हाइकु कवयित्री
रति चौबे
हाइकु
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मिट्टी का दिया
अंधेरी बस्तियों में
जीवित रहा ।
चाँद सरीखी
घटती जा रही हूँ
हिस्सों में बँटी ।
बिका ईमान
भावनाएं आहत
चरम सीमा ।
मुखौटे ढेरों
अमृत संग विष
घूमें बैखौफ ।
बाज़ार हँसा
हर चीज बिकाऊ है
जेब हो भरी ।
विकल नेत्र
संजीवनी को ढूंढे
मौत मुस्काये ।
हताश जन
मगरूर है मौत
निर्जीव मन ।
शवों को लादे
कांधे हुए वाहन
खोजें निगाहें ।
धरा तो अब
हो गई निपूती सी
अनाथ वृक्ष ।
शब्द मचले
वेदनाएं उमड़ी
मैं उठ बैठी ।
बसंत गया
उपेक्षित कोंपलें
विरहाग्नि में ।
इंतजार में
खोजती बूढ़ी आंखें
गिनती सांसें ।
एक झिड़की
प्यार दुलार भरी
संभल गई ।
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□ रति चौबे
परशुराम वाटिका, नागपुर
(महाराष्ट्र)
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