हाइकुकार
डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव
हाइकु
छाँह जहाँ है
धूप वहाँ होनी है
क्यों निराश रे !
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मरु जीवन
संवेदना विहीन
अजल घन ।
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सृजन मेरा
चुक नहीं सकता
कल्पतरू है ।
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सहती धरा
सहता है आकाश
हम भी सहें ।
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मंथन करो
जीवन है सागर
पा लो अमृत ।
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चाँदनी स्नात
विजन में डोलता
मंद सुवात ।
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सरसों फूले
धरती दिख रही
पीत वसना ।
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