हाइकुकार
सूर्यकरण सोनी "सरोज"
हाइकु
गूँगे की पीर
दिल में चुभ गई
बन के तीर ।
बुरा है दौर
लूट के चल दिये
दिन में चोर ।
दीन-अनाथ
मिले जब पथ में
दे देना साथ ।
है पंचभूत
क्षिति,जल,पावक
नभ-मारुत ।
करे त्राटक
स्वाती बूँद को पाने
पक्षी चातक ।
क्रोध गरल
पीकर ही जीवन
होगा सरल ।
रेत के धोरे
तेज पवन संग
उड़ने दौड़े ।
देसी हकीम
कड़वा है कुनैन
करेला-नीम ।
कीट-पतंग
प्रणय में जलते
दीपक संग ।
ज्ञान का घड़ा
भीतर लिए होता
सागर बड़ा ।
बात निराली
फल लगने पर
झुकती डाली ।
भरने पेट
छोटू ढ़ाबे पे धोता
कप व प्लेट ।
खेतों में खाद
उपज बढ़ी पर
अन्न बेस्वाद ।
कफन श्वेत
चढ़ने से पहले
मनवा चेत ।
क्षत-विक्षत
संदूक में हो गए
प्रेम के खत ।
ताल को पाट
दलालों ने बिछा दी
अपनी खाट ।
सूर्य का रथ
जगती को बताये
मृत्यु का अर्थ ।
सत्य चिरायु
क्षण भर की होती
झूठ की आयु ।
समुद्री द्वीप
बलखाती लहरें
मित्र समीप ।
क्षितिज बिंदु
गगन से मिलता
विशाल सिंधु ।
विशिष्ट ज्ञान
पत्तियाँ विटपों की
है पहचान ।
जीवन गाड़ी
सबको चढ़ना है
ऊँची पहाड़ी ।
दाने की खोज
गिलहरी करती
श्रम से रोज ।
पेड़ बबूल
तन पर लिये है
हज़ारों शूल ।
पत्तियाँ प्यारी
सौंदर्य की रक्षक
घृतकुमारी ।
धान की बाली
भरती कृषक की
झोली व थाली ।
क्षणिक कोप
पल में हो जाता
बुद्धि का लोप ।
सबसे आला
जगती में केवल
प्रेम का प्याला ।
शिक्षा की धूप
मानव को बनाती
देव स्वरूप ।
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