हाइकु कवयित्री
डॉ. सुरंगमा यादव
हाइकु
भावों का रेला
कंपित हैं अधर
बीते न बेला ।
आँख ज्यों खुली
उषा खड़ी थी पास
विहँसी कली ।
पीड़ा का सिन्धु
नैनों में बन मेघ
बरसा खूब ।
जग की लीला
जीवन का अस्तित्व
रेत का टीला ।
बड़ी लकीर
छोटी कर दूँ कैसे!
उलझे सब ।
मन हिरन
उलझनें शिकारी
जाल बिछातीं ।
गिरा जो आँसू
वृक्ष से टूटा पात
न लौटा पास ।
वक्त पे काम
आराम ही आराम
तनाव मुक्ति ।
मन के छाले
मरहम का लेप
फिर भी हरे ।
चन्दा है दूर
सागर मजबूर
करे क्रन्दन ।
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