के  सभी  रेंगा  छंद , जो इनके कुशल संपादन में  65 साहित्यकारों के  पूरक  सहयोग  से  संपादित  है। निश्चय ही रेंगा साहित्य के  लिए ' मील का पत्थर' साबित  होगा । भावी  साहित्यकारों  का मार्ग - दर्शन  कराने  में  भी  पूर्णतः  सक्षम होगा ।  हाँ  यदा  कदा  संग्रह  में  कहीं - कहीं  वर्णों  की  सँख्या  में  घटाव - बढाव दिख  रहा  है ,  जो  मेरे  समझ  से  टंकण की  त्रुटि  हो  सकते  हैं । जिसे अगले संस्करण में  ठीक  कर  लिया  जाए तो  अच्छा  ही  होगा । वर्तमान  संस्करण में  शुद्धि - अशुद्धि  पत्र  भी  संलग्न  किए जा  सकते  हैं ।

          लौकिक / पारलौकिक  अर्थ  ओढ़े - ' सीप  में  मोती '  व ' गागर  में  सागर '  वाले  मुहावरे  को  चरितार्थ  करते  ये हृदयस्पर्शी , सारगर्भित रेंगा  छंद  जीवन के  मर्म - कर्म  व  धर्म  को  उजागर  करते प्रतीत  होते  हैं । इनमें  जीवन - दर्शन  के भी  बिम्ब  का  प्रतिबिंब  प्रतिबिम्बित  है । जीव  व  प्रकृति  तथा  देश - दुनिया  के संपूर्ण  शाश्वत  सत्य  का  कथ्य  व  तथ्य को  उकेरता  यह  रेंगा  संग्रह  "  कस्तूरी की  तलाश "  आप  को  यशस्वी  बनावे ।

     हाइकु  साहित्य - जगत  में  आपकी रचनात्मक  सक्रियता  श्लाघ्य  है । मैं आपके  इस  प्रतिभा  को  सम्मान  देते हुए  आपको  सलाम  करता  हूँ । ' सूर्य ' की  सतरंगी  करणें  आपके  जीवन - पथ को  सदा  आलोकित  करती  रहें । इसी कामना  व  भावना  के  साथ - साथ  आप व  पूरक  समस्त  सहयोगी  साहित्यकारों को  मेरी  ढेर  सारी शुभकामनाएँ ।

                              सूर्यनारायण  गुप्त  " सूर्य "
                               ग्राम  व पोस्ट - पथरहट  ( गौरीबाजार )
                             जिला - देवरिया  ( उ० प्र० ) -274202
                           मो० 09450234855 , 07607855811

-------000-------

प्रदीप जी ! मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है । बहुत दिनों बाद आपसे संपर्क हो रहा है । आपके द्वारा प्रेषित "कस्तूरी की तलाश" विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह एवं आपका हाइकु संग्रह "प्रकृति की गोद में" दोनों पुस्तकें आज प्राप्त हुईं । "कस्तूरी की तलाश" वास्तव ही ऐतिहासिक कार्य है । दोनों पुस्तकों में आप पर्याप्त श्रम किये हैं, इन विधाओं में आपकी साहित्य सेवा प्रशंसनीय है । मेरा आशीष सदा आपके साथ है ।

 □ डाॅ. भगवत शरण अग्रवाल
       25 नवम्बर 2017
000

वाह-वाह....बेमिशाल व लाज़वाब 'कस्तूरी की तलाश' में लिखी गई पंक्तियों के भाव....
व बेहद सुंदर उल्लेख आपके द्वारा ईश्वर करे कलकल करती हुई, मीठी नदी के प्रवाह सा बिन बाधा बहता ही जाये ये सफ़र...

□ तौहीद ख़ान

जीवट काम
परेशानी तमाम
पूर्ण आयाम ।

प्रदीप भाई । आपको हाइकु-ताँका प्रवाह के हर हस्ताक्षर की बधाई ।

एक नायाब
एक अनोखा चित्र
पेश किया है
रेंगा दौड़ रहा है
प्रदीप सा सारथी ।

इस शानदार शाहकार में प्रदीप कुमार दाश "दीपक" प्रदीप जी ने जो अपनी बात ,अपने दो शब्द हाइकु परिवार की विभिन्न विधाओं पर रखें वे अतुलनीय है.....
"कस्तूरी की तलाश" में आपकी समर्पित भावना को नमन  ।

        □ अविनाश बागड़े
         23 अक्टूबर 2017

कस्तूरी की तलाश " का मैं भी एक हिस्सा हूँ, यह मेरे लिये अत्यंत गौरव की बात,  आदरणीय प्रदीप कुमार दाश "दीपक" जी को असीम शुभकामनाएँ .. अत्यंत सुखद भाव हुआ कितनी सुंदर विधा है "रेंगा".. सबको एकसाथ पढ़ा तो सभी के उत्कृष्ट सृजन का प्रतिबिम्ब देखने को मिला.. उत्कृष्ट शीर्षक उतना ही सुंदर मुखपृष्ठ ..मेरे सृजन को प्रदीप जी ने सम्मान दिया एक नई उड़ान दी उसके लिये मैं हृदयपूर्वक आभारी हूँ..आपको एवम  सभी रचनाकारों को अनंत बधाइयाँ..

    □ अल्पा जीतेश तन्ना
      20 नवम्बर 2017

 भाई प्रदीपजी आपके द्वारा प्रेषित विश्व का प्रथम रेंगा-संग्रह "कस्तूरी की तलाश" प्राप्त हुआ।इसके माध्यम से आपके कृतित्व से भी परिचय हुआ।बहुत-बहुत धन्यवाद व बधाई ।

      □ कैलाश वाजपेयी

विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह " कस्तूरी की तलाश" , पुस्तक के रूप में मुझे सुंदर कलेवर में प्राप्त हुआ । आदरणीय प्रदीप भाई के सम्पादन में एक अभूतपूर्व , सराहनीय प्रयास ।

प्रारंभिक दिनों में समझने में कुछ असुविधा हुई ... कइयों ने प्रश्न भी उठाए परन्तु जल्दी ही सभी रचनाकार बड़े उत्साह से इस श्रृंखला में शामिल होते गये ।

एक नया अनुभव ... खो-खो के खेल जैसा या अंताक्षरी जैसा .. कड़ी से कड़ी जुड़कर एक नई विधा में सृजन होता गया ।

इस अभियान के लिये पूर्णरूप से समर्पित प्रदीप भाई की सराहना शब्दों से परे है । उन्हीं की लगन और प्रयास ने इस पुस्तक में 66 रचनाकारों को जोड़ा और रेंगा का सृजन हुआ ।

मै अपना सौभाग्य मानती हूँ कि विश्व के इस प्रथम रेंगा संग्रह "कस्तूरी की तलाश" में मुझे भी स्थान मिला है ।

इस स्तुत्य अभियान के लिये आदरणीय प्रदीप भाई का हृदयपूर्वक  अभिनंदन , बधाई और बहुत बहुत धन्यवाद !!
                        
                                   □ सुधा राठौर
                                 19 नवम्बर 2017

     आदरणीय प्रदीप जी "कस्तूरी की तलाश" प्राप्त हुई, पुस्तक प्राप्त कर बेहद प्रसन्नता हो रही है । वास्तव में पुस्तक बहुत ही सुन्दर, ज्ञानवर्धक एवं संप्रेषक है ।
     आप हिंदी जगत के बहुत बड़े साहित्यकार हैं निःसंदेह आपका नाम विश्व साहित्य में बड़ी कीर्ति के साथ लिया जाएगा । आपकी पुस्तकें प्रकृति की गोद (हाइकु संग्रह) व "कस्तूरी की तलाश" विश्व के प्रथम रेंगा संग्रह सुन्दर-सुन्दर शब्दों में प्रस्तुत उम्दा, रोचक व ज्ञान वर्द्धक संग्रह है । आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
                                
                                   □ सविता बरई
                                 16 नवम्बर 2017

     एक नवल राह चलने का संकल्प आ. प्रदीप कुमार दाश दीपक जी का रेंगा संग्रह के रूप में साकार हुआ ।
'तांका की महक' मंच में शुरू हुआ था रेंगा ...एक हाइकु की अगली दो पंक्ति से पूर्ण करने था तांका ।
     नोटिफिकेशन से आती सूचना बस लिख आते थे, अपनी भावनाओं को
नहीं पता था इस खेल खेल में लिखे जा रहे तांका से विश्व का पहला रेंगा संग्रह आकार ले रहा ।
दो दिन पहले जब बिना किसी सूचना के उपहार स्वरूप मिली ये पुस्तक पाकर मन आश्चर्य मिश्रित खुशी भीग गया।
वाकई "एकला चलो" सिद्धान्त के साथ गुपचुप अपने लक्ष्य को आ. प्रदीप जी ने जिस खूबसूरती से अंजाम दिया है ,काबिले तारीफ है ।
इस रेंगा संग्रह का हिस्सा बनना खुद पर गौरव महसूस करवा गया।
बहुत सारे आभार के साथ आपको ढेरों शुभकामना ।
                    □ चंचला इंचुलकर सोनी
                         18 नवम्बर 2017

काव्य के पुष्प
कस्तूरी की सुगंध
शब्द सुमन
झर झरे खुशबू
मनमोहक काव्य
मनभावन
मन करे विभोर
देता आनंद
आ० प्रदीप दास ने
रचा है काव्य रेंगा
कृति अनुप
विश्व पटल पर
जापानी विधा
रचा प्रथम काव्य
बनाया इतिहास ।

           □ रामेश्वर बंग
       24 अक्टूबर 2017

हैं भगीरथ
दीपक! रेंगा रचा
हिंदी साहित्य
अतुलनीय श्रम
कस्तूरी की तलाश
फैली महक
मह मह महके
कुंड़ल तोड़
फैलती चहु ओर
विरोध ध्वस्त
चकित हैं समस्त
बने मील पत्थर।।

 □  गंगा पाण्डेय भावुक

कस्तूरी की तलाश
निःसन्देह हिंन्दी की रेंगा विधा की
पहली पुस्तक बन हिंदी के इतिहास में अपना स्थान दर्ज करायेगी एवम् विश्व में जहां भी
हिन्दी रेंगा विधा पढ़ी पढ़ाई जायेगी इस पहली पुस्तक को
पहला स्थान मिलेगा।
  हिन्दी साहित्य का अभिन्न अंग
बनने के लिये रचनाकारों को
बधाई एवम् संकलन कर्ता दीपक
जी को शुभकामनाएं।।।

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

अनन्त पुष्प एक डाल
पहले ने परोसा दूजे को थाल
छियासठ सुर और एक ताल
रेंगा 'कस्तूरी की तलाश' बेमिसाल
बस कमाल! कमाल!!
और कमाल!!!

      □ दाताराम पुनिया

    विश्व के प्रथम रेंगा संकलन के लालित्यपूर्ण प्रकाशन के लिए संपादक व हाइकु महारथी आदरणीय प्रदीप कुमार दाश "दीपक" भूरि भूरि प्रशंसा के अधिकारी हैं । उनकी रचनाधर्मिता के साथ लगनशीलता व संपादकीय कौशल की जितनी प्रशंसा की जाए कम है, इस भागीरथी प्रयास में मैं बड़े विलंब से जुड़ पाया ,फ़िर भी प्रदीप जी ने इस अद्भुत आयोजन में मेरी उपस्थिति रेखांकित की, आभारी हूँ ।भविष्य में भी प्रदीप जी ऐसे ही नवोन्मेषी सारस्वत प्रकल्प हाथ में लेते रहें और सफलता के नित नये सोपान चढें यही मंगलकामनाएं हैं ।

 □ डाॅ. संजीव नाईक

दीप्त प्रदीप
   हैं साहित्यालंकार
     रेंगा सुवास
   कस्तूरी महकाएं
यश दशो दिशाएं ।

□  हेमलता मिश्र

यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है । प्रदीप जी आपने बहुत सराहनीय कार्य किया और हम भी इसके हिस्सा बन सके। धन्यवाद  ।

  □ मधु सिंघी

ढेरों बधाई
अद्भुत रेंगा कृति
अतुलनीय
ऐतिहासिक क्षण
शुभकामना संग ।

    □ शगुफ्ता यास्मीन काज़ी

शब्द सुमन
रचे दीपक दास
फैली खुशबू
विश्व पटल पर
काव्य कृति अनुप ।

     □ रामेश्वर बंग

          आत्मीयता के नाते उपहार स्वरूप बहुत सुन्दर पुस्तक प्राप्त हुई । विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह, श्रृंखलित पद्य"कस्तूरी  की तलाश"
प्रिय प्रदीप कुमार दाश 'दीपक' द्वारा सम्पादित ।
              जब रेंगा प्रारम्भ किया गया कुछ लोगों ने इसका भरपूर विरोध किया था पर साहसी अभियान रुका नहीं और अपनी अन्य प्रारम्भिक गतिविधियों पर विराम लगाकर  प्रिय प्रदीप जी ने इस पर कार्य प्रारंभ कर दिया और रेंगा की  बहुत खूबसूरत पुस्तक प्रेषित की ।
               इस पुस्तक में  मुझ समेत 66 रचनाकार सम्मिलित हैं ।सभी प्रतिभागियों को बहुत बहुत बधाई । प्रिय प्रदीप जी को पुनः धन्यवाद एवं शुभकामनाओं के साथ ---

                     □ अंशु विनोद गुप्ता
                       19 नवम्बर 2017
      
         विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह- "कस्तूरी की तलाश" इस बेमिसाल संग्रह का मैं भी एक हिस्सा हूँ,मुझे गर्व है।आदरणीय प्रदीप कुमार दाश दीपक का कुशलतापूर्वक किया गया संपादन और उनकी मेहनत संग्रह मे साफ झलकती है । सभी शामिल रचनाकारों ने पूरे मन से रचनाधर्मिता का निर्वाह किया है।
कौन सी पंक्तियां काव्य मे कहाँ उपयुक्त होंगीं उन्हें कहाँ सँजोना है?इस महत्वपूर्ण निर्णय की जबाबदारी को जिस बखूबी से प्रदीपजी ने अंजाम दिया है वही इस पुस्तक की आत्मा है।
       निश्चित ही यह रेंगा काव्य एक विशेष दस्तावेज होकर आने वाली पीढ़ी के लिये मील के पत्थर के समान पथप्रदर्शक सिद्ध होगा।

                         □ डाॅ.अखिलेश शर्मा
                                इन्दौर (म.प्र.)
                            19 नवम्बर 2017



विश्व का प्रथम  रेंगा संग्रह "कस्तूरी की तलाश" श्रृंखलित पद्य संग्रह
            
 समीक्षिका - किरण मिश्रा

हाइकु हिन्दी साहित्य जगत के देदीप्यमान रत्नदीप "आदरणीय प्रदीप कुमार दाश "दीपक" जी के कुशल संपादन  एवं अद्भुत संयोजन से , 66 हाइकु लेखकों को एक साथ  लेकर अपने कुशल नेतृत्व  में उनकी रचनाओं के समन्वित मेल से सजी "कस्तूरी की तलाश" विश्व काव्य जगत में प्रथम श्रृंखलित पद्य रेगा संग्रह का संकलन है ।

आकर्षक आवरण पृष्ठ और उत्कृष्ट हाइकु और तांका के मेल से सुसज्जित और 66 हाइकुकारों के  सुन्दर भावों से सुशोभित 100 रेंगा कविताओं का अद्भुत समन्वय और संकलन की मेल है ।
आदरणीय प्रदीप  जी के इस प्रयास की जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है! जिन्होने विभिन्न प्रान्त के हिन्दी हाइकुकारों को एक साथ  एक मंच पर लाकर न केवल उनकी रचनात्मकता को निखारा है अपितु हिन्दी हाइकु मंच पर उनकी रचनाओं  को प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई  है!

मित्रों रेंगा हाइकु और तांका का समन्वित रूप यानी 5/7/5/7/7 के वर्ण क्रम में आगे बढाते हुए तांका के स्वरूप में विषय और भाव की अनुरूपता के साथ  सम्पन्न करते हैं इसमें असीमित तांका हो सकते हैं !
यूँ तो "कस्तूरी की तलाश" में हर रेंगा बेहद खूबसूरत  और भावमयी है जो आपको इसे पढ़नें की यात्रा में विश्राम नहीं लेने देते... पर कुछ रेंगा  बेहद खूबसूरत  बन पढ़े हैं जिनमें लेखक गण ऐसे रम जाते हैं कि उस कविता का अन्त ही नहीं  आता... बस वह मीठी नदी की भाँति अपने लय और ताल से ताल मिलाती  कलकल करती आगे बढ़ती रहती है तो कहीं झरने के शोर सी बरबस आनन्द पान कराती पूर्ण तृप्ति की अहसास देती है, कहीं जीवन धुन गुनगुनाती है, तो कहीं माँ की ममता उड़ेलती,  कहीं जीवन राग सुनाती,सत्य के धरातल का अहसास  कराती,जीवन के हर उतार चढ़ाव ,सुख दुःख  की सुन्दर परिभाषा  और उनके मर्म को समझाती , प्रकृति की गोद में मचलती अपने मनोहारी दृश्यों से मन मोहती ,प्रेम और नफरत जैसे रिश्तों पर सुंदर संदेश देती!

कस्तूरी की तलाश  में निकले 66 रचनाकारों की भावनाओं को काव्य गलियों के विभिन्न मार्गों से भ्रमण कराती  अपनी सुगंध से सुवासित करती अदुभुत,अनुपम और अलौकिक कस्तूरी की तलाश  के रूप में प्रस्तुति उनके भावों के तलाश को एक नया आयाम दे मन को प्रफुल्लित  एवं प्रसन्नचित कर लेखनी को विराम देती है...!

कस्तूरी की तलाश में कुछ रेंगा में प्रयुक्त हायकु और तांका बहुत ही मन भावन और मनोहारी हैं

कस्तूरी की तलाश  शुरू होती है #प्रदीप कुमार दाश जी के हाइकु कि निम्न पंक्तियों  से...रेंगा क्र. 01

जीवन रेखा
रेत रेत हो गयी
नदी की व्यथा * प्रदीप कुमार दाश'दीपक'
नारी सम थी कथा
सदियों की व्यवस्था *चंचला इंचुलकर सोनी

और तलाश खत्म होती है ...रेंगा क्र. 100  : किरण मिश्रा की निम्न पंक्तियों  पर....जाकर

दुर्गम पथ
बढ़ते ही जायेंगे
जीवन रथ  *देवेन्द्र नारायण दास
मन डोर पकड़
आगे बढ़ता ही चल *किरण मिश्रा

दोस्तों यूँ तो कस्तूरी की तलाश  के हर रेंगा अनमोल रत्न है पर यहाँ  पर मैं कुछ प्रमुख रेंगा  की पंक्तियों  को उल्लेख कर रही हूँ जो कस्तूरी की तलाश  के अनुशीलन की यात्रा में मुझे बेहद आकर्षित की...

रेंगा क्र.66

उपमानों से
रूठते उपमेय
मनाऊँ कैसे?  * प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
शब्दों के गजरे में
प्रीत सजाऊँ कैसे? *किरण मिश्रा
भावों का प्याला
गूथ रही चाँदनी
शब्दों  की माला * किरण मिश्रा
जग की नीरसता
गले लगाऊँ कैसे?*अलका त्रिपाठी "विजय"

यूँ तो कस्तूरी  की तलाश में गढे़ गये   हर तांका बेहद खूबसूरत है पर कुछ तो इतने चित्ताकर्षक हैं जिनका उल्लेख किये बिना मेरा लेखन अधूरा है....

रेंगा क्र. 69

काँच सा मन
ह.. ह.. तोड़ ही दिया
धूप दर्पण * प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
कोमल था हृदय
विदीर्ण हुआ मन * गंगा पांडेय भावुक
बेहद खूबसूरत  रेंगा

रेंगा क्र.  70

मृग की आस
कस्तूरी की तलाश
कुण्डलि वास *प्रदीप कुमार दाश 'दीपक'
वन वन भटके
व्यर्थ  करे प्रयास *मधु सिंघी
भ्रमित मन
ढूँढता मरूजल
जाने ना मर्म  *किरण मिश्रा
घट घट में राम
कर भक्ति निष्काम *दाता राम पुनिया

कुछ रेंगा प्रकृति का अनुपम संदेश दे रहे हैं...जैसे

रेंगा क्र. 71 में तांका की निम्न पंक्तियाँ..

धरा के अंग
करेंगे देहदान
झरते पत्ते *सुधा राठौर
नैसर्गिक विधान
परिवर्तन प्राण * डाॅ. अखिलेश गौतम

रेंगा क्र. 72
अद्भुत, अनुपम, बेमिसाल, लाजवाब कलकल मीठी नदी के प्रवाह  सा बढ़ता ही जा रहा है ,50 तांका का समिश्रण से 9 पन्नों पर अपनी अद्भुत छठा बिखेरना सुन्दर भावों से सजा मन मोह लेता है...

सर्दीली रात
गीत गा रहा चाँद
कोमल याद * प्रदीप कुमार दाश दीपक
रस की बरसात
ठिठुर रहे गात *डाॅ. अखिलेश गौतम

आओ ना पास
घोल दो साँसों में
रसीली बात * किरण मिश्रा
श.... श..... चाँद करता
कुछ राज की बात * डाॅ. अखिलेश गौतम

रेंगा क्र.  76  प्रकृति का सुन्दर मानवीकरण

लोरी के बीज
नींद वृक्ष उगाने
बोती मातायें * प्रदीप कुमार दाश 'दीपक'
मधुर स्वप्न पले
ममता दीप जले * किरण मिश्रा
स्नेह के छाँव
मीठी नींद के गाँव
आँचल तले * किरण मिश्रा
मखमली स्पर्श
उग जाता है दर्द  *डाॅ. अखिलेश वर्मा

रेंगा क्र. 84  शब्दों की रिमझिम  बारिश से तन मन भिगोता...

प्यासी है धरा
ओ मतवाले मेघा
आ बरस जा *सुधा राठौर
घुमड़ के घिर आ
भिगो मन की धरा *शुचिता राठी

रेंगा क्र.96  प्रेम की मधुर स्मृति संजोता तांका

नेह की डोरी
बँधी कथा स्मृतियाँ
बाँचते पत्ते *किरण मिश्रा
सबको देता छाँव
पूजता सारा गाँव *मधु सिंघी

प्रकृति के सुन्दर बिम्बों से सुसज्जित, भावनाओं  से भरी जीवन मूल्यों का अनमोल खजाना ,पूर्ण लय ताल और भावों से भरी रेंगा कवितायें,मन के तारों  को झंकृत  करती भाव के प्यासे 66 रचनाकारों के तलाश  तो पूर्ण करती ही है मित्रों आप सभी से भी मेरा आग्रह कि "कस्तूरी की तलाश " को एक बार आप अवश्य ही पढें । मुझे विश्वास है कि संग्रह आपको काव्य जगत के एक अलग दुनिया का अनुभव कराने में निश्चय ही सक्षम साबित होगा । आप काव्य रसिक अगर काव्य में भाव और  प्रकृति बिम्बों का आनंद लेना चाहते  हों तो आपसे मेरा पुनः निवेदन है कि "कस्तूरी की तलाश" रेंगा संग्रह को एक बार अवश्य पढें ।

                                              □ किरण मिश्रा
                                              टावर-ए-9, फ्लैट नम्बर-1506
                                               जे.पी. क्लासिक विशटाउन
                                                 सेक्टर -134 नोयडा, उत्तर प्रदेश

 

  कस्तूरी की तलाश  (विश्व का प्रथम रेंगा संग्रह)

         पुरोवाक् ....

   जापान में तीसरी शताब्दी से ले कर आठवीं शताब्दी तक लगभग 260 कवियों की 4515 कविताएँ ओतोमो नो याकामोचि द्वारा "मान्योशू" में संकलित हैं । इस संग्रह में ताँका, चोका व सेदोका तीन शैलियों की कविताएँ प्राप्त होती हैं जिसमें 262 चोका, 61 सेदोका एवं 4000 से भी अधिक ताँका कविताएँ संग्रहित हैं ।
           ताँका 05,07,05,07,07 वर्णक्रम की पंचपदी रचना है जिसमें कुल 31 वर्ण होते हैं । "मान्योशू" काल जापान के इतिहास में "नारा युग" के नाम से अभिहित है । इस युग के उपरांत हेइआन युग की डायरियों व उपन्यासों के प्रेम प्रसंग में ताँका गीत प्राप्त होते हैं, इसके माध्यम से प्रेम संदेशों और उपालम्भों का आदान - प्रदान किया जाता रहा । "जापानी हाइकु कविता" पृ. 06 में प्रो. सत्यभूषण वर्मा वर्णन करते हुए कहते हैं - " हेइआन युग में सामन्ती समाज में कविता प्रेमी-प्रेमिका को परस्पर लाने का एक सहज माध्यम बन चुकी थी । प्रेमी, जिसने शायद प्रेमिका को देखा भी न होगा, अपने प्रथम संदेश में कविता लिख कर भेजेगा । उत्तर में दूसरी ओर से भी कविता प्राप्त होगी । इस प्रकार उत्तर में जो कविता प्राप्त होगी वह न केवल दूसरे पक्ष के भाव अथवा उसकी प्रतिक्रिया को हो व्यक्त करती होगी अपितु वह कैलोग्राफी के सधे हाथों से लिखी गई होगी, जिसमें प्रेमी अथवा प्रेमिका की कला-सुरुचि का भी परिचय होगा । मिलन होने के पश्चात् पुनः कविता का आदान-प्रदान होगा ।"
          रेंगा का पर्यायवाची शब्द "हाइका" एवं ताँका का पर्यायवाची शब्द "वाका" भी प्रयोग किया जाता है । एक जापानी कवि द्वारा वाका का सर्वप्रथम वर्णन - इस शब्द के दो भाग हैं "वा" अर्थात "जापानी" और "का" अर्थात "कविता" या गीत । वाका की सजीवता के कारण नवीन शैली रेंगा "श्रृंखलित पद्य" अंतरित हुई, इसकी प्रारंभिक तीन पंक्तियाँ पुनः नवीन काव्य शैली "हाइकु" नाम से अभिहित है । तेरहवीं शताब्दी का आरम्भ ताँका शैली की कविता का उत्कर्ष काल था । 1235 में फुजिवारा सादाइए ( तेइका ) द्वारा सौ कवियों की एक-एक ताँका कविता चुन कर "ह्याकुनिन्इश्शू" में संकलित किया गया । जापान में आज भी "कारुता उता" नाम से जो एक लोकप्रिय खेल प्रचलित है उसमें ताश के पत्तों पर इस शतक की सौ कविताएँ होती हैं । कारुता शब्द पुर्तगाल के "कारता" शब्द से आया है और इसका अर्थ है ताश का पत्ता । कारुता में योमीफूदा और तोरीफूदा दो तरह के ताश के पत्ते का प्रयोग किये जाते हैं । योमीफूदा पढ़ने वाले पत्ते एवं तोरीफूदा पकड़ने वाले पत्ते हैं । योमीफूदा पत्ते की पंक्तियां पढ़ी जाती हैं एवं तोरीफूदा की पंक्तियों को ढूँढ कर निकाला जाता है । एक प्रकार के पत्तों पर ताँका का पूर्वांश एवं दूसरे प्रकार के पत्तों पर उत्तरांश अर्थात दो पंक्तियाँ । एक व्यक्ति एक प्रकार के पत्तों की कविता योमीफूदा को पढ़ता है और खिलाड़ी को उसके जोड़ का पत्ता दूसरे प्रकार के पत्ते तोरीफूदा से चुन कर निकालना पड़ता है । खिलाड़ी को काव्य की कण्ठस्थता के आधार पर जीत प्राप्त होती है । "कारुता उता" एक एक पत्ते को चुनने का खेल है, जो सारे पत्ते पहले निकाल लेता है उसकी जीत होती है ।
       "ताँका की 05,07,05,07,07 वर्णक्रम की पाँच पंक्तियों को सुविधापूर्वक 05,07,05 और 07,07 के दो खण्डों में बाँट कर पढ़ा जा सकता है । हेइयान युग में कविता-रचना अभिजात्य वर्ग की सांस्कृतिक अभिरुचि का विषय बन चुका था । आशु-कविता प्रतियोगिताओं में प्रायः एक व्यक्ति पूर्वांश की तीन पंक्तियों की रचना करके उत्तरांश की रचना दूसरे के लिए छोड़ देता था । इस प्रकार दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति मिल कर कविता की रचना करने लगे जिससे रेंगा अथवा श्रृंखलित पद्य की परंपरा का विकास हुआ । इसमें एक व्यक्ति 05,07,05 वर्णक्रम की प्रथम तीन पंक्तियों की रचना करता है, दूसरा 07,07 वर्णक्रम की दो पंक्तियाँ जोड़ चर उसे पूरा करता है । यह 31 वर्ण की ताँका कविता है । अब तीसरा व्यक्ति दूसरे की रची हुई दो पंक्तियों को कविता का पूर्वांश मान कर 05,07,05 वर्णों की अगली कड़ी जोड़ेगा, जिसका पहले कड़ी से कोई सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं । इस प्रकार यह श्रृंखला आगे बढ़ायी जा सकती है ।" प्रो. सत्यभूषण वर्मा "जापानी कविता" पृ. 08 (संदर्भ साभार)
            1488 में सोगि, शोहाकु और सोचो नामक तीन प्रसिद्ध कवियों ने 100 कड़ियों के श्रृंखलित पद्य की रचना की, इसकी प्रारंभिक कड़ियाँ हैं -----
       
         युकि नागारा
         यामामोतो कासुमु
         यूबे का ना  □ सोगि
                  युकु मिजु तोओकु
                  उमे निओउ सातो  □ शोहाकु
         कावाकाजे नि
         हितोमुरा यानागि
         हारू मिएते  □ सोचो
                  फुने सासु ओतो मो
                  शिरुकि आकेगाता ।  □ सोगि
     
      "भारत और एशिया का साहित्य"  पृ. 274 में प्रभाकर माचवे जी द्वारा इसका अनुवाद प्रस्तुत है, जो इस प्रकार है ------
        
  □ बर्फ अभी बाकी है
      पर्वत के ढलान धुँधले हैं ---
      संध्या है ।
  □ पानी दूर बहता है
      बेर से सुगन्धित गाँव के पास
  □ नदी की हवा में
      बेत का गुच्छ
      वसंत आ रहा है ।
  □ एक नाव को खेकर लाने की आवाज
      सबेरे  की साफ रोशनी में स्पष्ट ।

    "अरी ओ करुणा प्रभामय" प्रथम संस्करण वर्ष 1959 पृ. क्र. 100 में अज्ञेय जी द्वारा श्रृंखलित पद्य का एक प्रयोग किया गया जिसकी टिप्पणी में -- " प्रथम छन्द टोकोकू पर आधारित; दूसरा जूगो, तीसरा यासुई, चौथा बाशो पर । जापानी 'रेंगा' (श्रृंखलित पद्य) की पद्धति पर" इंगित है । कविता का शीर्षक "शिशिर-वसन्त" इस प्रकार है -----
          
                   शिशिर-वसन्त

        □ "शिशिर की वर्षा :
             चाँद मेघ की मुट्ठी में
             छिपता नहीं ।

        □  बिजली उजली हिम चादर पर
             दिपती है

        □  पहले अधीर अहेरी
             माँज रहे हैं तीर
             भोर के अँधेरे में ।

        □  सिहरा है समीर
             वह पीछे वसंत आता है ।"

      ये चारों छंद भिन्न भिन्न चार जापानी शीर्ष कवियों की कविताओं के आधार पर चारों छन्दों की रचना अज्ञेय जी द्वारा की गयी है । इसीप्रकार हिन्दी आलम और शेख का एक दोहा प्रसिद्ध है, जिसकी प्रथम पंक्ति आलम और दूसरी शेख द्वारा रचित है ----

"कनक छरी-सी कामिनी, काहे को कटि छीन
  कटि को कंचन काटि विधि, कुचन मध्य धरि दीन ।"
              आ. रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास ; पृ. 227
     
       इसी तरह का एक अन्य उदाहरण बंगला में प्राप्त होता है जिस प्रसंग में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक बालिका ने एक पंक्ति रच कर भेजी और अनुरोध किया कि वे इस पंक्ति पर पूरी कविता लिख दें । पंक्ति थी --
     "शारा दिन बशे आछि जानालार धारे"
                  
     महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी द्वारा इसमें तीन पंक्तियाँ जोड़ते हुए लिखा -----
 
     "उदास फागुन हावा डाकिछे आमारे
      बाहिरे चाँपार बने लागे शेइ हावा,
      मने-मने जागे शाध बोशे गान गावा ।"

         इन तीन पंक्तियों के पश्चात् एक पंक्ति-

      "आकाशे मेघेर तरी चले भेशे भेशे ।"
  यह पंक्ति बालिका के द्वारा जोड़ने हेतु कहा गया ।
         "जापानी में इस प्रकार के प्रयोग मान्योशू ( 08 वीं शताब्दी ) में ही मिलने लगते हैं । हेइआन युग ( 800 -1200 )
के कविता-संकलनों में रेंगा के अनेक उदाहरण मिलते हैं, पर इस काल में रेंगा को ताँका से स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त नहीं हुआ था ।
         मुरोमाचि युग ( 1335 - 1573 ) में रेंगा पद्धति में काव्य रचना की परम्परा स्थापित हो चुकी थी । नियम-विधान स्थिर हो चुके थे । रेंगा की प्रारंभिक तीन पंक्तियाँ, जिनसे रेंगा की श्रृंखला का आरम्भ होता था, "होक्कु" कहलायीं और रेंगा में होक्कु की रचना का विशेष महत्व माना जाने लगा । होक्कु में ऋतु सम्बन्धी संकेत होना भी आवश्यक हो गया । होक्कु की रचना का अधिकार वरिष्ठ कवियों को मिलने लगा और होक्कु की रचना का अवसर प्राप्त होना सम्मान का सूचक माना जाने लगा । उनके कवि अभ्यास के लिए स्वतंत्र रूप से होक्कु की रचना करने लगे । "त्सुकुबाशू" नामक संकलन में एक पूरा खण्ड ऐसी होक्कु कविताओं का है ।" संदर्भ : कैनेथ यशूदा, द जापानीज हाइकु, पृ. 133
      'होक्कु' अथवा 'हाइकाई' रेंगा के बंधन से मुक्ति पा कर स्वतंत्र कविता के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ और "हाइकु" के नये नाम से जापानी कविता की एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में विकसित हुआ । उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रसिद्ध हाइकुकार मासाओका शिकि के द्वारा होक्कु के स्थान पर हाइकु शब्द का प्रथम बार एक संपूर्ण, स्वतंत्र कविता के लिए स्थापित किया गया । जापान में 1892 से पहले की 05,07,05 के क्रम की 17 अक्षरीय गंभीर रचनायें "होक्कु" और 1892 के बाद की रचनायें "हाइकु" कहलाई परंतु आज हाइकु के विश्व-कविता बन जाने के बाद विभिन्न देशों के हाइकुकार एवं समीक्षक, बाशो से पूर्व और बाद की ऐसी सभी रचनाओं को "हाइकु" संज्ञा से अभिहित करते हैं ।
         काव्य प्रतियोगिताओं अथवा गोष्ठियों में ताँका के 05,07,05,07,07 के क्रम विधान ने 05,07,05 व 07,07 का रूप लिया । श्रृंखला-बद्ध कविता रेंगा में पहले पद की रचना एक ने की और दूसरे की अन्य ने । पुर्वांश और उत्तरांश का यह विधान संवादों में प्रश्नोत्तरों में, उपहारों या संदेशों के आदान-प्रदान में बहुत लोकप्रिय हुआ । रेंगा का प्रथम चरण "कामि नो कु" होक्कु कहलाया और स्वतंत्र अभ्यास का विषय भी बना । कालांतर में रेंगा के बन्धन से मुक्त हो कर यह "हाइकु" के नाम से अपने आप में पूर्ण कविता के रूप में स्वीकृत और प्रतिष्ठित हुआ ।
          जापानी कवि किकाकु रेंगा की प्रथम तीन पंक्तियाँ "होक्कु" को वृक्ष के तने के समान एवं द्वितीयांश को शाखाओं के समान तथा तृतीयांश को धरती के समान मानते हैं । नई-नई पंक्तियाँ जोड़ते चले जाना कोंपलों के समान मानते हैं ।
         हिन्दी हाइकुकारों के लिए यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि "हाइकु" रेंगा की प्रारंभिक तीन पंक्तियाँ हैं । भारत में रेंगा का विशुद्ध प्रयोग "कस्तूरी की तलाश" में सम्मिलित रेंगा रचनाओं से पहले नहीं हुआ है । यह अभिनव प्रयोग प्रतियोगिता समस्यापूर्ति के माध्यम को चुन कर 66 सहयोगी प्रतिष्ठित हाइकुकार व तांका रचनाकारों के सहयोग एवं निरंतर साधना फलस्वरूप 100 "रेंगा" श्रृंखलित पद्यों की रचना की गयी है । मेरे द्वारा चुने हुए अपने 100 हाइकुओं को रेंगा में होक्कु का उपयोग किया गया है, जिसमें से अधिकांश हाइकु मेरे हाइकु संग्रह "प्रकृति की गोद में" प्रकाशित हो चुके हैं एवं इन चयनिय हाइकु "होक्कु" को आगे बढ़ाते हुए श्रृंखलित पद्य रेंगा की रचना में इसके सभी रचनाकारों द्वारा बड़े मनोयोग व तल्लीनता के साथ काव्य कड़ियों का निर्माण कर रचना की गयी है । इस संग्रह के सभी रचनाकार निश्चय ही बधाई के पात्र हैं । सभी सहयोगी रचनाकारों को मैं अपने हृदय से धन्यवाद व आभार प्रकट करते हुए बताना चाहूँगा कि श्रृंखलित काव्य की श्रृंखला रेंगा रचनाओं को संकलित कर एक संग्रह के रूप में प्रकाशित किये जाने का यह प्रयास विश्व का प्रथम नवीनतम एवं अभिनव प्रयास है । इस प्रयास में हम कहाँ तक सफल असफल हुए ये आप सुधी मर्मज्ञ रचनाकार व पाठकीय प्रतिक्रिया से ही जानकारी हासिल हो सकेगी । अस्तु आप सभी सुधी काव्य मर्मज्ञों से विनम्र आग्रह है कि इस "कस्तूरी की तलाश" संग्रह में सम्मिलित रेंगा रचनाओं का रसास्वादन कर अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य अवगत कराते हुए हमारा मार्गदर्शन करेंगे ।
                 इति शुभम् ...........
दिनांक                   आपका मित्र
24 मई 2017             - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
                                साहित्य प्रसार केन्द्र साँकरा
                                जिला - रायगढ़ [ छत्तीसगढ़ ]
________________________________________________
      
     

रेंगा क्र. 01


0

जीवन रेखा

रेत रेत हो गई

नदी की व्यथा □ प्रदीप कुमार दाश दीपक

नारी सम थी कथा

सदियों की व्यवस्था □ चंचला इंचुलकर सोनी


     सदा सतत

     यात्रा अनवरत

     जीवन वृत्ति  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

     मृगतृष्णा समान

     वेदना की तिमिर  □ देवेन्द्रनारायण दास


तोड़ेगी स्त्री ही

फिर बहेगी धारा

करूणा बन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

लाँघो पथ सदा ही

हरो भव की बाधा  □ रवीन्द्र वर्मा


     अकथ्य पीड़ा

     अनगिनत व्यथा

     नारी नियति  □ अल्पा वलदेव तन्ना

     तृप्ति अतृप्ति कथा

     नारी नदी की व्यथा  □ अलका त्रिपाठी   "विजय"


जीवन भर

नारी दौड़ती नदी

आशा के पथ  □ देवेन्द्र नारायण दास

निर्मल श्वेत धारा

बाँध रही कु प्रथा  □ अल्पा वलदेव तन्ना


     बहो सरिता

     नारी मन व्यथा सी

     करो शुचिता  □ रवीन्द्र वर्मा

     गूँजेगा मधु स्वर

     तरल होगी शिला । ■  डाॅ. अखिलेश शर्मा

 

संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

___________________________________


                       रेंगा क्र. 02                      


शोक मनाते

पतझड़ में पत्ते

शाख छोड़ते □ प्रदीप कुमार दाश दीपक

नव कोंपल रुपी

नवल वस्त्र पाते  □ पुरोहित गीता


     फिर हँसते

     हरे भरे हो जाते

     वो मुस्कराते □ मनिषा मेने वाणी

     प्रकृति चक्र पुनः

     नव काया धरते □ किरण मिश्रा


शाखें पुरानी

नई आस संजोये

करें स्वागत □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

कोमल किसलय

बसंत सहलाते □ ऋता शेखर "मधु"


     ज्यों जीर्ण शीर्ण

     अवसान देह का

     नव जीवन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

     प्रकृति का नियम

     सत्य परिवर्तन □ नीलम शुक्ला


रचनाकर्म

संसार का नियम

सृजन धर्म □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

उसका है करम

रख ले तू भरम □ हाॅरून वोरा


     परिवर्तन

     पुनः देह धरन

     सुपल्लवन □ रवीन्द्र वर्मा

     सूखा फिर हो हरा

     जीवन सनातन  ■ दाता राम पुनिया


   संपादक :  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

__________________________________


__________________________________


               रेंगा क्र. 03                   


0

धूप से धरा

दरकने लगी है

बढ़ता ताप  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक

मुख खोल बैठी है

मेघ बुझाओ प्यास  □ नंद कुमार साव


     तृप्ति की आस

     वसुधा का विलाप

     सूखी सी घास  □ अल्पा जीतेश तन्ना

     धधक रहा सूर्य

     झेलें सभी संताप  □ नीतू उमरे


तपती धूप

परेशान हैं सब

कोई न खुश  □ धनीराम नंद

मौसम के तेवर

सहमे हम आप  □ अविनाश बागड़े


     सह न पाए

     सूरज के तेवर

     प्रचंड वेग □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

     कारण हम आप

     काटे वृक्ष जो आज  □ आर्विली आशेन्द्र

लूका


संतप्त पाखी

जल बिन उदास

चातक आस  □ किरण मिश्रा

व्यभिचार गरल

पी रही मन मार  □ अनिता शर्मा


     तृषित धरा

     बुझती नहीं प्यास

     आस आकाश  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

     कृषक का संताप

     भविष्य अभिशाप । □ रवीन्द्र वर्मा

   

    संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

___________________________________


___________________________________


                 रेंगा क्र. 04                    


0

मन गुलाब

झुलसाती धूप ने

जलाये ख़्वाब  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक

कैसा ये आफ़ताब

चाहूँ मैं माहताब  □ अविनाश बागड़े


     ठंडी सी छाँव

     खिलने लगे फिर

     कली की आब  □ सुधा राठौर

     नेह घन लायेंगे

     खुशियों का सैलाब  □ मधु सिंघी


ढलेगी शाम

डोलेगी जो पुरवा

मिले आराम  □ इन्दु सिंह

सूरज पिघलेगा

बुझेगी तब आग  □ नीतू उमरे


     मन क्रोधित

     भविष्य का है ख़्याल

     हाल बेहाल  □ मनिषा मेने वाणी

     तन तड़पे मीन

     सूखे नयन आब !  □ किरण मिश्रा


तन तपन

चाहे शीतल छाँव

स्वप्न के गाँव  □ रवीन्द्र वर्मा

धूप कर जा पार

ख़्वाब होंगे साकार  □ पूनम राजेश तिवारी


     मन है प्यासा

     शोषित अभिलाषा

     जीने की आशा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

     दरकते रिश्तों को

     संजीवनी की आस ।  ■ विष्णु प्रिय पाठक


     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

__________________________________


__________________________________


                    रेंगा क्र. 05                     


0

मृग सा मन

कस्तूरी की तलाश

छूटा जीवन  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

ये आस बनी अरि

मृगतृष्णा गहरी  □ अंशु विनोद गुप्ता


     प्रयासरत

     रहती हरदम

     आशा न छोड़ी  □ आर्विली आशेन्द्र लूका

     मायावी अठखेली

     स्व अबूझ पहेली  □ चंचला इंचुलकर सोनी


धरी की धरी

अपेक्षाएँ गठरी

टूटा स्मरण  □ अल्पा वलदेव तन्ना

लालसाओं के नाग

छोड़े नहीं दामन  □ मीनाक्षी भटनागर


     स्वयं से परे

     भ्रम का बुना जाल

     उलझा नादाँ  □ शुचिता राठी

     अंधकूप सी आशा

     सदा मिलती निराशा  □ मनोज राजदेव


लोभ अगन

अकुलाया सा मन

जलता तन  □ इन्दु सिंह

थके पाँव फिर भी

अथक भटकन  □ किशोर मत्ते

     बिना थाप के

     बजे यूँ चहुँ ओर

     मन मृदंग  □ गंगा पांडेय "भावुक"

     तृषा का संवरण

     मोक्ष प्रभु शरण । ■ किरण मिश्रा

    प्रस्तुति : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

 ________________________________

 ________________________________

           

          रेंगा क्र. 06        

             
0
शब्द व शून्य
सृष्टि के सृजन में
उभय ब्रह्म  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
समाहित सर्वस्व
सृष्टि का आदि अंत  □ सुधा राठौर

      काल अनादि
      आदि अंत अनंत
      नियत चक्र  □ विनय कुमार अवस्थी
      आदि अनाद्यवंत
      सनातन औचिंत  □ चंचला इंचुलकर सोनी

ॐ नाद घोष
अनंत का है बोध
एक ही रूप  □ मधु सिंघी
शब्द है व्याप्त नाद
शून्य पूर्ण ब्रह्माण्ड  □ किरण मिश्रा

      ब्रह्म आकार
      स्वरुप निराकार
      अदृश्य दृश्य  □ विनय कुमार अवस्थी
      संसार का सार ये
      विश्व का है विस्तार  □ ओम हरित

शब्द जीवन
रखो संभाल कर
शून्य हो कर  □ मनिषा मेने वाणी
निर्भय अभिव्यक्ति
सत्य-शिव-सुंदर  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

      शाश्वत सत्य
      लयबद्ध ब्रह्माण्ड
      विश्व साकार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
      ओम से व्योम तक
      जीव से शिव तक । ■ अल्पा वलदेव तन्ना

      संपादक : प्रदीप कुमार दाश दीपक
__________________________________

__________________________________

                   रेंगा क्र. 07                     

0
नीड़ अपना
रोज बनाये पाखी
हवा ले उड़ी  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
आस जीवन जड़ी
हौंसलों की है कड़ी  □ चंचला इंचुलकर सोनी

      टूटे विश्वास
      जोड़े न जुड़े, पर
      आस है बाकी  □ अनुभूति मनोरमा जैन
      हिम्मत नहीं हारी
      प्रयत्न फिर जारी  □ अविनाश बागड़े

उजड़ा नीड़
थकी हारी न झुकी
बनाने जुटी  □ देवेन्द्र नारायण दास
संघर्षों से न डरी
लड़ने सदा खड़ी  □ नंद कुमार साव

      अंत न आदि
      फिर सुबह होगी
      है आशावादी  □ शुचिता राठी
      जारी रहा प्रयास
      मन में है विश्वास  □ ओम हरित

जोड़ी तिनका
हौंसला नहीं छोड़ी
बना घोंसला  □ आर्विली आशेन्द्र लूका
हर तिनके जड़ी
कर्म-कला की लड़ी  □ अल्पा वलदेव तन्ना

      धैर्य मन का
      जोड़ कर तिनका
      बना घोंसला  □ सुधा राठौर
      थकी नहीं वह तो
      बना ही दिया नीड़  ■ संजय डागा

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश दीपक
___________________________________

___________________________________

                     रेंगा क्र. 08                      

0
निर्मल जल
जीवन का प्रतीक
यही है कल  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
बचायें बूँद-बूँद
सुरक्षित हो कल  □ किरण मिश्रा

अमृत सम
व्यर्थ न बहाइये
निर्मल नीर  □ रमा प्रवीर वर्मा
हो सार्थक पहल
तभी बचेगा जल  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

जल जीवन
मन की मीन प्यासी
सागर खारा  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
युक्ति से खर्च कर
पीढ़ी का ध्यान धर  □ कैलाश कल्ला

जग में जल
जिन्दगी की खातिर
है जरुरत  □ इन्दु सिंह
अमूल्य है ये निधि
यत्न से रक्षा कर  □ डाॅ. जितेन्द्र कुमार मिश्रा

प्यासा ही जाने
बूँद है अनमोल
पानी का मोल  □ किरण मिश्रा
व्यर्थ न होवे जल
सदा करो पहल  □ ए. ए. लूका

बचाओ जल
जीवन का आधार
बचेगा कल  □ नंद कुमार साव
संवर्धन है मार्ग
लक्ष्य हो प्रतिपल । ■ प्रकाश कांबले

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                     रेंगा क्र. 09                     

0
ईश की धुन
जीवन एक थाप
रागिनी गुन  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
आस्था विश्वास बुन
भक्ति का मार्ग चुन  □ सुधा राठौर

मानव सुन
ईश्वर की आवाज
मिलेगा ताज  □ मनिषा मेने वाणी
छोड़ कर विलाप
करो ईश की जाप  □ रमा प्रवीर वर्मा

शाश्वत सत्य
मानव बन जाना
तज दुर्गुण  □ शुचिता राठी
अंतर्मन की सुन
मुक्ति का पथ चुन  □ पुरुषोत्तम होता

साँसों की माला
हो साँवरा निराला
रोम रोम से  □ किरण मिश्रा
छोड़ उधेड़बुन
तू रम इसी धुन  □ रीता ग्रोवर

अंतर तार
परम गुणगान
शुभ शगुन  □ अल्पा वलदेव तन्ना
श्रद्धा विश्वास चुन
माधुर्य रुनझुन  □ चंचला इंचुलकर सोनी

भक्ति का मार्ग
ले जाता प्रभु धाम
आत्मा को गुन  □ मधु सिंघी
प्रेम की रसरी में
भक्ति राग तू चुन ।  ■ डाॅ. जितेन्द्र कुमार मिश्रा

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                   रेंगा क्र. 10                      

0
दीप निर्मम
मिलन समर्पण
जले पतंग  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
एषणा परमपद
निःशेष आलिंगन  □ हाॅरुन वोरा

दो संभागी
फिर भी हैं वैरागी
जलते नित  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
चिर प्यार गमन
मृत्यु का आलिंगन  □ रवीन्द्र वर्मा

फिर निर्मोही
निस्वार्थ करे प्रीत
निभाए रीत  □ नीतू उमरे
परवाने की जिद्द
निभाऊँ प्रेम रीत  □ नीलम शुक्ला

प्रीति का राग
मोह का संवरण
प्राण अर्पण  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
प्रीत परितर्पण
कर्म का ब्रह्मार्पण  □ चंचला इंचुलकर सोनी

आत्मविभोर
स्व अस्तित्व विहीन
दीप दहन  □ विनय कुमार अवस्थी
अद्भुत प्रेमासक्ति
जीवन स्व अर्पण  □ किरण मिश्रा

रोशन दीप
अंज़ाम अनभिज्ञ
आहुति यज्ञ  □ विनय कुमार अवस्थी
प्रेमिल प्रज्वलन
चक्र नवजीवन ।  ■ मंजू शर्मा

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                   रेंगा क्र. 11                      

0
जुही की कली
जग उपवन में
माली से छली  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
किस्सा ये हर गली
स्वार्थ रिश्तों में पली  □ मनीलाल पटेल

जब भी खिली
खुशबू ही बिखेरी
फिर भी टूटी  □ पूनम झा
उपभोगी प्रवृत्ति
असहाय की बलि  □ सुधा राठौर

नाजों में ढली
अधखिली बिखरी
खुशी से चली  □ डाॅ.अखिलेश शर्मा
खिलने से पहले 
गुलदान में सजी  □ रमा प्रवीर वर्मा

कली से खिल
फूल रंग रंगीन
देती महक  □ रामेश्वर बंग
हँसता गुलफ़ाम
रोएँ कुसुम कली  □ शुचिता राठी

चौराहे पर
दुःशासन लुटता
बाला षोड़शी  □ देवेन्द्र नारायण दास
बचाती निज लाज
मौत के गले लगी  □ किरण मिश्रा

नियति खेल
नारी हो या प्रकृति
सज्जा की वस्तु  □ मधु सिंघी
क्या आत्मा मर गई
भू क्यों न फट गई । ■ कैलाश कल्ला

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                      रेंगा क्र. 12                       

0
सूखे पोखर
गाँव के लोग दुःखी
जीना दूभर  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
जल घन बन आ
संतृप्त कर धरा  □ दाता राम पुनिया

कब हो वर्षा
लुप्त है हरियाली
कृषक दुःखी  □ पूनम झा
नीर क्षीर प्रपात
सूखा मन संताप  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

मेघ सघन
आशा ज्योति किरण
अतृप्त धरा  □ विनय कुमार अवस्थी
मृगजल सा भ्रम
खोज रहे सश्रम  □ विनय मोहन्ता

ग्रीष्म प्रखर
बदहवास धरा
मरू गगन  □ किरण मिश्रा
बूँदों के स्वागत में
मानस की गुहार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

अव्यक्त प्राणी
मोहताज जिंदगी
विडम्बना है  □ विनय कुमार अवस्थी
नीर को तरसते
बुझती नहीं प्यास  □ रामेश्वर बंग

अतृप्त धरा
तड़प रही मीन
बरसा बिन  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
सूरज का प्रहार
मेघों की मनुहार  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश दीपक
___________________________________

___________________________________

रेंगा क्र. 13

0
गिरि को चीर
निकलता निर्झर
बहता नीर  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
अविरल प्रवाह
नीर की है मृदुता  □ विनय कुमार अवस्थी

नीर क्षरण
संकट में जीवन
हो संचयन  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
नीर प्राण प्रदाता
श्वासों के गीत गाता  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

थिरके मीत
झरनों से झरते
मधुर गीत  □ पुष्पा सिंघी
सुख-दुःख के तीर
ठंडा मन्द समीर  □ शरद कुमार श्रीवास्तव

मत रूकना
चलना ही जिन्दगी
कहे झरना  □ किरण मिश्रा
निर्झर अविराम
है नयनाभिराम  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

गीत सुनाता
चलता प्रतिपल
प्रस्तर प्रीत  □ किरण मिश्रा
न रुकता अधीर
पा लेता रास्ता नीर  □ रवीन्द्र वर्मा

बूँदें नाचतीं
नदी गुनगुनाती
खुशी बाँटती  □ सुधा राठौर
धरा उगले सोना
खुशी के गीत गाती ।  ■ रामेश्वर बंग

      संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

                   रेंगा क्र. 14                       

0
मन गुल्लक
शब्द सहेज रहे
भाव सरस  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
सृजन कर रहा
भाव सहेज रहा  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

खोलता बन्ध
बाँध रहा है छन्द
हो के मगन  □ किरण मिश्रा
भाव की लय पर
शब्द गीत गूंजित  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

जुड़ने लगे
अक्षरों से अक्षर
जन्मी रचना  □ सुधा राठौर
भाव की ताल पर
नाचते नव शब्द  □ किरण मिश्रा

अधरों पर
शब्द थिरक रहे
दीप जला दो  □ देवेन्द्र नारायण दास
ज्योतिर्मय शब्दों का
भावों से अनुबंध  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

शब्दों में गीत
हिय मन में गान
करे विभोर  □ रामेश्वर बंग
सुकोमल सी देह
झाँकता अंतर्मन  □ सुधा राठौर

मन के तार
भाव के सुर-ताल
शब्द झंकार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
सहेज रहा प्यास
कवि का अहसास ।  ■ किरण मिश्रा

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

                 रेंगा क्र. 15                     

0
बहता नीर
जीवन है निर्झर
गति प्रतीक  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
सर्वशक्ति सम्पन्न
निश्छलता निहित  □ विनय कुमार अवस्थी

बढ़ते चलो
देता यह संदेश
रुकना नहीं  □ पुरुषोत्तम होता
संभावना अनेक
हौसला गर शेष  □ विनय कुमार अवस्थी

जन जीवन
जल जीवन बन
करे मगन  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
सहज व सरल
उत्साह भरपूर  □ मधु सिंघी

जीवन ज्ञान
गतिशीलता अहं
शाश्वत सत्य  □ विनय कुमार अवस्थी
सतत है प्रयास
कर्मठता हो खास  □ मधु सिंघी

राह बनाना
निश्छल हो बहना
नीर सुहाना  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
उत्श्रृंखल स्वभाव
जीवन गतिमान  □ विनय कुमार अवस्थी

कर्तव्य पथ
विचलित ना मन
पूजा ही श्रम  □ किरण मिश्रा
जड़ चेतन साथ
जल संग आकाश ।  ■अलका त्रिपाठी "विजय"

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                     रेंगा क्र. 16                        

0
चाँद से बात
गिनते रहे तारे
कटी न रात  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
चाँदनी भी उदास
सब हैं एक साथ  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

नैनों में ख्वाब
दिल में बेचैनी भी
आस मन में  □ पूनम झा
उनके खयालात
आये तमाम रात  □ दाता राम पुनिया

शांत रजनी
स्तंभित चाँद तारे
खामोश नभ  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
गुमसुम चाँदनी
अश्कों की बरसात  □ किरण मिश्रा

घोर अँधेरा
मौन करता बात
बुरे हालात  □ मधु सिंघी
नींद आँखों में नहीं
कैसे कटे ये रात  □ पूनम झा

अश्क टपके
यूँ तारे का टूटना
रातें बेचैन  □ विनय कुमार अवस्थी
फिर हों साथ साथ
गये जो छोड़ साथ  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

संबंध निभे
अंतर्मन समझे
आसमाँ शांत  □ विनय कुमार अवस्थी
चाँद से करें बात
कहें सारे जज्बात  ■ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
       
                       
      संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                    रेंगा क्र. 17                       

0
माता की छाया
पिता का अभिमान
बेटी है शान  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
जगत का विधान
रखे कुल का मान  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

खिलाये कुल
महके फुलवारी
बोओ बेटियाँ  □ किरण मिश्रा
कोमल सी रचना
जीवन का सपना  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

माँ की दुलारी
औ पापा की लाड़ली
राजकुमारी  □ रामेश्वर बंग
छू लेगी आसमान
हौसलों की उड़ान  □ सुधा राठौर

स्नेह की मूर्ति
परिवार का मान
बेटी महान  □ विनय कुमार अवस्थी
घर को मधुवन
महकाये आंगन  □ देवेन्द्र नारायण दास

बेटी पढ़ाओ
कुत्सित सोच विदा
बेटी बचाओ  □ किरण मिश्रा
करे सबसे प्यार
परिवार की शान  □ रामेश्वर बंग

दुःख हरती
जल जल के खुद
उजास लाती  □ देवेन्द्र नारायण दास
कला कौशल खूब
करे देश का नाम ।  ■  रामेश्वर बंग

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक
___________________________________

___________________________________

        रेंगा क्र.18          

0
खुशियाँ लाती
तुलसी चौंरे में माँ
दीया जलाती  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
सबको दुलारती
दर्द की दवा है माँ  □ सुशील शर्मा

जीना सिखाती
शिक्षा संस्कार देती
आशा जगाती  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
जैसे धूप में छाँव
प्यार दुलार देती  □ रामेश्वर बंग

मन मंदिर
बना तुलसी चौंरा
जलाती दीप  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
कठिन राह पर
छाया बन चलती  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

जीवन ज्योति
जले नित पावन
भरे खुशियाँ  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
नाल आहार देती
माता जीवन दात्री  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

दीप की ज्योति
मानो चाँद की द्युति
सूर्य सी प्रभा  □ रामेश्वर बंग
पर्यावरण शुद्ध
आंगन की है शोभा  □ गीता पुरोहित

निर्मल मन
ममता का आँचल
ज्ञान की शक्ति  □ रामेश्वर बंग
सकल घर डेहरी
स्वस्थ मन गेहरी ।  ■ अलका त्रिपाठी "विजय"
     
     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                   रेंगा क्र. 19                       

0
पिता का प्यार
विस्तृत आसमान
शाश्वत सार  □ प्रदीप कुमार दाश दीपक
अदृश्य सा आधार
सम्बल है अपार  □ सुधा राठौर

छाया सघन
शीतल समरस
वट वृक्ष सा  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
विस्तृत है महिमा
संचित है गरिमा  □ सुधा राठौर

पालन हार
भविष्य का सृजक
स्नेह प्रदाता  □ किरण मिश्रा
आधार परिवार
असीम उपकार  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

मार्गदर्शक
हर पड़ाव पर
ढाल है पिता  □ सुधा राठौर
स्तंभ है विश्वास का
आत्मिक आभास का  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

उर से नर्म
औ बाहर से सख्त
दिल में मर्म  □ रामेश्वर बंग
दृढ़ अनुशासन
मृदु अंतरमन  □ सुशील शर्मा

ये मेरी रजा
पिता परमेश्वर
रहते सदा  □ नीतू उमरे
एक वही उम्मीद
वही आस प्रदाता ।  ■ रामेश्वर बंग

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                  रेंगा क्र. 20                      

0
चाँद तनहा
झील की पगडण्डी
चला अकेला  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
तारों संग निहारे
अक्स देख लजाए  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

चाँदनी खिली
झील विहँस उठी
सजी रजनी  □ रवीन्द्र वर्मा
मन को दे आनंद
अमृत बरसाये  □ रामेश्वर बंग

चाँद हँसता
चाँदनी लिए साथ
बात करता □ महेन्द्र देवांगन "माटी"
बरसों की है कथा
स्वयं से है उलझा  □ चंचला इंचुलकर सोनी

प्रकृति खुश
नभ है आनंदित
धरा स्तंभित  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
रात की ये चाँदनी
करे मन उजला  □ रामेश्वर बंग

झील गहरी
सतही है समझ
मिली तन्हाई  □ विनय कुमार अवस्थी
स्वागत में झील भी
हर्षाए पुलकित  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

स्याह नसीब
तन्हाई में है चाँद
प्रेम है मौन  □ विनय कुमार अवस्थी
मनोहारी ये दृश्य
मन करे मोहित  ■ रामेश्वर बंग

                            संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

  ___________________________________


__________________________________

                     रेंगा क्र. 21                      

0
माटी की गंध
महक उठी धरा
सौंधी सुगंध  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
ले आई पुरवाई
गाँव की याद आई  □ सुधा राठौर

हुई बारिश
धरा की प्यास बुझी
थी ये ख्वाहिश  □ नवीन कुमार जैन
तृप्त हुई वसुधा
मन जो भीग उठा  □ सुधा राठौर

बरसा पानी
नाचे मन मयूर
मस्ती में चूर  □ नीतू उमरे
प्यासी धरा अघाई
छाया नव उल्लास  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

प्रफुल्ल मन
धरा का भीगा तन
मानो सावन  □ नीलम शुक्ला
प्रकृति प्रफुल्लित
पावस का नर्तन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

बूँदें वर्षा की
पलकों को चूमती
तेरे स्पर्श सी  □ अयाज़ ख़ान
हूरें हुईं प्रकट
प्रकृति में निकट  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कवि द्रवित
लेखनी उद्वेलित
काव्य सृजित  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
करें मन शीतल
हिय हुए हर्षित ।  ■ रामेश्वर बंग

--संपादक : प्रदीप कुमार दाश"दीपक"--21---
___________________________________

___________________________________

                    रेंगा क्र. 22                     

0
कटु न बोल
पनपते हैं द्वेष
मधु तू घोल  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
तन मृतिका काया
बोल अमिट छाया  □ चंचला इंचुलकर सोनी

मिश्री से मीठे
बड़े ही अनमोल
प्रेम के बोल  □ नीलम शुक्ला
रिश्ते नाते टूटते
कटु वाणी न बोल  □ रामेश्वर बंग

वाणी अमृत
जब भी मुँह खोल
मृदु ही बोल  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
विनय वाणी पर
जग अपना कर  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

नश्वर तन
अमिट हैं वचन
तोल के बोल  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
बैर का है क्यों भाव
देह जब नश्वर  □ अवनीश भट्ट बोधिसि बोधिसत्व

बढ़ती आन
झुक कर श्रीमान
जीतें जहान  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मीठी वाणी औषधि
कटु तीर कमान  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

मीठी जुबान
अमृत रस घोलते
सुनें श्रीमान  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
कटु वाणी ले जान
बोल दिलाये मान  ।  ■ गंगा पाण्डेय "भावुक"

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                      रेंगा क्र.23                      

0
डाली से टूटा
रूठे को मनाएगा
गुलाब हँसा  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
अस्तित्व की कहानी
यूँ सार्थक जीवन  □ अवनीश भट्ट

कैसा जमाना
दर्द पर हँसता
नहीं रुकता  □ मनिषा मेने वाणी
एक भले बिछुड़ा
दूजा मिल पायेगा  □ अंशु विनोद गुप्ता

अटूट रिश्ता
कैसी समरसता
दिखी कटुता  □ विनय कुमार अवस्थी
प्रेम खुशबू फैला
तोड़ देगा अबोला  □ चंचला इंचुलकर सोनी

अस्तित्व मिटा
सहेजता गुलाब
रिश्ता प्यार का  □ नीतू उमरे
खुशियाँ पहुँचाने
मिट कर हर्षाया  □ रवीन्द्र वर्मा

शहीद फूल
दिखावे के फ़ितूर
नेंग-दस्तूर  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
चलती सांसे रुकीं
आवाज गई रूठ  □ देवेन्द्रनारायण दास

हो न्यौछावर
सुर्ख़ लाल गुलाब
करे मिलाप  □ शुचिता राठी
गुलाब के उसूल
हँसते शूल शूल ।  ■ अल्पा वलदेव तन्ना

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                    रेंगा क्र. 24                      

0
आँखें बोलतीं
सन्नाटे की आवाज
राज खोलतीं  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
हृदय में छिपाये
सच को टटोलती  □ किरण मिश्रा

नैन कटीले
बिन कहे बोलते
वार करते □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
दुख में पथराते
खुशी से छलकते  □ कैलाश कल्ला

उजली रात
धरा बिछी चाँदनी
नम हैं आँखे  □ रामेश्वर बंग
कैसे ये दिन आये
पलकें निहारतीं  □ देवेन्द्रनारायण दास

अश्रु बहते
सुख-दुख दोनों में
नैना सहते  □ डाॅ.अखिलेश शर्मा
दिल की बात कह
मधुर स्वप्न दिखाते  □ रामेश्वर बंग

आँखों आँखों में
हुये कुछ इशारे
कोई न जाने  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
मौन वाणी प्रेम की
प्रीतम हिया जाने  □ अवनीश भट्ट

नैन से नैन
पढ़े हृदय पीर
प्रीत बावरी  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
सहेज लिए मोती
उर हुआ हर्षित ।  ■  रामेश्वर बंग

      संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                     रेंगा क्र. 25                      

0
सुख व दुःख
जीवन के दो रूप
छाँह व धूप  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
दोनों रहते साथ
कर्मों के अनुरूप  □ मधु सिंघी

सच्चे हों कर्म
सब तो तेरे हाथ
फिर क्यों चुप  □ मनीलाल पटेल
प्रकृति के नियम
दुःख के बाद सुख  □ गीता पुरोहित

हवा ने कहा
पतझड़ का दुख
सहते रहो  □ देवेन्द्रनारायण दास
इसी ताने बाने में
बीते जीवन खूब  □ शुचिता राठी

जीवन यात्रा
रुकती नहीं कभी
है अविराम  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
संग संग चलते
नदी के दो किनारे  □ चंचला इंचुलकर सोनी

दुख अंधेरा
सुख हो सतरंगी
प्रकाशमय  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
जीवन रूपी सिक्का
दोनों पहलू खूब  □ अंजुलिका चावला

दुःख तो सुख
परम अनुभूति
उठाओ भीति  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
जीवन पथ पर
साथी ये सुख दुःख ।  ■ अलका त्रिपाठी "विजय"
     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                       रेंगा क्र. 26                      

0
बहती नदी
जीवन का प्रमाण
है पहचान  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
बहती अविराम
प्रतिपल निष्काम  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

गीत ये गाती
बहे गुनगुनाती
जीना सिखाती  □ रामेश्वर बंग
सागर में हो लीन
मोक्ष की है कामना  □ अवनीश भट्ट

निश्छल मन
कलकल बहती
सिंचती धरा  □ किरण मिश्रा
है देश का गौरव
सभ्यता का प्रमाण  □ रामेश्वर बंग

करती कर्म
सहज व सरल
निभाती धर्म  □ मधु सिंघी
समय से लड़ना
जीवन में बहना  □ देवेन्द्रनारायण दास

बने संगम
नदी से नदी मिले
मिलती धारा  □ रामेश्वर बंग
बनी मृदा उर्वरा
हरित वसुन्धरा  □ किरण मिश्रा

बहते रहें
कर्म करते रहें
देती प्रेरणा  □ रामेश्वर बंग
ठहराव विनाश
गति बहाव जान ।  ■ देवेन्द्रनारायण दास

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश दीपक
___________________________________

___________________________________

                     रेंगा क्र. 27                      

0
काँच सा मन
चटकाने उतरी
धूप निर्मम  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
बाधित नहीं कर्म
सस्वेद नित्य श्रम  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

लू के थपेड़े
आग उगले रवि
जलती धरा  □ मधु सिंघी
है बड़ी मनचली
हवाओं में है घुली  □ सुधा राठौर

बैरन हवा
धरती बनी तवा
लू की न दवा  □ अयाज़ खान
तपती मुँडेर से
अभी अभी उतरी  □ देवेन्द्रनारायण दास

नीम पे बैठी
पत्तों से बतियाये
छाँव न भाए  □ सुधा राठौर
तन को झुलसाये
मन भी घबराये  □ मधु सिंघी

बेरहम है
चढ़ती हुई धूप
प्रखर रूप  □ सुधा राठौर
कब होगा ये कम
ताप का उपक्रम  □ डाॅ. संजीव नाईक

धूप ने किये
रवि से अनुबंध
यूँ लिखे छंद  □ सुधा राठौर
झुलसा तन मन
ग्रीष्म तुम्हें नमन  ■ डाॅ. संजीव नाईक
     
    संपादक : प्रदीप कुमार दाश दीपक
___________________________________

___________________________________

                   रेंगा क्र. 28                     
              
0
मातु चरण
चारों धाम का पुण्य
तेरी शरण  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
नवल सा जीवन
रूप मनभावन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

मातृ वंदन
हो सफल जीवन
नित्य नियम  □ सुधा राठौर
धड़कनों का कर्ज
आभारी सारे धर्म  □ चंचला इंचुलकर सोनी

आशीष तेरे
जीवन पथ पर
मिले सतत  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
माँ का कोमल स्पर्श
उपजाता है हर्ष  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

ढूँढ ली मैंने
माता के पैरों नीचे
मिली जन्नत  □ प्रकाश कांबले
उतार न सकते
कभी दूध का कर्ज  □ मधु सिंघी

माता ईश है
चरण में संसार
शीतल छाया  □ पूनम झा
माथ धरे माँ हाथ
मिट जाते संताप  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

स्नेह बाँटती
माँ ममता अपार
निस्वार्थ प्यार  □ किरण मिश्रा
जीवन में बहार
होते हम निहाल  □ मधु सिंघी

तज विश्राम
जागे जो सारी रात
ममत्व नाम  □ सुधा राठौर
पहली पाठशाला
बच्चों को देती ज्ञान  □ गंगा पाण्डेय " भावुक"

जन्मदायिनी
जो पथ प्रदर्शिनी
है वो जननी  □ सुधा राठौर
स्नेह सदा पावन
झरती निर्झरिणी  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

प्रातः दर्शन
दिवस ऊर्जावान
सांध्य शीतल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
माँ की चरण रज
है आशीष समान  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

माँ को नमन
परिष्कृत जीवन
सबल मन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
महकाती आँगन
देवी तुम्हें नमन  □ किरण मिश्रा

नमामि नमः
मातृ तव चरण
मम जीवन  □ सुधा राठौर
तू शीतल चंदन
तुझे सदा वंदन ।  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                      रेंगा क्र. 29                      

0
कस्तूरी साथ
ढूँढता रहा मृग
गंध की आस  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
फिरता वन वन
अन्तस लिये प्यास  □ किरण मिश्रा

मन को देख
सब सुलभ लगे
जीवन भेद  □ पूनम झा
महक है अंतस
ढूँढता तू जगत  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

धैर्य को जान
अंतस में है आत्मा
कर लो ध्यान  □ मधु सिंघी
स्थिर हो मन गर
मिलते समाधान  □ रामेश्वर बंग

अंजानी प्यास
मत रह निराश
प्रभु हैं पास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
क्यों खोजता जग में
हो कर तू निराश □ देवेन्द्र नारायण दास

निर्मल भाव
मिलती कामयाबी
व्यर्थ है प्यास  □ रामेश्वर बंग
भ्रामक तेरी आस
रख आत्मविश्वास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

बसे हिय में
तराशे तू वन में
अतृप्त प्यास  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
कैसे होगा सफल
प्रभु आस-विश्वास  ।  ■ रामेश्वर बंग

      संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                     रेंगा क्र. 30                      

0
नारी जानती
अवसादों को ठेल
खुशियाँ लाती  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
विनम्र सामंजस्य
हुनर आजमाती  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

शक्ति स्वरूप
आत्मबल अनूप
ममता रुप  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
कोमल यह नारी
होती है बलशाली  □ अयाज़ ख़ान

अद्भूत त्याग
त्वरित समर्पण
सार्थक भाग  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
विचारों की प्रगति
जीवन का आधार  □ रामेश्वर बंग

गृह पालिका
स्नेह मयी जननी
कष्ट मोचिनी  □ किरण मिश्रा
जीवन की सुरभि
शांत व तेजस्विनी  □ रामेश्वर बंग

धैर्य की मूर्ति
अद्भुत यह कृति
ईश्वर सम  □ सुधा राठौर
करुणा की भावना
असीम संभावना  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

प्रेम अगाध
सुख देने वाली है
सहे संताप  □ पूनम झा
ममता है आधार
कर लेती विस्तार  □ मधु सिंघी

पनीले गीत
जीवन भर गाती
साँसों की मीरा  □ देवेन्द्रनारायण दास
छोड़े न बेसहारा
ढूँढ लाती किनारा  □ शुचिता राठी

कभी चंडी है
माँ सरस्वती वही
वही तो लक्ष्मी  □ सुधा राठौर
संस्कारों की वाहिनी
है जीवन दायिनी ।  ■  चंचला इंचुलकर सोनी

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                       रेंगा क्र. 31                      

0
जीवन तुला
आंधी तुफान बीच
सहमा काँटा  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
चलते रहे सदा
राहत यदा कदा  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

ताना बाना है
सुख और दुख का
आना जाना है  □ सुधा राठौर
जीत में भी हारना
हार में भी जीतना  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

नेत्रहीन है
नहीं है पक्षपात
सभी के साथ  □ सुधा राठौर
थोड़ा डगमगाया
पर जगह आया  □ शुचिता राठी

तोलते सदा
सांस बनी पलड़ा
कर्म का भार  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
ईश्वर का सहारा
मिलेगा ही सहारा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

कर्म से कर्म
ढोते हैं निज भार
धर्म से धर्म  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
अँधेरा हुआ घना
दिल बना मशाल  □ अयाज़ ख़ान

हर्ष विषाद
रहना समभाव
भाव अभाव  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
विनोद व विषाद
यही विधि प्रसाद ।  ■ देवेन्द्रनारायण दास

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

रेंगा क्र. 32

0
देश की शान
अहिंसा बेमिसाल
बापू महान  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
देश की पहचान
दी आजादी महान  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

सत्य अहिंसा
जीवन सदा सादा
जय हो सदा  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
उनका अंतर्मन
जीवन का दर्शन  □ सुधा राठौर

त्याग की मूर्ति
करते रहे युद्ध
सत्य ले साथ  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
देश के हित त्याग
सुख का परित्याग  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

स्वावलंबन
सदाचारी जीवन
नित्य नियम  □ सुधा राठौर
स्वाधीनता संग्राम
चलाये अविराम  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

परम धर्म
सत्य और अहिंसा
वही था मर्म  □ सुधा राठौर
अखंड भारत हो
विश्व की पहचान  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

कहते रहे
स्वदेशी अपनाओ
देश बचाओ  □ सुधा राठौर
हो विचार महान
देश भी बलवान  ।  ■ अलका त्रिपाठी "विजय"

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                       रेंगा क्र. 33                       

0
मीरा का मन
अनुराग से पगा
कनु के संग  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
बन भाव निर्झर
बह निकले गीत  □ डाॅ. संजीव नाईक

निष्काम भक्ति
अलौकिक थी प्रीति
असीम श्रद्धा  □ सुधा राठौर
छूटी सांसारिकता
बंधन आस्तिकता  □ चंचला इंचुलकर सोनी

नित्य भजन
सुख अनुरंजन
हिय सजन  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
विष हुआ अमृत
अमर भक्ति शक्ति  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

मोह से परे
भक्ति भाव में लीन
हृदय तंत्र  □ सुधा राठौर
प्रीतिराग संबंध
पावन अनुबंध  □  डा. अखिलेश शर्मा

झरे संगीत
पवित्र थी वो प्रीति
कृष्णा की मीत  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
प्रभु छवि निरख
मन अति मुदित  □ सुधा राठौर

लगी लगन
अनुराग मधुर
प्रीत पावन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
पड़ी रही सदा वो
प्रभु के श्री चरण ।  ■ देवेन्द्र नारायण दास
        
  संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                    रेंगा क्र. 34                      

0
पत्ते झरते
ईश्वर शरण में
मन रमाते  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
झर कर साथ में
अस्फुट स्वर गाते  □ अंशु विनोद गुप्ता

ब्रह्म अर्पण
पावन समर्पण
धरा नमन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
जीर्ण शीर्ण निस्तार
नवल आगमन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

नव सृजन
फिर प्रभु शरण
सब अर्पण  □ मधु सिंघी
गिरते जब धरती
बिसर गया तन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

प्रकृति सम
मानव का जीवन
जन्म मरण  □ सुधा राठौर
प्रभु की है सौगात
फिर मिलन आस  □ मधु सिंघी

प्रभु शरण
ब्रह्म को समर्पण
मनु-जीवन  □ सुधा राठौर
जीवन माया हब
मुक्ति बोध सहज  □ चंचला इंचुलकर सोनी

माया की गति
दुनिया आनी जानी
चोला बदले  □ देवेन्द्र नारायण दास
धूल में मिल कर
प्रभु इच्छा सिराते ।  ■  डाॅ. अखिलेश शर्मा

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                  रेंगा क्र. 35                     

0
दीप जलते
रोशन कर जाते
मन हमारे  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
आशाओं के दामन
उम्मीद फैला जाते  □ चंचला इंचुलकर सोनी

दीप का दान
अंधकार मर्दन
बढ़े प्रकाश  □ गंगा पांडेय "भावुक"
कई राज़ दफन
अपने ही अंदर  □ मधु सिंघी

आस्था प्रदीप
विश्वास की रोशनी
जीवन आस  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
छिपता दीप तले
बेहया अंधकार  □ गंगा पांडेय "भावुक"

सत साधना
रूप ज्योतिर्मयता
समाहित लौ  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
पुलकता है मन
प्रकाशित जीवन  □ डाॅ. संजीव नाईक

तम हरती
निःस्वार्थ ही जलती
दीप में बाती  □ सुधा राठौर
ज्योत से ज्योत जले
रोशन राह द्वारे  □ अंशु विनोद गुप्ता

घृत का स्नेह
बाती का समर्पण
दीप ज्वलन  □ सुधा राठौर
प्रफुल्लित है मन
आशान्वित जीवन ।  ■  डाॅ. संजीव नाईक
    
    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

                 रेंगा क्र. 36                     

0
अंधेरी रात
एक दीप बताये
उसे औकात  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
निविड़ निशा हटी
जग हुआ प्रकाश  □ प्रवीण कुमार दाश

निशा का दर्प
दीप का उजियारा
कर दे चूर  □ सुधा राठौर
मगरूर रजनी
दीप तोड़े भरम  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

जले दीपक
बाती है सहचरी
तमाम रात  □ सुधा राठौर
अंधकार घनेरा
हरदम है हारा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

स्वयं जलता
करता दूर तम
शुभ प्रयास  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
दैदीप्यमान उर्जा
दीपक की सौगात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

कभी न हार
घोर निशा में दीप
देता प्रकाश  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
तिमिर से लड़ता
सूर्य का वो पर्याय  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

स्याह हो रात
अंधियारे की बात
दीप है साथ  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
अकिंचन है दीप
हौसला है कमाल  ।  ■ सुधा राठौर

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

रेंगा  क्र. 37  

0
झरते पत्ते
स्वागत कर चले
आगंतुक के  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
नव निर्माण लाए
धरिणी भी हर्षाए  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

पर्ण विलास
है जीवन की आस
आशा का वास  □ डाॅ. संजीव नाईक
नई आस जगाते
ब्रह्म शरण जाते  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

पर्ण विहीन
टहनी ने पहने
नव पल्लव  □ सुधा राठौर
नवल किसलय
लिखे प्रकृति जय  □ चंचला इंचुलकर सोनी

हँसते गाते
नियति चक्र ढोते
विदाई लेते  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
असहनीय व्यथा
अंतर्मन भी रोए  □ सुधा राठौर

नयी कोंपलें
जीवन गीत रचें
झूम झूम के  □ देवेन्द्रनारायण दास
रीत प्रकृति आली
सुषमा ज्यों निराली  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

अगले जन्म
झरे पत्ते बोलते
फिर मिलेंगे  □ देवेन्द्र नारायण दास
फूटो नई कोंपलें
बसंत सरसाए  ।   ■  प्रवीण कुमार दाश

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश दीपक
___________________________________

___________________________________

         रेंगा क्र. 38        

0
प्रेम उसूल
संवेदना के कूल
खिलते फूल  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
महकती बगिया
हृदय अनुकूल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

प्रेम के बोल
मन तराज़ू तौल
मिश्री तू घोल  □ अयाज़ खान
खिली मलयप्रीति
संगीत सुमधुर  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

द्वेष समूल
हरती पुष्प-गंध
हारते शूल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
सुकुमार पंखुड़ी
उड़ रहा दुकूल  □ इंदिरा किसलय

चाह के द्वार
पुलकित संसार
ठंडी बयार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मय आरक्षी शूल
पौधे सधें समूल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

प्रेम प्रसून
आच्छादित है मन
सुखी जीवन  □ अतुल पाण्डेय
बजे मन मृदंग
उठ रही तरंग  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

जग की रीत
गाओ प्रेम के गीत
काव्य के मीत  □ अयाज़ खान
मय आरक्षी शूल
सरिता संग झूल  □ शेख़ शहजाद उस्मानी

        संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

        रेंगा  क्र. 39          

0
मिट्टी के तन
पानी के बुलबुले
यही जीवन  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
पंचतत्व की देह
उसी को समर्पण  □ सुधा राठौर

मनुष्य देह
मोक्ष्य गमन ध्येय
दूजा न जन्म  □ मधु सिंघी
त्याग धरा के लिए
करें तन अर्पण  □ प्रवीण कुमार दाश

उड़ जाता है
तन के पिंजरे से
आत्मा का पाखी  □  सुधा राठौर
चक्र अनवरत
जीवन उपक्रम  □ मधु सिंघी

साँसों का खेल
जीवन का ये मेला
पानी का रेला  □  सुधा राठौर
खत्म साँसों का खेल
कब हुआ है मेल  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

प्राण का अंत
जीवन से है मुक्ति
मिलता स्वर्ग  □ रामेश्वर बंग
मिले जब आकार
जीवन हो साकार  □ शुचिता राठी

उड़ता पंछी
प्रकृति परिवर्तन
पिंजरा खाली  □ देवेन्द्र नारायण दास
परमात्मा की लय
आत्मा होती विलय  ■   मधु सिंघी
   
             
  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                   रेंगा  क्र. 40                     

0
छोड़ो देखने
जो सच नहीं होते
वही सपने  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
कभी जो न दे सोने
वही होते सपने  □ मनिषा मेने वाणी

पूर्णता हेतु
देखिये जो सपने
खुली हो आँखें  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
करे स्वप्न साकार
श्रम का ही आईना  □  अय़ाज ख़ान

दौड़ते रहे
सपन दफनाते
मन के घोड़े  □ देवेन्द्रनारायण दास
सत्य में कैसे ढले
स्वप्न के सिलसिले  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

रोज पिलाता
आँसू दर्द सपने
जीवन भर  □ देवेन्द्र नारायण दास
जो है स्वप्न अधूरा
श्रम से करो पूरा  □ अयाज़ ख़ान

रंग बिरंगे
जीवन के सपने
आशा दौड़ाते  □ देवेन्द्र नारायण दास
स्वप्न छलते रहे
हैं सदा अनकहे  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

स्वप्न छलते
यथार्थ नहीं छले
यश भी मिले  □ अयाज़ ख़ान
सच करने ख्वाब
जान लगा दीजिए  ।    ■ गंगा पांडेय "भावुक"

 
-- संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"----
_________________________________

_________________________________

               रेंगा  क्र. 41                   

0
आस्था महान
पत्थर में बसते
प्रभु श्रीराम  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
जीवन के आराम
परम सुख धाम  □ अल्पा वलदेव तन्ना

भजते रहो
राम नाम को सदा
नहीं विपदा  □ मनिषा मेने वाणी
राम से दिल लगा
दिव्य आलोक पाया  □ अयाज़ ख़ान

रख विश्वास
छूटे जन्म मरण
पावन कर्म  □ मधु सिंघी
दूर होती विपदा
मिले सुख अपार  □ रामेश्वर बंग

राम का नाम
बने बिगड़े काम
मर्म लो जान  □ अयाज़ ख़ान
पूजें भक्ति भाव से
मिले मन को शांति  □ रामेश्वर बंग

भक्ति की लय
शक्ति समायी ऐसी
रोके प्रलय  □ मधु सिंघी
बढ़े आत्मविश्वास
जीवन नौका पार  □ कैलाश कल्ला

श्रद्धा मन की
भक्ति में है मुक्ति
राम में शक्ति  □ रामेश्वर बंग
अतिशय की चाह
उफन पड़ी नदी  ।   ■ गंगा पांडेय "भावुक"

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 42            

प्रीत जोड़ती
नफरत की हवा
तोड़ती डाली  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
नफरत विनाशी
प्रेम से खुशहाली  □ मधु सिंघी

प्रेम की पोथी
जीवन का आधार
रिश्तों में स्वाद  □ प्रवीण कुमार दाश
जुड़ी ईंटे दीवार
अकेली तो बेकार  □ कैलास कल्ला

जीवन गीत
गुनगुनाये मन
प्रेम संगीत □ किरण मिश्रा
मिल जाते हैं मीत
प्रेम से जग जीत  □ मधु सिंघी

नेह के रिश्ते
गहरे अनुबंध
प्रीति संबंध  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
भाव प्रणय बद्ध
अच्छा बँधे प्रारब्ध  □ मधु सिंघी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 43           

रवि कृषक
बोये मेघ के बीज
वर्षा फसल  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
धरा की गोद भरी
हरियाली हैं सजी  □ चंचला इंचुलकर सोनी

गरज उठे
मेघ जो टकराए
बजे मृदंग  □ सुधा राठौर
आतप का मर्दन
बारिश का नर्तन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

बादल लौटे
प्रवासी प्रियतम
पुलकी धरा  □ देवेन्द्र नारायण दास
उगे धान सर्वत्र
भरे पेट सकल  □ कैलाश कल्ला

पृथ्वी का कर्ज
बारिश ने निभाया
अपना फर्ज  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
वसुधा खिल उठी
ओढ़ी हरी चूनर  □  सुधा राठौर

ओ मेघराज !
उड़ेलो गगरिया
झूमें फसलें  □ देवेन्द्र नारायण दास
बूँदें पकने लगी
धरा सजने लगी  □ शुचिता राठी

आशा किरन
जाग गया किसान
नव विहान  □ प्रवीण कुमार दाश
धरती थी बेहाल
खेती हुई निहाल  ।   ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

          रेंगा  क्र. 44           

संदेह चक्की
सबको पीस लेती
बिल्कुल अंधी  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
मति की घेराबंदी
क्षति की रज़ामंदी  □  शेख़ शहजाद उस्मानी

शंकालु व्यक्ति
मति पर शिकंजा
सोच निरस्त  □ सुधा राठौर
शक के मेंढक से
हो जाते सभी पस्त  □ प्रवीण कुमार दाश

शंका का डंका
बजता चतुर्दिक
है अविश्वास  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
संदेह से बचिये
आप आँखें खोलिये  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

शक्की इंसान
चैन से जी न पाए
न जीने वो दे  □ सुधा राठौर
घुन बन कुतरे
जीवन थोथा करे  □ कैलाश कल्ला

सदा शंकिनी
बहुचित्र अंकिनी
आशा रंकिणी  □ देवेन्द्रनारायण दास
कोई नहीं है मित्र
स्वभाव है विचित्र  □ सुधा राठौर

शत्रुता पक्की
दुविधा ग्रस्त शक्की
रेश्ते नौटंकी  □ शेख़ शहजाद उस्मानी
बिखर जाते हैं यूँ
अनमोल से मोती  ।   ■ सुधा राठौर

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 45            

समय नदी
तिनके अलबेले
रुक न पाये  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
गोते लगा बहते
लहर-ताल पाते  □ शेख़ शहजाद उस्मानी

झरते लम्हें
वक्त की टहनी से
जयों सूखे पत्ते  □ सुधा राठौर
वक्त का ये बहाव
होगा न ठहराव  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

कसी मुट्ठी से
निकल जाए वक्त
पानी के जैसे  □ सुधा राठौर
भर ले गगरिया
यादों के पनघट। □ शुचिता राठी

नहीं रुकती
बहना है नियति
वक्त तटिनी  □ सुधा राठौर
बहती चली सदी
सभ्यता उकेरती  □ चंचला इंचुलकर सोनी

झुक न पाये
लहर भंवर में
सहर सांझ  □ शेख़ शहजाद उस्मानी
वक्त के पृष्ठों पर
तिनकों के आखर □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

वक्त धाराएँ
नित नूतन बढ़ें
भीगे से लम्हें  □ अल्पा वलदेव तन्ना
सिखा रही है हमें
आती जाती लहरें ।   ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

      संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 46            

गले मिलते
बच कर रहना
काटते गले  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
आस्तीन में ही पले
नाग ये जहरीले  □ सुधा राठौर

मुँह में राम
कांख में रखे छूरा
लगे वो भोला  □ गंगा पांडेय "भावुक"
करे कभी न शोर
बोले बोल वो मीठा  □ कैलाश कल्ला

प्रेम माधुर्य
घर फूटते रहे
स्वार्थ में जीते  □ देवेन्द्रनारायण दास
संभल के चलना
धोखा भरे जहान  □ प्रवीण कुमार दाश

राज लुटाये
विभीषण सा भाई
लंका जलाये  □ देवेन्द्रनारायण दास
फरेब के पुतले
हर पल फिसले  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

लव गुलाब
दिल में भरे आग
दो दो नकाब  □ गंगा पांडेय "भावुक"
दोस्त से कभी कभी
दुश्मन होते भले  □ अल्पा वलदेव तन्ना

नकाबपोश
ओढ़ते हैं मुखौटे
सफेदपोश  □ सुधा राठौर
मन के थे जो खोटे
मुख़ौटे बेलबूटे  □ चंचला इंचुलकर सोनी

   संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

          रेंगा  क्र. 47            

जीवन पग
भूमिका सँवारने
मिले न शब्द  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
अनजान सा जग
कदम डगमग  □ दाताराम पुनिया

जीवन मंच
नाटक कर रहे
हम तो पात्र  □ प्रवीण कुमार दाश
बहुमूल्य जीवन
सँवार लो प्रारब्ध  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

मन सुधरे
तभी भव निखरे
करें मनन  □ मधु सिंघी
शुद्ध रख चिंतन
सात्विक हो मनन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

सच्चे दिल से
कर परोपकार
अच्छा हो कल  □ मधु सिंघी
सत्कर्म ही करना
झूठ से मत डर  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

मन को गुन
नैतिकता का मार्ग
भाव प्रवल  □ मधु सिंघी
करना है कर्तव्य
भूल जाना तू फल  □ मनिषा मेने वाणी

प्रत्येक पल
कर्तव्य पथ पर
बढ़ता चल □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मत कर नादानी
पहचान समय  ।  ■ प्रवीण कुमार दाश

  संपादक :  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

         रेंगा  क्र. 48           

अग्नि परीक्षा
देती आज भी नारी
हाय.. लाचारी  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
पुरुषों की है सत्ता
अविश्वास की प्रथा  □ चंचला इंचुलकर सोनी

नारी आघात
पुरुष हाथ सत्ता
दोयम दर्जा  □ मधु सिंघी
नारी की सरलता
देती अग्नि परीक्षा  □ प्रवीण कुमार दाश

नारी अबला
सदा से ये कथन
करे दुर्बल  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
कटि अब कस ले
बनना है सबला  □ गोपीकिशन शर्मा

नारी का मर्म
समझ ले मानव
कर आदर  □ रामेश्वर बंग
आँचल में उसके
जीवन है पलता  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

रोचक कथा
पुरुषों की दुनिया
शोषण व्यथा  □ शेख़ शहजाद उस्मानी
नचा रहा घर में
पिंजरे की चिड़िया  □ देवेन्द्र नारायण दास

माता तनया
रूप अनेक लेती
बन वनिता  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
सब पर है भारी
नहीं वह अबला  ।   ■ मनिषा मेने वाणी

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

        रेंगा  क्र. 49            

0
छोड़ोगे जग
लौटना पड़ता है
सभी को घर  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
प्रकृति के नियम
पञ्च तत्व विलय  □ प्रवीण कुमार दाश

जहाँ से आये
जाओगे वहीं तुम
नहीं विकल्प  □ गंगा पांडेय "भावुक"
कर्म-खाता दिखाता
सफल असफल  □ शेख़  शहज़ाद उस्मानी

कर्म का फल
भोगने आता जीव
वसुधा पर  □ देवेन्द्रनारायण दास
शून्य से शून्य ओर
धन संपत्ति छोड़  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

अनादि सत्य
सांसों का आना जाना
यही जीवन  □ सुधा राठौर
करनी का ही फल
भटके दर-दर  □ अयाज़ ख़ान

साँसें संक्षिप्त
जीवन अभिशप्त
लालसा लिप्त  □ दाता राम पुनिया
छोड़ना तो पड़ेगा
किराये का ये घर  □ मधु सिंघी

बढ़ा ले पग
लगा ले जा गुहार
प्रभु के दर  □ प्रवीण कुमार दाश
परमात्मा के पास
मिलन सुखकर  ।  ■  मधु सिंघी
   
  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 50            

0
आया अकाल
किसान के पेट में
लाया भूचाल  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
समय की कुचाल
परिस्थिति बेहाल  □ शुचिता राठी

नभ निहार
आँखें नहीं थकती
मेघ गुहार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
नदी ताल हैं सूखे
किसान बेहाल  □ रामेश्वर बंग

बादल रूठे
आँखें पथरा गई  □ शुचिता राठी
मन हताश
सूरज का कहर
सूख गई नहर  □ सुधा राठौर

चूल्हे की चिंता
धरती का संताप
बेबस पिता  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
सिकुड़ी अतड़िया
फूट फूट के रोया  □ शुचिता राठी

काल-अकाल
किसान के सामने
लगते बौने  □ अयाज़ ख़ान
झेलेगा हर आम
प्रकृति की ये मार  □ कैलाश वाजपेयी

प्यासी धरती
अंतर्मन है सूखा
तालाब भूखा  □ सुधा राठौर
पीड़ित हर आम
आत्महत्या का ख्याल  □ कैलाश कल्ला

दरकी धरा
सूखा आँख के पानी
मन बेचैन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
वसुधा का चित्कार
मची है हाहाकार  □ सुधा राठौर

पानी के बिना
कोई हँसता नहीं
रुठे हैं मेघ  □ देवेन्द्रनारायण दास
नैया है मझधार
दया पालनहार  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

इन्द्र का क्रोध
किसान परेशान
धरा है दुखी  □ रामेश्वर बंग
वक्त की ताल, चाल
भू-मेघ भेड़चाल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

ओ काले मेघा
झूम कर बरसो
यूँ घनघोर  □ सुधा राठौर
तरस गई आँखें
गाँव हुआ लाचार  ।  ■  रामेश्वर बंग

    संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

          रेंगा  क्र. 51             

0
लीला अपार
ईश्वर धन्य ! रचा
यह संसार  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
फूँके सबमें प्राण
भरा अहं अपार। □ कैलाश कल्ला

पालो न भ्रम
नश्वर यह काया
झूठी है माया  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
ब्रह्म सत्य निहार
प्रभु करेंगे पार  □ प्रवीण कुमार दाश

हरित धरा
रंगीन पेड़ पौधे
मन मोहते  □ मधु सिंघी
मानिये उपकार
उपहार संसार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

आसार जग
रहस्यों का भंडार
रायी पहाड़  □ गंगा पांडेय "भावुक"
सूर्य, चन्द्र, सागर
प्रकृति उजागर  □ किरण मिश्रा

आदि न अंत
अनंत ही अनंत
प्रभु की माया  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
अद्भूत है निर्माण
विस्मित संरचना  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

करें श्रृंगार
द्रुम पल्लव हरे
धरती नार  □ किरण मिश्रा
नाना वर्ण प्रकार
जगत का आधार ।  ■ अलका त्रिपाठी " विजय"

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

             रेंगा  क्र. 52              

0
फिरता मारा
ढूँढ रहा कस्तूरी
मृग बेचारा   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
छुपी नाभि अंदर
ढूँढता जग सारा  □ मधु सिंघी

स्व की तलाश
संसार मायाजाल
गहरी प्यास  □ किरण मिश्रा
ढूँढ रहा जिसे वो
है तो उसी के पास  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

अन्तःकरण
असली तीर्थयात्रा
हरि का वास। □ देवेन्द्रनारायण दास
आत्मा की महक ही
शाश्वत अहसास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

आँखें मूँद के
देख लो भगवान
आत्मा भीतर  □ अयाज़ ख़ान
आत्मा में बसे ईश
सब ढूँढें बाहर  □ गंगा पांडेय "भावुक"

मनु बौराया
मंदिरों में ढूँढता
प्रभु कहाँ हैं  □ सुधा राठौर
अंतस में ही खोज
मिथ्या यह संसार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

एक समान
आरती व अज़ान
काव्य समान  □ अयाज़ खान
मन बुद्धि औ आत्मा
बने श्याम के धाम ।   ■ देवेन्द्रनारायण दास

  --संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"--
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 53             

0
जलता रहा
रात भर दीपक
सिसक रहा   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
बाती से मन-व्यथा
मौन कहता रहा  □ सुधा राठौर

अंध उजास
सिक्के के दो पहलू
जीत व हार  □ गंगा पांडेय "भावुक"
लेके बाती साथ
जला तमाम रात  □ सुधा राठौर

प्रेम का तेल
सनसनाती हवा
स्नेह की बाती  □ किरण मिश्रा
अंधकार प्रहार
हो रोशन संसार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

दग्ध हृदय
उर की वह पीर
सहता रहा  □ सुधा राठौर
खुद को जला कर
खुशी बाँटता रहा  □ मधु सिंघी

काली रात में
रात भर जलता
प्रेम का दीया  □ देवेन्द्रनारायण दास
हवा से लड़ कर
रोशनी देता रहा  □ कैलाश कल्ला

संघर्षरत
जल रहा अथक
सुबह तक  □ सुधा राठौर
तिमिर से संघर्ष
हुआ पथ प्रशस्त ।  ■   किरण मिश्रा

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 54             

0
स्वाभिमान भी
ठहरा समर्पण
नारी जीवन  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
खुशियों का वंदन
आँसुओं का क्रंदन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

रेशम डोरी
पिरोए हैं जिसमें
रिश्तों के मोती  □ सुधा राठौर
ममता प्रतिमूर्ति
स्नेह स्निग्ध बाँटती  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

करे अर्पण
जीवन समर्पण
नारी दर्पण  □ अयाज़ ख़ान
निःस्वार्थ सेवा भाव
है सर्वस्व अर्पण  □ सुधा राठौर

चिरसंगिनी
हर पड़ाव पर
सहधर्मिणी  □ सुधा राठौर
करती है साधना
खुशियाँ ही बाँटना  □ मधु सिंघी

है साधिका भी
उत्थान के पथ पे
सहगामिनी  □ सुधा राठौर
जरुरत आज है
सशक्तिकरण की  □ शुचिता राठी

रिश्तों की पर्ण
खिलती मुरझाती
प्रेम बूँद से  □ शेख़ शहजाद उस्मानी
समाज को रचती
देती नया आयाम । ■  रामेश्वर बंग

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 55             

0
शर्म की बात
मानव श्रम रोता
यहाँ अनाथ □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
कोई न अपनाये
खड़ा वह हताश  □ मधु सिंघी

मशीनी युग
शिल्पकार, श्रमिक
बेरोजगार  □ किरण मिश्रा
स्वेद बिंदु पावन
अब हुए बेकार  □ डाॅ. संजीव नाईक

थक हारता
धनिक डकारता
श्रम का फल  □ दाता राम पुनिया
श्रमिक क्यों दलित
श्रम नहीं फलित  □ सुधा राठौर

निष्ठुर छले
मानव का स्वेदन
बेमोल बिके  □ डाॅ. संजीव नाईक
निगले रोजगार
मशीनी अत्याचार  □ किरण मिश्रा

श्रम को विदा
मानव की प्रगति
पलटी मति  □ मधु सिंघी
जरुरतें सुरसा
निगलती जीवन  □ किरण मिश्रा

करता श्रम
तोड़ अपना तन
फिर भी भूखा  □ डाॅ. संजीव नाईक
तिरस्कृत जीवन
कठिन है यापन ।  ■ अलका त्रिपाठी "विजय"

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

              रेंगा  क्र. 56              

0
दु:ख की बात
छाया भी जब छोड़े
अपना साथ  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
छूट जाता है हाथ
जब घनी हो रात  □ सुधा राठौर

रात अँधेरी
परछाई न दिखे
बुरे काम में  □ गंगा पांडेय "भावुक"
दुनिया देती ताने
बात कोई न माने  □ मधु सिंघी

निर्मोही छाया
घिरते ही अंधेरा
समेटे साया  □ सुधा राठौर
झूठा बेखौफ जीता
सच्चा विष है पीता  □ अयाज़ ख़ान

आँसू की वर्षा
होती है दिन रात
तड़पे मन  □ मधु सिंघी
कठिन होती रात
मांगता तेरा साथ  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

जो थामे हाथ
कठिन समय में
वही अपना  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
अपने ये जज्बात
किससे कहें बात  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

बड़ा आघात
सच्चे इन्साँ को मिले
मन पे घात  □ अयाज़ खान
तन छोड़ता साथ
मन मायूसी हाथ ।  ■  मधु सिंघी

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 57              

0
जन्म से मृत्यु
ढोती परमायु को
रिसती आयु   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
टूटते तटबंध
सांस लय के बंध  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

कर्म भविष्य
प्रारब्ध वर्तमान
धारक आयु  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
हर पल घटती
होती नहीं चिरायु  □ सुधा राठौर

अंत विराम
मोक्ष ही सुखधाम
अनंत यात्रा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
सांस मोती मनका
गूँथना जीवन का  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

बढ़ती घटे
उम्र इक पहेली
मौत सहेली  □ दाता राम पुनिया
बित जाते हैं वक्त
यादें ज़िंदा रहती  □ रामेश्वर बंग

साँसों की लड़ी
जीवन जब तक
साथ है खड़ी  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
प्रारब्ध वर्तमान
भविष्य का निर्माण  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

शाश्वत सत्य
निश्चित कुल साँसें
ब्रह्मा जी बाँचें  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
गिनती की है साँसें
हिसाब वो ही बाँचें  ।   ■  मधु सिंघी

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

          रेंगा  क्र. 58              

0
बने जालिम
भाइयों को लड़ाते
राम-रहीम   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
धर्म नाम अधर्म
मानवता ही मर्म  □ दाता राम पुनिया

धर्म धारक
बनें वैर मारक
इन्सां के हक़  □ दाता राम पुनिया
हो जाती है भ्रमित
जनता नासमझ  □ मधु सिंघी

भ्रम का जाल
ये जालिम रचते
रिश्ता तोड़ते  □ रामेश्वर बंग
धर्म के नाम पर
जुल्म आवाम पर  □ दाता राम पुनिया

धर्म का नाम
अमानवीय कर्म
विष वमन  □ मधु सिंघी
भाई भाई को तोड़े
धर्म के नाम लूटे  □ रामेश्वर बंग

फूट डाल के
करते राजनीति
लोग बेदर्द  □ मधु सिंघी
आपस में दरार
राजनीतिक स्वार्थ  □ गंगा पांडेय "भावुक"

एक है खून
हिंदू मुसलमान
सभी हैं भाई  □ मधु सिंघी
मिलाते हैं फ़रिश्ते
लड़ाते शैतान ।  ■ शुचिता राठी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

रेंगा  क्र. 59                23 मई 2017

0
अश्रु व हास
जीवन जगत के
श्वास-प्रश्वास   □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
भावनायें प्रबल
अश्रु बने संबल  □ किरण मिश्रा

घातक होते
व्यंग्य व परिहास
त्रास व नाश  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
समरस बन जी
सदा सुधा रस पी  □ दाता राम पुनिया

दो पलड़े हैं
एक ही तराजू के
तुला विधाता  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
सुख-दुःख के चक्र
चक्रव्यूह, कुचक्र  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

जीवन- मृत्यु
सहर्ष ही स्वीकार
दोनों उत्सव  □ मधु सिंघी
जीवन ससुराल
सुख-दु:ख बेहाल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

काँटों से होता
फूलों का अहसास
दोनों हैं साथ □ मधु सिंघी
आँसू के हस्ताक्षर
हास्य के पृष्ठ पर  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

धूप व छाँव
एक के बाद एक
चलते साथ  □ मधु सिंघी
परमात्मा विधान
निश्चित है श्रीमान  ।  ■  डाॅ. अखिलेश शर्मा

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

         रेंगा  क्र. 60             

0
वृक्ष चंदन
लिपटा है उसमें
लुब्ध भुजंग   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
बन जाता सन्यासी
साधु संग दुर्जन  □ प्रवीण कुमार दाश

लोभ लालच
आसक्ति रूपी डाल
छोड़ते नहीं  □ मधु सिंघी
संगत होवे अच्छी
तो स्वभाव उत्तम  □  रामेश्वर बंग

दूध पिलाएँ
विषधर प्रकृति
विष उगले  □ विनय कुमार अवस्थी
चंदन है शीतल
महकता ही रहे  □ सुधा राठौर

शीत प्रवृत्ति
चंदन नहीं छोड़े
विष ही हारे  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
महकना स्वभाव
ना दुर्जन प्रभाव  □ मधु सिंघी

चंदन वन
शीतल मंद गंध  □ गंगा पांडेय "भावुक"
लिपटे सर्प
विष न कुछ करे
धीर धरे चंदन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

हो अच्छे मित्र
चंदन सा महके
स्वयं चरित्र  □ मधु सिंघी
जैसे मादक वन
महकता चंदन  । ■  अलका त्रिपाठी "विजय"

      संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________


 _________________________________

                  रेंगा  क्र. 61                      

0
सागर सुता
सीपी रखी सहेज
कीमती मुक्ता   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
स्वार्थी मानव आता
नोच मोती ले जाता  □ डाॅ. राजकुमारी वर्मा

पानी की बूँद
स्वाति नक्षत्र योग
बनते मोती  □ मधु सिंघी
सीपी गर्भ में मोती
सिन्धु मन हर्षित  □ प्रवीण कुमार दाश

बूँद टपके
चकोर की चाहत
स्वाति नक्षत्र  □ विनय कुमार अवस्थी
जो करता संभाल
वही होता निहाल  □ मधु सिंघी

सीपी व घोंघे
ह्वेल खेलती खेल
शांत समुद्र  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
दुर्लभ रत्न जन्म
मोती बनी श्रृंगार  □ विनय कुमार अवस्थी

बारिश बूँद
एक मिली समुद्र
दूसरी सीपी  □ मधु सिंघी
संस्कारों की चमक
रेत-कण को देती  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

सीप की कोख
दे निर्मल सा मोती
सागर धन्य  □ डाॅ. संजीव नाईक
सागर जल खारा
दे अमूल्य नमक  □ रामेश्वर बंग

समुद्र गर्भ
मनु करे दोहन
असंख्य रत्न  □ पुरोहित गीता
मोती मंथन फल
पराजय निष्फल  □ डाॅ. संजीव नाईक

कर्म व श्रम
जीवन में दो मोती
बड़े कीमती  □ रामेश्वर बंग
करना परहेज
न हो राग न द्वेष  □ डाॅ. संजीव नाईक

मोती का मोह
लालची है मानव
देता बिछोह  □ किरण मिश्रा
मोतियों की ये आब
सीप की अमानत  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

सागर जल
संभाले संपदाएँ
सौंपे निश्छल  □ डाॅ. संजीव नाईक
ढूँढूँ सागर मोती
मिला मूंगा कीमती  □ गंगा पांडेय भावुक

मन की पीड़ा
प्रतिभासित होती
बन के मोती  □ डाॅ. संजीव नाईक
सिंधु के आँचल में
सहेज आँसू मोती । ■  देवेन्द्रनारायण दास

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 62               

0
आपसी फूट
ईमान को अपनी
लेती है लूट  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
सत्य कसौटी पर
छद्म- विजयी झूठ  □ शेख़ शहजाद उस्मानी

विश्वास खत्म
ईमान है बिकता
सत्य है यही  □ विनय कुमार अवस्थी
फूट डालता झूठ
चैन लेता है लूट  □ अयाज़ ख़ान

स्वार्थ व द्वेष
जीवन की जड़ में
विषैले बीज  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
हो मूल्यों का सम्मान
रिश्तों का बढ़े मान  □ मधु सिंघी

शक़ दीवार
दौलत परिवार
रिश्तों में फूट  □ शेख़ शहजाद उस्मानी
समझदारी काम
रहे रिश्ता अटूट  □ प्रवीण कुमार दाश

फूट का साथ
पछतावा ही हाथ
न बने बात  □ मधु सिंघी
झगड़ा बैर भाव
दानव का स्वभाव  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

शक़ का विष
करे काम तमाम
रोए इंसान □ अयाज़ ख़ान
संगठन में शक्ति
विश्वास है अटूट  □ विनय कुमार अवस्थी

हो सद्भावना
प्रेम अंकुर फूटे
रिश्ते न छूटे  □ मधु सिंघी
समाज को बचाना
नया जमाना लाना  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्त

रिश्तों का खून
मानव ही मानव
रहा है भून  □ किरण मिश्रा
घर फूँक तमाशा
दिखाते हम लोग  □ पुरोहित गीता

एकता छिन्न
अहं का टकराव
हो बिखराव  □ विनय कुमार अवस्थी
संस्कृति का अचार
रिश्तों का है व्यापार  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

खोट तोड़ता
रिश्तों के दृढ़ पुल
बेच इमान  □ शेख़ शहजाद उस्मानी
ईर्ष्या द्वेष  विकार
मिटा देते संस्कार  □ मधु सिंघी

शक के बीज
घोलते हैं ज़हर
ढाएँ कहर  □ अयाज़ खान
मानवता व्याकुल
दानवता को तूल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

नासमझी है
स्वार्थ की सिद्धि हेतु
आपसी फूट  □ विनय कुमार अवस्थी
मन में पाल श्रद्धा
रख रिश्ता अटूट ।  ■  प्रवीण कुमार दाश

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 63               

0
जूही के पास
मेघ चला सुनाने
प्रिय का हाल  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
मेघों की बात सुन
जूही हुई निहाल  □ मधु सिंघी

सुन संदेश
कलियाँ सभी खिलीं
महका बाग  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
नाची मन मयूरी
शाम हुई सिन्दूरी  □ किरण मिश्रा

मेघों की गति
सबसे तेज होती
संदेशा देने  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
राह देखता दिल
सावन में आ मिल  □ दाता राम पुनिया

अरसे बाद
जान प्रिय का हाल
हुई रुआँसी  □ मधु सिंघी
मेघों की सुनी कही
महक उठी जूही  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

चंचल मन
मुखरित होकर
नैन वाचाल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
बातें सुन सिहरी
धरा पर बिखरी  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

मन वाचाल
गाये भैरव राग
बूँदों की थाप  □ किरण मिश्रा
पुलकित हो झूमी
रही हिय संभाल  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

गरजे मेघ
लाये प्रिय की पाती
विरही मन  □ किरण मिश्रा
प्रिया भी खुश हुई
जान प्रिय का हाल  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

मिलन आस
बतियाँ कुछ खास
बुझेगी प्यास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
खिलता अनुराग
झरती प्रीत धार  □ किरण मिश्रा

मन उल्लास
वश नहीं जज्बात
थिरके अंग  □ मधु सिंघी
आज मंद मुस्कायी
जूही जोहती बाट  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

बदरा छाये
झमाझम बरसे
पी परदेस  □ पुरोहित गीता
बरसो मीत पर
सुगंध-राग पर  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

गाती रागिनी
सर सर पवन
कलियाँ हँसी  □ किरण मिश्रा
सुन मधु वचन
तन मन स्पंदन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

हुई अधीर
कब होगा मिलन
सोचता मन  □ मधु सिंघी
विस्तारित कमल
मुकुलित नयन  □ किरण मिश्रा

मेघदूत के
संदेश सुन कर
खिलती जूही  □ डाॅ. संजीव नाईक
कोकिल कूक उठा
चहकी अमराई  □ देवेन्द्र नारायण दास

विरह पीड़ा
कराए अश्रुपात
भीगते गात  □ डाॅ. संजीव नाईक
जागी मन में प्रीत
प्रीतम आते याद ।  ■   रामेश्वर बंग

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

         रेंगा  क्र. 64             

0
वट  पूजती
पति प्राणों से प्यारा
आयु माँगती □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
दे संस्कार महान
भारतीय संस्कृति  □ प्रवीण कुमार दाश

पावन प्रथा
नारी आस्था का चिह्न
वट-सावित्री  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
संस्कारों की है जान
पूजा बड़ी महान  □ मधु सिंघी

नारी महान
रखी संस्कृति जान
धागा को तान  □ प्रवीण कुमार दाश
पति को परमात्मा
पूजती कर मान  □ कैलाश कल्ला

यम निवास
बरगद का पेड़
पूज्य सदैव  □ सुधा राठौर
संस्कारों के ये बीज
पीढ़ियों से मानती  □ कैलाश कल्ला

सूत लपेट
वट पूजन कर
माँगे सौभाग्य  □ पुरोहित गीता
लंबी उम्र पति की
करे कामना नारी  □ देवेन्द्रनारायण दास

नारी की आस्था
वट का आशीर्वाद
करे दीर्घायु  □ अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
भाव समर्पण का
पालन संस्कृति का  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

नारी महान
करे जीवन दान
दे कर जान  □ प्रवीण कुमार दाश
जीवन साथी हेतु
व्रत लेती महान ।  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 65            

0
गाँव का कद
पुराना बरगद
बताता सच □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
पक्षियों की ये चीं चीं
दौड़ रहे ये खग  □ कैलाश कल्ला

हुए फैसले
पंचायत भी बैठी
बड़ के नीचे  □ सुधा राठौर
खाट पे बैठे बुड्ढे
खींचे चिलम कश  □ कैलाश कल्ला

हर पीढ़ी की
याद उसे कहानी
मुँह ज़ुबानी  □ सुधा राठौर
बरगद की शान
दादा करें गुमान  □ प्रवीण कुमार दाश

गैया को छाँव
परिन्दों को घोंसला
बटोही ठाँव  □ किरण मिश्रा
बरगद की छाँव
दिखे अपना गाँव   □ अलका त्रिपाठी "विजय"

बेटी बिदाई
बरगद है रोता
राह तकता  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
गाँव के बीचों बीच
धूल वह फाँकता  □ देवेन्द्रनारायण दास

पंछी सहारा
वृक्ष विशाल काया
प्रकृति माया  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
बरगद की जड़ें
कुआँ दरका हुआ  □ रामप्रसाद शुक्ल

निगेहबान
ग्राम पगडंडी का
वो बरगद  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
अनुभव वृहद
बुजुर्ग बरगद । ■  सुधा राठौर

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 66             

0
उपमानों से
रूठते उपमेय
मनाऊँ कैसे ?  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
शब्दों के गजरे ले
प्रीत सजाऊँ कैसे ? □ किरण मिश्रा

उदास रात
जाने क्या हुई बात
नहीं पी साथ  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
गुजरा क्या हम पे
जताऊँ भी तो कैसे ?  □ शुचिता राठी

भावों का प्याला
गूँथ रही चाँदनी
शब्दों की माला  □ किरण मिश्रा
जग की नीरसता
गले लगाऊँ कैसे ? □ अलका त्रिपाठी "विजय"

भावों के मोती
अक्षरों के गहने
शब्द श्रृंगार  □ सुधा राठौर
सम्भव की तलाश
जीत लूँगी आकाश  □ चंचला इंचुलकर सोनी

कर्म है दास
सब देंगे ही साथ
रहेंगे पास  □ प्रवीण कुमार दाश
प्रिय शब्दाभूषण
बनो तुम्ही श्रृंगार  □ सुधा राठौर

रिश्तों की डोर
लिपट जाए मन
खुल न पाए  □ देवेन्द्रनारायण दास
जिन्दगानी अधूरी
खुशी मनाऊँ कैसे ?  ■  प्रवीण कुमार दाश
    
   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                  रेंगा  क्र. 67                    

0
मन निश्छल
प्रेम की राह में क्यों ?
कनु का छल  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
प्रेम गली साकरी
जाना संभल कर  □ पुरोहित गीता

तन विह्वल
कान्हा मिला सम्बल
प्रेम सबल  □ किरण मिश्रा
प्रीति धारा निर्मल
पावन गंगाजल  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

राधा से रास
मीरा मन विश्वास
नेह उजास  □ दाता राम पुनिया
प्रेम परीक्षा प्यास
हर गोपी की आस  □ किरण मिश्रा

रास राधिका
मीरा प्रीत साधिका
नेहानादि सा  □ दाताराम पुनिया
प्रेम तो अविरल
हरपल है आशा  □ प्रवीण कुमार दाश

कनु की वंशी
सुनाए प्रेम धुन
बजे सितार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
प्रेम में हो मगन
सब रचाये रास  □ रामेश्वर बंग

सात्विक प्रीति
भावविभोर करे
आत्मा की तृप्ति  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
समर्पण है प्रेम
कामना नहीं कोई ।  ■   सुधा राठौर

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                     रेंगा  क्र. 68                

   0
कोमल कली
बनती वह काली
अबला नारी □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
जीवन की जननी
ये अति शक्तिशाली  □ रामेश्वर बंग

नहीं अबला
त्याग की प्रतिमूर्ति
करो स्वीकार  □ प्रवीण कुमार दाश
मुसीबत आ जाती
वो बनती माँ शक्ति  □ मधु सिंघी

नारी है गुणी
दिल से देती साथ
करो सम्मान  □ मधु सिंघी
जगत की कल्याणी
बन जाए रुद्राणी  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

सहनशील
ममता ये लुटाती
राह दिखाती  □ मधु सिंघी
वह शक्ति स्वरुपा
प्रकृतिस्थ अनूपा  □ डाॅ. संजीव नाईक

नर का बल
परिवार की धुरी
है मनोहारी  □ मधु सिंघी
ममता की मूरत
जग जननी रुपा  □ डाॅ. संजीव नाईक

नारी के बिना
नर भी है अधूरा
मानो ये बात  □ मधु सिंघी
पालन प्रतिमूर्ति
हृदय में ममता ।  ■    डाॅ. अखिलेश शर्मा

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

________________________________

                     रेंगा  क्र. 69                 

       0
काँच सा मन
ह.. ह.. तोड़ ही दिया
धूप दर्पण □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
कोमल था हृदय
विदीर्ण हुआ मन  □ गंगा पांडेय "भावुक"

रश्मिकिरण
करती आलिंगन
आत्म चिंतन  □ डाॅ. संजीव नाईक
कैसे हो अर्पण
मूरत समर्पण  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

ढूँढता छाँव
वैरी पिया का गाँव
कहीं न ठाँव  □ किरण मिश्रा
खो सकता ये प्राण
सहे न शब्द बाण  □ कैलाश कल्ला

धूप जालिम
करती बिखराव
पीड़ा का भाव  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
टूट गया विश्वास
अब नहीं है आस  □ मधु सिंघी

टूटे सपने
छूटे सब अपने
घायल मन  □ डाॅ. संजीव नाईक
कतरे में झाँकता
अक्स प्रियतम का  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

हिम्मत पस्त
सपने सब ध्वस्त
टूटा दर्पण  □ डाॅ. संजीव नाईक
काँच से बना मन
कैसे करे अर्पण ।  ■  अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

          रेंगा  क्र. 70             

0
मृग की आस
कस्तूरी की तलाश
कुण्डलि वास □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
वन-वन भटके
व्यर्थ करे प्रयास  □ मधु सिंघी

मृगी सा मन
इन्सानों ने भी पाया
है भरमाया  □ सुधा राठौर
भ्रम में भटकता
इत उत डोलता  □ पुरोहित गीता

ये भ्रम जाल
संशय मत पाल
मन संभाल  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
खुद रख विश्वास
खुशी स्वयं के पास  □ मधु सिंघी

तृष्णा छलावा
असत्य अभिलाषा
झूठी दिलासा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मतवाली सुगंध
है मृग मरीचिका  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

भ्रमित मन
ढूँढता मरूजल
जाने न मर्म  □ किरण मिश्रा
घट-घट में राम
कर भक्ति निष्काम  □ दाता राम पुनिया

मन में जले
प्रभु नाम का दीप
आनंद मिले  □ देवेन्द्रनारायण दास
भीतर ही सुवास
न भटक हताश  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

कर प्रयास
होना मत उदास
मिलेंगे प्रभु  □ प्रवीण कुमार दाश
परमात्मा मिलन
आत्मा का ध्येय खास ।  ■   मधु सिंघी

  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

               रेंगा  क्र. 71                   

0
हवा बहती
पीले हो गये पत्ते
झरते चले  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
पल्लवित कोंपले
नव-आस हौंसले  □ सुधा राठौर

चूमते चले
भूमि और चरण
खाद वरण  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
समय पथ पर
चला नियति क्रम  □ सुधा राठौर

हवा कहती
उपेक्षित हम भी
बनायें राह  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
लिख दें पटकथा
जीवन न हो वृथा  □ दाता राम पुनिया

पीत वसन
वृक्ष हो गए ठूँठ
हवा बैरन  □ सुधा राठौर
जीवन की तलाश
पुनः होगा विकाश  □ प्रवीण कुमार दाश

जीवन यही
जन्म-मृत्यु का लेखा
किसने देखा  □ सुधा राठौर
अनिश्चित है दशा
प्रभु पर भरोसा  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

धरा के अंक
करेंगे देहदान
झरते पान  □ सुधा राठौर
नैसर्गिक विधान
परिवर्तन प्राण  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

झरते पर्ण
होने लगे विवर्ण
है अवसान  □ सुधा राठौर
नव-पर्ण प्रतीक्षा
त्याग,दीक्षा,आकांक्षा  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

हवा का साथ
वृद्धावस्था का ह्रास
अज्ञात दिशा  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
उड़ा कर ले गई
टहनियों से पर्ण  □ सुधा राठौर

ये पतझड़
दे नया कलेवर
नयी कोंपलें  □ गंगा पांडेय "भावुक"
अपनों से हैं कटे
अपना बाँट कर  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

झरते पत्ते
नव पल्लव पाते
मानव तन  □ पुरोहित गीता
आत्मा बदले तन
मृत्यु फिर जीवन  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बहे पवन
सब पत्ते उड़ते
सूखी बगिया  □ डाॅ. संजीव नाईक
जर्जर तन त्याग
पाते तन नुतन  □ पुरोहित गीता

बढ़ते चलें
कर्म-पथ पर यूं
धरा चूमते  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
फल फूल विहान
बने नव जहान  □ प्रवीण कुमार दाश

जीवन चक्र
है ऐसे ही चलता
जन्म-मृत्यु का  □ डाॅ. संजीव नाईक
गतिशील संसार
सब ये विधि हाथ  □ कैलाश कल्ला

रह तैयार
है बेगाना संसार
राह बुहार  □ दाता राम पुनिया
धरा का आलिंगन
समय की गुहार ।  ■  शेख़ शहज़ाद उस्मानी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 72              

0
सर्दीली रात
गीत गा रहा चाँद
कोमल याद  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
रस की बरसात
ठिठुर रहे गात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

खुश चाँदनी
खुश आलम सारा
खुश साजन  □ डाॅ. संजीव नाईक
चाँदनी की छुअन
साँसे हुई चंदन  □ शुचिता राठी

चाँद के अंक
लजाई सी चाँदनी
तारे चमके  □ सुधा राठौर
सपन सजन के
खिले फूल मन के  □ दाता राम पुनिया

नींद आगोश
चाँदनी की छुअन
आओ सजन  □ डाॅ. संजीव नाईक
खुशनुमा मौसम
पसरा है उन्माद  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

चाँदनी रात
सपनों की बारात
तारों की सेज  □ सुधा राठौर
मन में जमी बात
लावण्य बरसात  □ प्रवीण कुमार दाश

सोया है चाँद
अलसायी चाँदनी
ऊँघते तारे  □ सुधा राठौर
मदहोश चन्द्रमा
स्वच्छ सुहानी रात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

निशा के पथ
बिछ रही चाँदनी
छिटके तारे  □ सुधा राठौर
चाँद की मनमानी
चाँदनी है सयानी  □ प्रवीण कुमार दाश

सपने दिखा
दिल को लुभाता है
चाँद गाता है  □ शुचिता राठी
झील के दर्पण में
देख अपना अक्स  □ सुधा राठौर

रजनी चाहे
साजन से मिलना
हँसता चंदा  □ डाॅ. संजीव नाईक
चाँदनी मुस्कुराए
अब रहा न जाए  □ सुधा राठौर

आँखों से उड़ी
नींद प्रियतम की
चाँदनी खिली  □ डाॅ. संजीव नाईक
रात लिख रही है
प्रणय की कहानी  □ सुधा राठौर

है फरियाद
आ जाओ सपने में
करते याद  □ डाॅ. संजीव नाईक
जाग रहे जज्बात
सुनो मन की बात  □ सुधा राठौर

चाँद मस्ती में
रजनी सुर ताल में
प्रकृति खुश  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
चाँद के नाम पाती
चाँदनी है सुनाती  □ सुधा राठौर

प्रेम की चाह
लेकर सपने साथ
चाँद है पास  □ प्रवीण कुमार दाश
गजब की ये आब
दमके माहताब  □ सुधा राठौर

नभ भी झूमे
तारे एक लय में
चाँदनी रात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
लिख रहा है चाँद
चाँदनी की किताब  □ सुधा राठौर

ठहरो चाँद
गाने खुशी के गीत
आ रही हूँ मैं  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
नभ, धरा का सेतु
हिय मिलन हेतु  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

चाँदनी उगी
उजली है रजनी
साथ है तेरा  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
चाँदनी शक्लों पर
निगाहें चाँद पर। □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

चाँद का गीत
जगाये हिय प्रीत
मेरी चाँदनी  □ डाॅ. संजीव नाईक
चाँद से करे केलि
बनी वह सहेली  □ सुधा राठौर

चाँद ढूँढता
घोर अंधकार में
प्रेयसी धरा  □ देवेन्द्रनारायण दास
चाँदनी शरमाई
चाँद खिलखिलाया  □ सुधा राठौर

ठंडी सी हवा
मन मोहक दृश्य
तारे गवाह  □ मधु सिंघी
मंत्रमुग्ध है चाँद
चन्द्रिका लाजवाब  □ सुधा राठौर

बूढ़ा बादल
ढँक लेता चाँद को
चाँदनी गुम  □ डाॅ. संजीव नाईक
दूधिया सा क्षरण
चाँदनी का वरण  □ सुधा राठौर

मेरे आँगन
ठहर गया चाँद
हँसी चाँदनी  □ डाॅ. संजीव नाईक
मौन है चारों ओर
प्रीत है चितचोर  □ मधु सिंघी

बिखर गई
धरा पर चाँदनी
चाँद ने बाँटा  □ देवेन्द्रनारायण दास
प्राकृतिक विधान
प्रेमालाप विज्ञान  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

देखो प्रभास
चाँद उजला गात
झूमती रात  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
मौसम रागमय
है अनुरागमय  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

प्रिय मिलन
दुनिया से निश्चिंत
आगोश चाँद  □ मधु सिंघी
चाँदनी में नहाए
मीत मन में आए  □ दाता राम पुनिया

धन्य हो तुम
पाया चाँद का साथ
मादक रात  □ डाॅ. संजीव नाईक
चाँद जले चाँद से
उसे किसका प्यार  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

प्रीत के रंग
चाँदनी बरसाती
पिया मिलन  □ डाॅ. संजीव नाईक
प्रणय निवेदन
शीतल संवेदन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

ढलने को है
चाँदनी का यौवन
चाँद मौन है  □ सुधा राठौर
मदहोश चाँदनी
निखरा है लावण्य  □ मधु सिंघी

नेह के गीत
जागी मन में प्रीत
मिलन रीत  □ सुधा राठौर
है एक एहसास
ये प्यार का आभास  □ रामेश्वर बंग

ये कैसी रात
लगाता चाँद आग
आँखों में ख्वाब  □ डाॅ. संजीव नाईक
ये पूनो की है रात
प्रीतम भी हैं साथ  □ कैलाश कल्ला

सुर अमृत
चाँदनी बरसाये
मिलन गीत  □ डाॅ. संजीव नाईक
चाँदनी रुपहली
पाकर मन मीत  □ मधु सिंघी

रूप निखरा
दूधिया सी चाँदनी
लगे मोहक  □ मधु सिंघी
चाँद से खिल जाओ
अब न शरमाओ  □ डाॅ. संजीव नाईक

शीतल चाँद
तपता है बदन
बैरी पवन  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"
प्रकाशित है रात
चाँदनी पिया साथ  □ प्रवीण कुमार दाश

ओ रे सजन
विरही मेरा मन
चाँद जलाए  □ सुधा राठौर
मौसम खुशनुमा
मधु रस बरसे  □ डाॅ. संजीव नाईक

नभमंडल
जगमगाया ऐसे
बजी रागिनी  □ सुधा राठौर
हुआ चाँद शराबी
चाँदनी पगलायी  □ डाॅ. संजीव नाईक

मीठी जलन
साथ मेरे चन्द्रिका
बहे पवन  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
जागा मन में प्यार
उनकी याद आयी  □ रामेश्वर बंग

महका मन
जब उसने छुआ
खिला बदन  □ डाॅ. संजीव नाईक
चाँदनी से चंद्रमा
करता मसखरी  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

याद सताए
सुहानी है रजनी
पिया न आए  □ सुधा राठौर
अब आ जाओ प्यारे
पवन आग बारे  □ गंगा पाण्डेय "भावुक"

दूर चंद्रमा
रहे पास चाँदनी
मन आँगन  □ डाॅ. संजीव नाईक
जुगनू की बारात
उनींदे से जज्बात  □ किरण मिश्रा

आँखों को भींच
पिघल रही रात
यादों से सींच  □ किरण मिश्रा
चाँदनी ने सजाया
चाँद का आशियाना  □ सुधा राठौर

चमके चंदा
मन मेरा डोले रे
मेरे प्रीतम  □ गंगा पांडेय "भावुक"
तेरा सलोना रूप
लगे सदा अनूप  □ देवेन्द्रनारायण दास

आओ न पास
घोल दो साँसों में
रसीली बात  □ किरण मिश्रा
श.. श... चाँद करता
कुछ राज की बात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

चाँद चेहरा
गगन में रहता
ताकती धरा  □ देवेन्द्रनारायण दास
चाँदनी से चुपके
सुना रही है राज  □ प्रदीप कुमार दाश

चाँद ने बाँची
गगन की चिठिया
रात ने सुनी  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
प्रीत की यह रीत
प्रसन्न मन मीत □ सुधा राठौर

सागर सुने
लहरों का संगीत
चाँद सुनाए  □ देवेन्द्रनारायण दास
आसमान गर्वीला
हो रहा रूपहला  □ सुधा राठौर

चली बारात
हवाओं ने सुनाए
मंगल गीत  □ सुधा राठौर
चाँदनी रही साथ
मधुर एहसास  □ विनय कुमार अवस्थी

हौले से चली
चँदनिया की डोली
चाँद है दुल्हा  □ सुधा राठौर
बौराया कहकशां
रजनी की है माया  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

शीत स्पंदन
स्वरों का था गुंजन
थिरके ताल  □ विनय कुमार अवस्थी
यूँ तारों ने सजाई
जगमग बारात  □ सुधा राठौर

नींद न आये
रात खूब सताये
मन है मौन  □ रामेश्वर बंग
मधुर सी रागिनी
पुलकित यामिनी  □ सुधा राठौर

तीक्ष्ण प्रवाह
शीत हुआ बहाव
यादें पसरी  □ विनय कुमार अवस्थी
रूपहली यामिनी
चंद्रिका है कामिनी  □ सुधा राठौर

रजनीचर
मौसम की चाल में
बहक गया  □ डा. अखिलेश शर्मा
खाइयाँ हैं गहरी
शून्य हुआ संवाद ।  ■   विनय कुमार अवस्थी
        
    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_______________________________

            रेंगा  क्र. 73             

0
मन को साधो
सध जाएगा तन
फिर जीवन  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
करना है मनन
ये जीवन दर्शन  □ मधु सिंघी
विकृत मन
कलुषित जीवन
पीड़ित तन  □ सुधा राठौर
नेह प्रीति अर्पण
कर स्व समर्पण  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मन शासन
पाँचों इन्द्रियों पर
क्या करे तन  □ मधु सिंघी
चमकता दर्पण
कामनायें हवन  □ किरण मिश्रा
प्रीत के बंध
रचते रहे छंद
मन मलंग  □ डाॅ. संजीव नाईक
कर लो अनुबंध
सुधरेंगे जीवन  □ प्रवीण कुमार दाश
स्वस्थ मनन
नियंत्रित चिंतन
निरोगी तन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मन की भटकन
प्रभावित है तन  □ सुधा राठौर
जीवन क्रम
वासनाओं से जले
मानव मन  □ डाॅ. संजीव नाईक
प्रभु से लौ लगन
रोशन हो जीवन ।   ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

              रेंगा  क्र. 74              

0
मृग नाभि में
बन कर शिकारी
बसी कस्तूरी  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
सतर्कता विचार
सुरक्षित संसार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

घर का भेदी
खुशबू बनी शत्रु
जान पे बनी  □ शुचिता राठी
भ्रामक अहसास
न रख कभी पास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

मृगी शिकार
कस्तूरी की तलाश
प्राण अर्पण  □ किरण मिश्रा
भीतर का दुश्मन
खतरे में जीवन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

शिकार होते
रुप, रस, गंध के
संसारी जीव  □ देवेन्द्रनारायण दास
नाशवान ये काया
तृष्णा ने भरमाया  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

त्रस्त जीवन
आभासी परिवर्तन
मन दर्पण  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
अपने देते पीर
यही जग दस्तूर  □ डाॅ. संजीव नाईक

लोभ लालच
कस्तूरी बन बैठे
करे मोहित  □ मधु सिंघी
भरे कुलांचे वन
कस्तूरी बसे तन  □ अलका त्रिपाठी "विजय

कस्तूरी लोभ
है हर लेता क्रूर
मृग के प्राण  □ डाॅ. संजीव नाईक
लालच मोह माया
नष्ट करती काया। □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

जीवन कर्म
लिखे कहानी अंत
छूपी कस्तूरी □ प्रवीण कुमार दाश
इच्छाओं का दमन
तभीआत्मदर्शन  ।  ■   अलका त्रिपाठी" ''विजय"

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                 रेंगा  क्र. 75                  

0
घना अँधेरा
दीप जलता रहा
मन अकेला  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
दीपशिखा ले साथ
रोशनी फैला रहा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

साहसी मन
करता उपक्रम
भागे अंधेरा  □ डाॅ. संजीव नाईक
पहरा देता खड़ा
सुबह तक लड़ा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

चल पड़ा है
अंधेरे से लड़ने
लघु दीपक  □ देवेन्द्रनारायण दास
रोशन रहो सदा
जग को सिखाता  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

एक अकेला
है तम पर भारी
जलता दीया  □ डाॅ. संजीव नाईक
घबराया न वह
बस जलता रहा  □ शुचिता राठी

देख हौसला
प्रकाश मुस्कराया
नन्हे दीये का  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
परवानों का मेला
जुगनुओं का रेला ।  ■  दाता राम पुनिया

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                        रेंगा  क्र. 76.                      

0
लोरी के बीज
नींद वृक्ष उगाने
बोती माताएँ  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
मधुर स्वप्न पले
ममता दीप जले  □ किरण मिश्रा

प्याला छलके
ममता की बारिश
सपने भाते  □ डाॅ. संजीव नाईक
नयन अधखुले
नींद पलकों तले  □ दाता राम पुनिया

माँ की लोरी से
चाँद तारे भी सोते
निशा भी सुप्त  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
मीठे स्वप्न सजेंगे
निश्चिंतता के तले  □ चंचला इंचुलकर  सोनी

ममता लोरी
थामी नींद की डोरी
सर्वत्र शांति  □ डाॅ. संजीव नाईक
सपने बुनने की
खिल उठी आशाएँ  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

सपने फले
नींद के वृक्ष पर
बालक सोए  □ डाॅ. संजीव नाईक
ममता मुस्कुराए
लोरी गा के सुनाए  □ दाता राम पुनिया

स्नेह की छाँव
मीठी नींद के गाँव
आँचल तले  □ किरण मिश्रा
मखमल सा स्पर्श
उपजाता है हर्ष  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

माता की लोरी
चंदा दूध कटोरी
गुड़िया सोयी  □ गंगा पांडेय "भावुक"
तन मन धन से
माता साथ निभाती □ पुरोहित गीता

नींद का पौधा
दे ममता की कली
स्वप्न के फूल  □ रामेश्वर बंग
बनता कल्पवृक्ष
स्वप्न फल साकार ।   ■  मधु सिंघी
  
  संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________
___________________________________

रेंगा  क्र. 77                          28 मई 2017
☆ॐ☆
0
टूटती शाखें
कहाँ करे बसेरा
नन्हीं चिड़िया  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
मांगती संरक्षण
बन कहानी हिस्सा  □ चंचला इंचुलकर सोनी

कटते वृक्ष
छूट रहे बसेरे
पाखी के कक्ष  □ सुधा राठौर
पेड़ पर प्रहार
मनुज का विकार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

नीड़ सहेजे
टहनियों की बाहें
काटते क्यों हो  □ सुधा राठौर
हार गई हौंसला
पाखी हुई उदास  □ डाॅ. संजीव नाईक

बनाए नीड़
तिनके जोड़ कर
नन्हीं सी पाखी  □ सुधा राठौर
मत करॅ उजाड़
पक्षियों का संसार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

अनमनी है
वह छोटी गौरैया
छूटा बसेरा  □ सुधा राठौर
विलुप्ति की कगार
हो सार्थक विचार  □ चंचला इंचुलकर सोनी

मन अधीर
पाखी - मन की पीर
बहता नीर  □ सुधा राठौर
अब रात जाड़े की
कहाँ बनाये नीड़  □  रामेश्वर बंग

उजड़ा घर
रहे कहाँ बाहर
मन सशंक  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
पंछी हुए लाचार
कौन सुने पुकार  □ सुधा राठौर 

छोटी सी डाली
उसका घर द्वार
प्रकृति प्यार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
जीने दो इन्साँ उसे
पाखी करे गुहार ।  ■  प्रवीण कुमार दाश
              
   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
___________________________________

___________________________________

                    रेंगा  क्र. 78                    

0
चाँदनी रात
रात भर जागता
दीवाना चाँद  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
लिए यादों का साथ
तारों से करे बात  □ चंचला इंचुलकर सोनी

स्निग्ध बारिश
नेह की गुजारिश
मस्ती में रात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
ढूँढता चाँदनी को
बादल के उस पार  □ शरद कुमार श्रीवास्तव

बाट जोहता
प्रेयसी से मिलन
गहरी प्यास  □ डाॅ. संजीव नाईक
तारों की नगरी में
चाँदनी बिखेरता  □ शशि रंजना शर्मा "गीत"

अमृत वर्षा
कर रही चाँदनी
चाँद अघाया  □ सुधा राठौर
करता है तारीफ़
चाँदनी को निहार  □ रामेश्वर बंग

नभ का साया
चंद्रमा भी लजाया
प्रकृति माया  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
दूर से निहारते
चकोर को रिझाया  □ शशि रंजना शर्मा "गीत"

नभ के अंक
निशा सजाई रात
नाचते तारे  □ प्रवीण कुमार दाश
पावन अनुराग
छिड़ा प्रीति का राग ।  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा
     
   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

              रेंगा  क्र. 79               

0
खिला गुलाब
हिफाजत के लिए
काँटों से साथ □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
है फूलों का ये राजा
अंगरक्षक है साथ  □ चंचला इंचुलकर सोनी

मादक रूप
खुशबू भरे अंग
कंटक संग  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
सुंदरता कमाल
तैनात रक्षापाल  □ चंचला इंचुलकर सोनी

कांटों के संग
महके अंग अंग
गुलाबी रंग  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
कांटों का उपहास
गुलाब हाथों-हाथ  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

रंग गुलाब
प्रीत रीत के संग
उमंग आब  □ प्रवीण कुमार दाश
है अद्भुत शबाब
हँसमुख गुलाब  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

फूल औ कांटे
ये दुःख व सुख के
जीवन भाग  □ रामेश्वर बंग
भले कांटे भी साथ
खिलो सदा बहार  □ कैलाश कल्ला

प्रेम प्रसाद
प्रसंग अल्पकाल
गोरी निहाल  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
प्रिय की है निशानी
प्रीत भरा गुलाब  □ रामेश्वर बंग

उच्च दर्शन
प्रेम का प्रदर्शन
श्रद्धा या श्राद्ध  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
लबों पर गुलाब
मसला रातों रात । ■   गंगा पांडेय "भावुक"
   
   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

रेंगा  क्र. 80              29 मई 2017

0
झौंकों की याद
पतझड़ के पत्तों को
सताती रात  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
बैरी हवा का वार
काँपते रहे गात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

झरते पत्ते
टहनियों से कहें
लो छूटा साथ  □ गंगा पांडेय "भावुक"
नव पर्णों की प्यास
आशा का है उजास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

आता तूफान
अपनों का छूटता
सदा का साथ  □ मधु सिंघी
हो कर पत्ता पत्ता
बिखरे सारे ख्वाब  □ डाॅ. संजीव नाईक

ये पतझड़
लाये नव वसंत
पत्ते अनंत  □ गंगा पांडेय "भावुक"
नाजुक सिहरन
थाम लेते दामन  □ डाॅ. संजीव नाईक

आँधी डराती
डाली कँपकँपाती
पेड़ उदास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
वो टूट के गिरना
बिछुड़ने की याद  □ मधु सिंघी

तेज आँधियाँ
लू के थपेड़े साथ
सूखता गात  □ गंगा पांडेय "भावुक"
हर रात के बाद
होता नया प्रभात  □ रामेश्वर बंग

पुनः निर्माण
नवीनता संचार
बनेगी बात  □ मधु सिंघी
भोर संग मिलेंगे
नव आशा विश्वास । ■ चंचला इंचुलकर सोनी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

 _________________________________

           रेंगा  क्र. 81             

0
दीया व बाती
अंधेरे से लड़ने
बनते साथी  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
तिमिर को दी मात
रोशनी है हराती  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

एकैत्व गीत
बनके मन मीत
निभाते प्रीत  □ किरण मिश्रा
डर रहा अँधेरा
डराते ज्योत-दीप  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

देहरी दीप
रोशन कर देता
घर बाहर  □ देवेन्द्र नारायण दास
दीया लिखे कहानी
कलम रूपी बाती  □ प्रवीण कुमार दाश

मुँह की खाते
अंधेरे अनायास
जीते प्रकाश  □ मधु सिंघी
ज्योति लड़ती रही
हौसला देता दीप  □ प्रवीण कुमार दाश

साथी का साथ
लगते हैं सहज
हर हालात  □ मधु सिंघी
असत्य को हराने
सत्य के बने साथी  □ प्रवीण कुमार दाश

माटी का दीया
मानव भी जले तो
फैले रोशनी  □ देवेन्द्र नारायण दास
आभा सदा मन की
प्राण करे प्रदीप्त ।  ■ डाॅ. संजीव नाईक

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 82              

0
बेबस प्रीत
सिसकते जज्बात
मँझधार में  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
परीक्षा प्रतिपल
है प्रेम अग्निपथ  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

उर की व्यथा
कैसी ये प्रेम कथा
लिख दी तू ने  □ सुधा राठौर
दरकते विश्वास
स्वार्थ हैं दिन-रात  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

प्रेम मूक है
कुछ कहे न सुने
नहीं है भाषा  □ सुधा राठौर
प्रेम एक पहेली
किसी की न सहेली  □ मधु सिंघी

प्रेम गहरा
विश्वास के पथ पे
उतरे खरा  □ सुधा राठौर
प्रेम छलनामयी
होता सिर्फ आभास  □ मधु सिंघी

अनुभूति है
प्रेम की अपनी ही
अभिव्यक्ति है  □ सुधा राठौर
कठिन है परीक्षा
मिलती नहीं दिशा  □ मधु सिंघी

नैया खेवैया
विश्वास-पतवार
तट प्रतीक्षा  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
पिया बैरी ने छला
निकला मनचला ।  ■  सुधा राठौर

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 83              

0
चाँद की व्यथा
सुना क्या पनघट
सहम गया □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
चाँदनी है व्याकुल
नीर पथरा गया  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

अकेला चाँद
सूना है पनघट
करते बातें  □ कैलाश कल्ला
पनघट है प्यासा
न कोई दे दिलासा  □ मधु सिंघी

उदासी छाई
प्रकृति अकुलाई
तट हताश  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
डूब रही चाँदनी
शांत क्षुब्ध प्रेमाग्नि  □ चंद्रकांता सिवाल "चंद्रेश"

स्तब्ध सलिला
नीर भी है बेचैन
खामोश चंदा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
हिय हुआ है दग्ध
देख चाँद हालात  □ मधु सिंघी

एकाकीपन
गुमसुम है मन
कुछ न भाए  □ सुधा राठौर
सारा आलम भीगा
बह गई है पीड़ा  □ डाॅ. संजीव नाईक

कुछ हताश
घबराया सहमा
हुआ उदास  □ शुचिता राठी
क्यों पनघट सूना
चाँद करे सवाल ।  ■ सुधा राठौर

  संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

          रेंगा  क्र. 84            

0
मानव मन
अरी पावस ऋतु
उमड़ जा तू  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
जन जीवन विव्हल
ले के बरखा आ तू  □ सुधा राठौर

बूँदों का राग
नर्तन को आतुर
मेघ मल्हार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
पिक कूक कूक के
पी का संदेश सुना  □ शशि रंजना शर्मा गीत

बरसे आग
दरकी है धरती
दग्ध हृदय  □ सुधा राठौर
धधकती वसुधा
डाल जल समिधा  □ मधु सिंघी

धरा के नैन
बादलों को निहारें
याचक बैन  □ सुधा राठौर
बरस टूट कर
धरा की प्यास बुझा  □ शशि रंजना शर्मा "गीत"

अगन लगी
जलता कण-कण
शीतल कर  □ मधु सिंघी
ये नयन सजल
तरसे प्रतिपल  □ डाॅ. संजीव नाईक

प्यासी है धरा
ओ मतवाले मेघा
आ बरस जा  □ सुधा राठौर
घुमड़ के घिर आ
भीगो मन की धरा ।  ■  शुचिता राठी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

         रेंगा  क्र. 85           

0
नहाता रहा
झील में चाँद, पर
दाग क्या छूटा ? □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
अकड़ कर बैठा
वह धब्बा कलूटा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

चाँद उजला
फिर भी दिखे दाग
पूरनमासी  □ गंगा पांडेय "भावुक"
इसीलिए तो वह
हर अमा को रूठा  □ कैलाश कल्ला

नभ में बैठा
कुशल बुनकर
रंगे चुनरी  □ देवेन्द्र नारायण दास
बुनता ताना बुना
चुप बैठा आकाश  □ प्रवीण कुमार दाश

चाँद की पीड़ा
नभ भी अशांत है
मन है टूटा  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
ना सुनता किसी की
वो तो हठी अनूठा  □ मधु सिंघी

दर्प में चूर
ले चाँदनी का नूर
सजता रहा  □ सुधा राठौर
चाँदनी महबूबा
चाँद प्रेम में डूबा  □ मधु सिंघी

आत्मा का दाग
छूटता ना छुटाए
काहे नहाए  □ सुधा राठौर
चंदा का मन साफ
दूसरे ढूँढें दाग ।  ■ मधु सिंघी

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                       रेंगा  क्र. 86                      
0

लोक संगीत
गीत गाती पत्तियाँ
जगातीं प्रीत □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
टूट के भी डाली से
गुनगुनाएँ गीत  □ मधु सिंघी

बाग बहार
पुलकित संसार
गूँजी झंकार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
सरसराते पर्ण
गाते मिलन गीत  □ दाता राम पुनिया

झुमती डाली
खनकती पत्तियाँ
गुनगुनातीं  □ शुचिता राठी
वन्य निर्झर रीत
गीतों बसे संगीत  □ प्रवीण कुमार दाश

पात या नार
होते कोमल मन
उन्हीं से कला  □ मधु सिंघी
सन्नाटे तार तार
गीतों का अभिसार  □ चंचला इचुलकर सोनी

है मनोहारी
लोक गीतों की कला
रखें सम्भाल  □ मधु सिंघी
लोक धुनों की थाप
भुला देती संताप  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

कला संस्कृति
सजीव लोक गीत
बढ़ती प्रीत  □ मधु सिंघी
पवन गाये गीत
रस रस में प्रीत  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

संस्कृति प्राण
नाचे मन मयूर
प्रकृति गान  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
लोक गीत से मान
महतारी सम्मान । ■ प्रवीण कुमार दाश

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                     रेंगा  क्र. 87                  
0

लिखा माँ नाम
कलम बोल उठी
है चारों धाम  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
खुला द्वार मन्नत
चरणों में जन्नत  □ चंचला इंचुलकर सोनी

माता का प्यार
मिलता जो दुलार
है स्वर्ग द्वार  □ प्रवीण कुमार दाश
ममता की सौगात
लाती है सुप्रभात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

तुझसे मैं हूँ
मुझमें बसी है तू
ये कैसे भूलूँ  □ कैलाश कल्ला
साँसे हैं कर्जदार
रोम रोम आभार  □ चंचला इंचुलकर सोनी

माथे आशीष
सुलभ होते सुख
सब फलित   □ अलका त्रिपाठी "विजय"
समझे जो सपूत
न रोए कोई पूत  □ शुचिता राठी

रोम रोम में
उसी का अहसास
लहू में बसी  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
चरणों में उसके
सारी सृष्टि समायी  □ मधु सिंघी

माँ शब्द नहीं
है एक अनुभूति
जीती जागती  □ डाॅ. संजीव नाईक
बने न कोई शब्द
माँ तुम हो अव्यक्त  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

माँ गंगाजल
माँ मंदिर मस्जिद
माँ महामंत्र  □ डाॅ. संजीव नाईक
माँ का जब दर्शन
होता मन प्रसन्न  □ मधु सिंघी

छू लो चरण
होती सदा बारिश
माँ का आशीष  □ प्रवीण कुमार दाश
चरणों में नमन
सफल हो जीवन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                    रेंगा  क्र. 88                  
0

मुरली सुन
गुन ले तू राधा को
अपनी धुन  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
निश्छलता निपुन
कृष्ण प्रीत शगुन  □ चंचला इंचुलकर सोनी

राधा के प्राण
कृष्ण वंशी की तान
प्रीति महान  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
आत्मा परमात्मा सा
राधा-कृष्ण संज्ञान  □ अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव

कदम्ब नीचे
छेड़े धुन बाँसुरी
राधा बावरी  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
हुलसे मधुवन
सफल हो जनम  □ पुष्पा सिंघी

श्याम की बंसी
बरसाए अमृत
भक्ति का रस  □ डाॅ. संजीव नाईक
बसी हिय राधिका
बजे माधुरी धुन  □ अलका त्रिपाठी विजय

प्रेम साधना
अजर अमर है
दिल की सुन  □ मधु सिंघी
धागे प्रेम के बुन
पुष्प भक्ति के चुन ।  ■ डाॅ. संजीव नाईक

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                  रेंगा  क्र. 89                  
0

दीपक जला
रोशन कर चला
जग समूचा  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
तम अँधेरा हटा
सात्विक दीप जला  □ कैलाश कल्ला

मोम का जिस्म
जले धागा ज़िगर
फैला उजास  □ गंगा पांडेय "भावुक"
सूरज दूत बन
फैला रहा प्रकाश  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

गहरी निशा
लड़ता एक दीप
तेल सहारा  □ प्रवीण कुमार दाश
जले मन का दीया
प्रकाश फैला दिया  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

तिमिर नाश
जगमग उजास
रोशन जहाँ □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
जब तक हो साँस
रहे उजाले के साथ  □ गंगा पांडेय "भावुक"

दीप्ति प्रसार
प्रदीप्त घर द्वार
तम प्रहार  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
रोशनी में नहाया
तम टिक न पाया  □ रमा प्रवीर वर्मा

उदासी हटी
अँधियारा छँटा
हर्षित रात  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
अंधेरों में पलता
एक दीप जलता  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

नन्हां सा दीया
लड़ता तिमिर से
बाती के साथ  □ डाॅ. संजीव नाईक
भानु वंशज जो था
कर्तव्य निभा रहा ।  ■ चंचला इंचुलकर सोनी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                  रेंगा  क्र. 90                   
0

गाता सावन
हो रही बरसात
झूलों की याद  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
महकती मेहँदी
नैन बसा मायका  □ चंचला इंचुलकर सोनी

सजा सावन
रिमझिम बरसे
मन तरसे  □ गंगा पांडेय "भावुक"
चमके बिजलियाँ
इन्द्र से फरियाद  □ कैलाश कल्ला

झूमी प्रकृति
महक उठी हवा
भरा उल्लास  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
पुरवा पुरवेग
मेघ गाते मल्हार  □ दाता राम पुनिया

मन बहका
सखियों संग झूला
सावन मेला  □ नीलम शुक्ला
बजी जलतरंग
अंग अंग थिरका  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

मोर रिझाया
मेंढक है टर्राया
पौधे हर्षित  □ प्रवीण कुमार दाश
छा गई हरितिमा
खिल उठा प्रभात ।  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

     संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

           रेंगा  क्र. 91          
0

झूठ सा लगा
अरसे बाद जब
आईना मिला  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
भीड़ में हुआ गुम
आज खुद से मिला  □ मधु सिंघी

देख चेहरा
अनजाना क्यों लगा
अपना मुख  □ "गंगा पांडेय भावुक"
इन्साँ से इन्साँ मिला
दर्पण खुश हुआ  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

नया सा लगा
अपरिचित जैसा
वो तो मैं न था  □ सुधा राठौर
रुख बदला हुआ
अभिमान से भरा  □ रमा प्रवीर वर्मा

जैसा चेहरा
दिखे हुबहू वैसा
नकाब हटा  □ गंगा पांडेय "भावुक"
उम्र का ये असर
बदला सा चेहरा  □ डाॅ. संजीव नाईक

हटाई धूल
छल धोखा फरेब
चुभे ज्यों शूल  □ किरण मिश्रा
आईने का धर्म है
बोलता नहीं झूठ  □ डाॅ. संजीव नाईक

भ्रम था मेरा
दिखाया रूप सही
सच उसका  □ अलका त्रिपाठी "विजय"
वह कोई और था
दर्प में जो चूर था  □ सुधा राठौर

वक्त के साथ
बदल क्यों जाते हैं
अपने आप  □ मधु सिंघी
नहीं होता विश्वास
रोने लगा अपार ।  ■ विश्वास वर्धन गुप्ता

   संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                    रेंगा  क्र. 92                    
0

नदी जो बढ़ी
बेबस हुए तट
रहे सहमे   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
लालसाएँ लीलतीं
आपसी अनुबंध  □ दाता राम पुनिया

तट निराश
सब जन हताश
प्रभु से आस  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
टूट गई सीमाएँ
किनारे हुए गुम  □ सुधा राठौर

नदी बहती
इतिहास की व्यथा
कहती रही  □ पद्ममुख पण्डा
प्राण को देने गति
धारा हुई अधीर  □ प्रवीण कुमार दाश

खोये संयम
बहकती सी चली
दिशा विहीन  □ सुधा राठौर
तटबंधों को तोड़
वो गई दिशा मोड़  □ मधु सिंघी

उद्दाम वेग
कलकल आवेग
खोया विवेक  □ सुधा राठौर
तोड़ सारे बंधन
चली अपनी चाल  □ रामेश्वर बंग

ओ री तटिनी
चपल निनादिनी
ना हो अधीर  □ सुधा राठौर
मत छोड़ मर्यादा
प्रकृति का प्रकोप  □ डाॅ. संजीव नाईक

धीरज छूटा
लहरों का आवेग
बहा ले गया  □ सुधा राठौर
बेबस तट व्यथा
सरिता बनी कथा ।  ■ प्रवीण कुमार दाश

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                 रेंगा  क्र. 93                
0

स्वार्थी संसार
भव के सागर में
पानी अपार   □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
धीरज की नैया से
उतरना है पार  □ सुधा राठौर

पाप का पाश
जकड़े हरदम
नौका पलटे  □ डाॅ. संजीव नाईक
गहरा है सागर
और मैं मझधार  □ सुधा राठौर

स्वार्थ के लिए
करें हमसे प्यार
लोभी संसार  □ प्रवीण कुमार दाश
सत्कर्म पतवार
वही लगाए पार  □ सुधा राठौर

पाप स्वार्थ है
है पुण्य परमार्थ
समझो सत्य  □ डाॅ. संजीव नाईक
क्षमा का रहे भाव
भक्ति से होंगे पार  □ मधु सिंघी

लोभी मानव
भूला परोपकार
निज उद्धार  □ किरण मिश्रा
पाप बोझ डुबोए
पूण्य लगाए पार  □ अंजुलिका चावला

परोपकार
जीवन की नैया का
खेवनहार  □ सुधा राठौर
सुकर्मों की हो नैया
खुद करना पार ।  ■  मधु सिंघी

   संचालक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                   रेंगा  क्र. 94                   
0

मरु जीवन
मरीचिका आशा में
भटके मन  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
भ्रमित है जीवन
उलझा हुआ मन  □ सुधा राठौर

मन चंचल
दिखता नहीं कल
है बेखबर  □ विश्वास वर्धन गुप्ता
दिखे जल ही जल
होता छल ही छल  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

ढूँढे कस्तूरी
पिंजरा माटी तन
मृगी सा मन  □ किरण मिश्रा
पीर बसी गहन
करना है सहन  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

प्रेम की प्यास
ईश्वर में विश्वास
मन सुहास  □ किरण मिश्रा
भटकता जीवन
अनबूझ ले प्यास  □ अलका त्रिपाठी "विजय"

मन का वेग
योगी साधे न सधे
मन तो भागे  □ गंगा पांडेय "भावुक"
उर में है कस्तूरी
समझ नहीं पाये  □ रामेश्वर बंग

रेत है छली
पानी सी चमकीली
दृष्टि धुँधली  □ सुधा राठौर
प्यास रही अधूरी
अंतस है कस्तूरी  ।  ■ चंचला इंचुलकर सोनी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                   रेंगा  क्र. 95                    
0

माटी की गंध
मनुज ने पा लिया
निज संबंध  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
पंचतत्व निबंध
नश्वरता आबंध  □ चंचला इंचुलकर सोनी

माटी निखारे
मनुजत्व भावना
और बंधुत्व  □ डाॅ. संजीव नाईक
पाँच तत्व का घड़ा
माटी में हुआ अंत  □ कैलाश कल्ला

जीवन भर
रौंदते रहे माटी
बचा जीवन  □ गंगा पांडेय "भावुक"
साँसों में बसी तभी
बंधन ई सुगंध  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

माटी का दिया
है जीवन की ज्योति
इसमें प्राण  □ रामेश्वर बंग
माटी अमूल्य तन
जड़ा धरती रत्न  □ प्रवीण कुमार दाश

माटी में पले
माटी पर ही चले
माटी में गले  □ देवेन्द्र नारायण दास
माटी से ही होता है
मेरा तेरा संबंध  □ विश्वास वर्धन गुप्ता

मिट्टी मानव
संबंध अंतरंग
शुरु से अंत  □ विश्वास वर्धन गुप्ता
देह मृत्तिका लीन
यही सत्य अनंत  □ डाॅ. जितेन्द्र कुमार मिश्रा

कहती माटी 
सताना मत मुझे
मैं तेरा अंश  □ मधु सिंघी
मिट्टी से ही आरंभ
मिट्टी ही तो है अंत ।  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                    रेंगा  क्र. 96                    
0

गाँव का कद
पुराना बरगद
बताता सच  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
पथिकों की चाहत
पंछियों की आमद  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

गाँव के बीच
जमाए वह खड़ा
जटा के पाँव  □ देवेन्द्र नारायण दास
जड़ें हैं मजबूत
अनुभव संभूत  □ चंचला इंचुलकर सोनी

आश्रयदाता
सब सुख दुख में
हिस्सा बँटाता  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
दिन पथिक डेरा
रात पंछी बसेरा  □ मधु सिंघी

देता है नेह
ममतामय साया
धूप से रक्षा  □ रामेश्वर बंग
बतियाते हैं संग
फुर्सत के दो पल  □ मधु सिंघी

नेह की डोरी
बंधी कथास्मृतियाँ
पत्ते बाँचते  □ किरण मिश्रा
सबको देता छाँव
पूजता सारा गाँव  □ मधु सिंघी

युगों से खड़ा
प्रदूषण से लड़ा
धरा से जुड़ा  □ प्रवीण कुमार दाश
झूठ से सदा लड़ा
मसीहा बन खड़ा  ।  ■ डाॅ. अखिलेश शर्मा

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

  रेंगा  क्र. 97 
                
0
थी पगडण्डी
सड़क से क्या जुड़ी
विपदा आई  □  प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
चौपाल हुई सूनी
नौनिहाल शहरी  □ चंचला इंचुलकर सोनी

शोर घर में
विश्रांति अधर में
वृक्षों का नाश  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
गाँव से छूटा साथ
पहचान भी खोई  □ कैलाश कल्ला

दिल मरोड़ा
शहर पीछे पड़ा
गाँव है अड़ा  □ प्रवीण कुमार दाश
साँसों में घुला धुआँ
काँप रहा है कुआँ  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

सड़कें बनी
रास्तों को किया चौड़ा
दिल को छोटा  □ मधु सिंघी
टूटता परिवार
बिखर रहा गाँव  □ रामेश्वर बंग

सड़क लाई
ईर्ष्या संग फरेब
गुम सच्चाई  □ मधु सिंघी
वाहनों की रफ्तार
गाँव को नहीं भाई  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा

गाँव उदास
साहूकार हँसता
बैठा वसूली  □ देवेन्द्र नारायण दास
मन विकास चाह
देखो शहर चली  ।  ■  विश्वास वर्धन गुप्ता

   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                     रेंगा  क्र. 98                    
0
☆ॐ☆
पौधे उगते
ऊँचाइयों की अब
स्वप्न देखते  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
इतिहास रचते
पौधे आकाश छूते  □ प्रवीण कुमार दाश

विनम्र बने
फल-फूलों से लदे
छाँव घनी दे  □ सुधा राठौर
निर्भय अटल से
धूप छाँव में खड़े  □ डाॅ. जितेन्द्र कुमार मिश्र

उर्ध्वगमन
प्रगति का सूचक
रहे अमन  □ मधु सिंघी
आशा नभ मिलन
वयता जड़ तन  □ प्रवीण कुमार दाश

ऊपर उठे
सुगढ़ घने बने
पक्षी चहके  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
संग बढ़े पत्तियाँ
जोश छूएँ आसमाँ  □ कैलाश कल्ला

स्वप्न न टूटें
हवाओं के झोंकों से
पौधे संभालें  □ शेख़ शहज़ाद उस्मानी
पानी खाद जरूरी
पूरी हो कामनाएँ  ।  ■ मधु सिंघी

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

                    रेंगा  क्र. 99                     
0

सुग्गा के गीत
मोह माया से छूटी
नारी की प्रीत  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
राह थी वो अकेली
मोक्ष जुड़ी मंज़िल  □ चंचला इंचुलकर सोनी

माया जीवन
मोह पंख कुतरा
प्रभु दर्शन  □ प्रवीण कुमार दाश
छूटे मोह का बंध
करना है जतन  □ मधु सिंघी

मोह की बेड़ी
बँधे कड़ी से कड़ी
मन से जुड़ी  □ मधु सिंघी
तन की सुधि खोई
रटे तो हर कोई  □ विश्वास वर्धन गुप्ता

आज की नारी
थी पिंजरे का तोते
तोड़ ली कारा  □ गंगा पांडेय "भावुक"
तज के मोह माया
साध्य बनाती काया  □ रामेश्वर बंग

पिंजर तन
थाह न पाया मन
नारी जीवन  □ प्रवीण कुमार दाश
बैरी मन का मीत
रुठ गया संगीत ।  ■  डाॅ. अखिलेश शर्मा

    संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

_________________________________

            रेंगा  क्र. 100            
0

लंबा सफर
टूटती जिन्दगानी
संभल चल  □ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
आशा राह अनेक
नीर क्षीर विवेक  □ चंचला इंचुलकर सोनी

अदृश्य लक्ष्य
जीवन है असत्य
ईश ही सत्य  □ विनय कुमार अवस्थी
बुद्धि विवेक रख
धैर्य से काम कर  □ मधु सिंघी

हौसला रख
जीवनामृत चख
कभी न थक  □ डाॅ. संजीव नाईक
रे मन तू संभल
होगा तू ही सफल  □ गंगा पाण्डेय

कर्तव्य पथ
चल अनवरत
जीत जगत  □ डाॅ. अखिलेश शर्मा
काँटे बिछे इस मग
देख संभल चल □ प्रवीण कुमार दाश

ध्यान जो हटे
लगती है ठोकर
ज़रा संभल  □ शुचिता राठी
पूरी हो हर आशा
श्रम करते चल  □ रामेश्वर बंग

दुर्गम पथ
बढ़ते ही जाएंगे
जीवन रथ  □ देवेन्द्र नारायण दास
मन डोर पकड़
आगे बढ़ता चल ।  ■  किरण मिश्रा
    
   संपादक : प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
_________________________________

 

MOST POPULAR POST IN MONTH