हाइकु कवयित्री
शर्मिला चौहान
हाइकु
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रौद्र हवाएँ
लपेटने निकलीं
जन जीवन ।
सहमा रवि
ओढ़कर बादल
नैन मींचता ।
बरखा बूँदें
थाप पर मेघों की
नर्तन करें ।
लपक झाँके
चपल दामिनी ज्यों
नवयौवना ।
भाल लकीरें
झट पढ़ लेती माँ
ज्योतिष बड़ी ।
दिन ढ़ला है
किताबें रोशन हैं
माँ के दीप से ।
नई पुस्तक
बचपन में खोली
महकी आज ।
उठता धुआँ
आशाओं की रोटियाँ
नित सेंकती ।
सौत अलसी
चने संग झूमती
जली सरसों ।
गोरैया बुने
नीड़ तिनके जोड़
स्वप्न बेजोड़ ।
शिक्षा किरणें
खपरैलों से झाँकें
बेटियाँ बाँचें ।
धुआं उठता
चूल्हे तो बुझे पड़े
क्या है जलता ?
पंछी सयाने
सूरज घड़ी बाँचें
लौटें नीड़ को ।
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□ शर्मिला चौहान

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