हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

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रविवार, 17 नवंबर 2019

SEDOKA 旋頭歌 सेदोका (गिरि, वन, समुद्र)


SEDOKA  旋頭歌   सेदोका 

सेदोका रचना : 17-नवम्बर 2019

वर्ण क्रम  - 05/07/07/-05/07/07

विषय - गिरि, वन, समुद्र 

उत्कृष्ट रचनाएँ

01.
खोजें विकास
पेड़-पौधे-पहाड़ 
वन-जंगल काट 
स्वार्थ सफर  
मतलब के दास 
तराश रहे राह ।
--00--

□ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

02.
कटते वन
कर रहे क्रंदन
संकट में जीवन
बचाओ वन
सजेगा उपवन
शुद्ध पर्यावरण ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

03.
पर्वत माल 
खड़ी  हैं सीना तान 
झेलती हवा वेग 
हिम का आगार 
वनस्पति प्रकार 
मीठा जल आधार ।
--00--

□ सुशीला जोशी

04.
हमारे वन
बिक रहे हैं आज
लील गया विकास
भूल ही गए
जंगल उपकार
मिट्टी, पानी, बयार ।
--00--

□ शशि मित्तल

05.
ऊंचे पहाड़
टुकड़ों में टूटते
तब्दील होते रहे
गिट्टी रेत में
विकास की योजना
धराशायी रोजाना ।
--00--

□ डाॅ. पुष्पा सिंह "प्रेरणा"

06.
अडिग नग 
गर्वित मानव सा 
मुस्कुराता रहता 
मलाल नहीं  
अपने में मस्त है 
लगता वो व्यस्त है । 
--00--

□ ओम हरित

07.
समुद्री हवा
एक होके बूंदों से
बारिश के तीरों से
बरस रही
मदमस्त गिरि को
धीरे से घिस रही ।
--00--

□ मनीभाई "नवरत्न"

08.
कटते वन
विनाश की झलक
देखती नयी पीढ़ी
सम्भल जाएं
सब वृक्ष बचाएं
स्वस्थ्य जीवन पाएं ।

   --00--

 □ ए.ए.लूका

09.
चंचल मन
भरे ऊंची उड़ान
निहारते गिरि को
छू ले गगन
दृढ़ हो कर मन
रखे यही लगन ।
--00--

10.
सघन वन
भयभीत डालियाँ
मानव का प्रहार
चलती आरी
प्रकृति को बचाएँ 
आओ वृक्ष लगाएँ ।
--00--

11.
दिल दरिया
समुद्र के समान
एक ही अरमान
इच्छाएं पूरी
अधरों पर हँसी
चहुँ ओर हो खुशी ।
--00--

□ मधु गुप्ता "महक"

12.
प्रभु का प्यार
सागर से गहरा
उमड़ता ही जाता
जीवन सोता
जो कभी न सूखता
निरन्तर बहता ।
--00--

□ ए.ए.लूका

13.
उत्तुंग गिरि
अनुपम सौंदर्य
प्राकृतिक सम्पदा
जीवनदायी
सदैव रक्षणीय
सम्मान करणीय ।
--00--

14.
गहन वन
प्राणों के संरक्षक
बनता विनाशक
हृदयहीन
स्वार्थ हित मानव
काटने लगा वन ।
--00--

15.
रत्न प्रदाता
अकूत सम्पत्ति का
अनुपम भंडार
देता जीविका
करता यह सिंधु
भोजन की आपूर्ति ।
 --00--

16.
सागर तल
जल जीव आगार
जलमय संसार
यात्रा का पथ
थका सूर्य का रथ
कर लेता विश्राम ।
--00--

□ डॉ. रंजना वर्मा

17.
स्वार्थ के कर्म 
हो रहें है निर्धन 
गिरि, सागर,वन 
दिखें न खग 
डूबे प्रदूषण में  
तैरते झूठे स्वप्न  ।
--00--

18.
सम्पदा भरी 
वन,गिरि की गोद 
सभ्यताएं थीं पली 
कृतघ्न मनु 
प्रकृति है कुपित 
सागर भी दूषित ।
--00--

□ ऋतुराज दवे

19.
क्षीरसागर
विष्णुजी का निवास
लक्ष्मी संग विराजे
शेषनाग है
लक्ष्मी विष्णु बिछौना
हर समय  साथ ।
--00--

20.
पर्वतराज
हिमालय है दु:खी
अपनी व्यथा पर
कूड़ा-कचरा
फैकते मानव जो
कूड़े का ढेर बना ।
--00--

21.
कटते वन
बढ़ता प्रदूषण
दम लगा घुटने
बचाना होगा
वनो को विनाश से
वरना धरा नष्ट ।
--00--

□ संजय डागा

22.
वन-महत्व
जीवन का आधार
कितना है लाचार
स्वार्थी मनुष्य
करता है दोहन
आपदा-आमंत्रण ।
--00--

23.
सघन वन
बड़े परोपकारी
लाते बारिश प्यारी
सभ्यता पली
आदिम मानवों की
आज क्यूँ है विलुप्त?
--00--

24.
काला पहाड़
मानवाकांक्षाओं-सा
करता है प्रेरित
सृजन हेतु
किनारे में इसके
संस्कृति है जीवित ।
--00--

25.
मन-समुद्र
आकाश-सा विशाल
उमंग की लहरें
सेदोका खिले
समुद्री पौधे जैसा
अप्रतिम रचना ।
--00--

□ अयाज़ ख़ान

26.
समुद्र  शीशा 
परछाई  देखते
ऊँचे पर्वत,  वन 
मंजुल  दृश्य 
ब्रह्म रूप साकार 
खूबसूरत  संसार ।
--00--

□ चंचला इंचुलकर सोनी

27.
शब्दों के मोती
कल्पना सागर से
चुनकर जो लाये
गीत सजाये
भावना की लहरें
दुनिया को दिखाएँ ।
--00--

28.
चाँद का रुप
सौंदर्य अपरुप
गगन से निहारे
हँसी चाँदनी
झिलमिलाते तारे
सागर दर्पण में ।
--00--

29.
वन वैभव
प्राकृतिक संपदा
नष्ट होते जा रहे
विपदा भारी
बनी है महामारी
बढ़ती जनसंख्या ।
--00--

□ पूर्णिमा साह

30.
ये नग्न गिरि
कटते हुए वन
समुद्र का विस्तार
आशंका यही
कलयुग पसारे
अब अपने पैर ।
--00--

□ अविनाश बागड़े

31.
प्रकृति गोद
समुद्र की लहरें
बलखाती हिलोरें
हो प्रफुल्लित
चंचल हवा चली
सांझ किरण ढली ।
--00--

□ सुशीला साहू "शीला"

32.
उत्तुंग गिरि
खड़े हैं सीना तान
मानव है नादान
काटे पहाड़
धरती पे भूचाल
नतीजे से अंजान ।
--00--

□ शशि मित्तल

33.

नदी की धार
देश की तरुणाई 
चल पड़ी जिधर
ऊँचे पर्वत 
बनाते स्वयं पथ
देख बढ़ते पग ।
--00--

34.
पीर पर्वत 
लांघते-लांघते यूँ
क्लान्त मत हो मन
प्रीत निर्झर
मिलेंगे यहीं पर 
तनिक धीर धर  ।
--00--

35.
जीवन क्या है!
सागर तट पर
लहरों का नर्तन
चलता क्रम 
उसके संकेतों से
होता आवागमन ।
--00--

□ सुरंगमा यादव

36.
वृक्षारोपण 
वनों का संरक्षण 
शुद्ध पर्यावरण 
नित नवीन 
देते ये प्राणवायु 
जीवन हो दीर्घायु ।
--00--

□ अरूणा साहू

37.
देश की शान
बर्फ से ढका गिरि
भारत का रक्षक
अमरनाथ
पवित्र तीर्थस्थल
हिमालय अचल ।
--00--

□ सविता बरई "वीणा"

38.
समुद्र तट
सौंदर्य था निराला
फिर भी प्यासा मन
धैर्य पूर्वक
पीया अमृत प्याला 
किया आत्म चिंतन ।
--00--

□ जाविद अली

39.
पर्याय वन
अरण्य व गहन
कान्तार व कानन
अख्य-समुद्र
विपिन व जंगल
ध्येय जीव मंगल ।
--00--

40.
वन पर्याप्त
शनैः शनैः समाप्त
वायु कैसे हो प्राप्त
जीवन हेतु
जल-वायु आधार
सभी का सरोकार ।
--00--

41.
स्वार्थ-ग्रसित
इंसान की प्रवृत्ति
जीव-जंतु त्रसित
जीवन हेतु
वन अपरिहार्य
संरक्षण हो कार्य ।
--00--

42.
वन-विनाश- 
विषय चिंतनीय,
बने न दयनीय. 
आत्मविश्वास
सतत हो प्रयास
नैसर्गिक विकास ।
--00--

43.
कैसी बाध्यता ?
अरण्य विलुप्तता
क्या यही है सभ्यता ?
भूखे व प्यासे
जंगली जानवर
भटकें दर-दर ।
--00--

44.
जंगल नष्ट
हर तरफ आग
बुझ रहा चिराग
जीवन हेतु
विकास नाम पर
वन न नाश कर ।
--00--

45.
राजा सगर 
नाम पर सागर
जलचर-निर्भर
चन्द्र-मुस्कान
समुद्र में उफान
प्रसन्न आसमान ।
--00--

46.
सिन्धु-पर्याय
सागर व जलधि
रत्नाकर-उदधि
संग वारिधि
नदीश-नीरनिधि
पारावार-पयोधि ।
--00--

47.
दैत्य-असुर
विवेकहीन क्रुद्ध
उतारू हुए युद्ध 
अमृतपान
विषय था प्रधान
जरूरी था निदान ।
--00--

48.
दुर्वासा श्राप
देवता शक्तिहीन
विष्णु शरण दीन
मुक्ति-उपाय
एक मात्र जतन
समुद्र का मंथन ।
--00--

49.
देव को प्राप्त
विष्णु-महेश ज्ञान
करो अमृतपान
चमत्कारिणी
कामधेनु निकली
देवों ने सहर्ष ली ।
--00--

50.
सिन्धु-मंथन
हलाहल निकला
शिव जी ने निगला
विषपान से
महादेव शंकर
नीलकंठ ईश्वर ।
--00--

51.
सिन्धु में नदी
पूर्णतः समाहित
प्रेम अन्तर्निहित
जमी-आकाश
समुद्र-चन्द्र प्यार
सीख जीव संसार ।
--00--

52.
वाष्पोत्सर्जन
सिन्धु करे सृजन
बारिश की फुहार
हर्षित जमी
धानी कर श्रृगार
व्यक्त करे आभार ।
--00--

□ विनय कुमार अवस्थी

53.
प्रभु का प्यार
सागर से गहरा
उमड़ता ही जाता
जीवन सोता
जो कभी न सूखता
निरन्तर बहता ।
--00--

□ ए.ए.लूका

54.
सागर तट
आती जाती लहरें
मछली घोंघे सीप
जीवन पले
सामुद्रिक कचरा
बढ़ाये विषाक्तता ।
--00--

□ गंगा प्रसाद पांडेय "भावुक"

55.
हे रत्नाकर
गर्भ में है असंख्य
अनमोल मोतियां
अभिमानी हो
नदी सा मीठा जल
नहीं पास तुम्हारे ।
--00--

□ डॉ. पुष्पा सिंह "प्रेरणा"

56.
मरुस्थली सी
दरकती धरती
तपके कंचन सी
कटते वन
कहते हैं कहानी
मानव मनमानी ।
--00--

□ मंजू सरावग "मंजरी"

57.
जल उष्णीष
अख्य रम्य जीवन
अण्डज थांग मन
अर्णव तोय
उग्र कल्लोल डर
भय मुक्त भास्कर ।
--00--

□ राकेश चतुर्वेदी

58.
उदास गिरि
बिन तरुवर के
सूखे जल झरना
खोया सौंदर्य
अंधा हुआ मानव
सुकून अब कहाँ ।
--00--

□ साधना कृष्ण

59.
पर्याय गिरि
अचल, भूमिधर
पहाड़ व शिखर
तुंग-पर्वत
भूभृत महीधर
कूट-धरणीधर ।
--00--

60.
गिरि उच्चता
समाहित दृढ़ता
पर्वत श्रृंखलाएं
अद्भुत दृश्य
बर्फ से आच्छादित
मन हो आनन्दित ।
--00--

61.
पर्वत स्त्रोत
गंगा-अवतरण
यमुना उत्सर्जन
जीवन आस
भागीरथ प्रयास
मिटा जग संत्रास ।
--00--

62.
उच्च-शिखर
बर्फ के ग्लेशियर
क्यों पोलरबियर
लुप्तप्राय से
गिरि अतिक्रमण
वन्यजीव क्षरण ।
--00--

63.
सघन-वन
प्राप्त करें विस्तार
फल-फूल अपार
सर्वत्र झाड़
दरकते पहाड़
लुप्त सिंह दहाड़ ।
--00--


□ विनय कुमार अवस्थी

64.
प्रचण्ड गर्मी
सहता गिरिराज
पहन हिमताज
रक्षक वह
है हमारे देश का
हमको तो है नाज़ ।
--00--

65.
वृक्षारोपण
एक अभिवादन
जो बना देता  वन
पर्यावरण 
सुरक्षित रखने
खुश हो जाता मन ।
--00--

66.
नाप सकते
मन की गहराई
काश संभव होता
समुद्र में भी
हो फसल उगाई
ग़रीबी की विदाई ।
--00--

□ पद्म मुख पंडा

67.
समुद्र जल
रखे समेट कर 
कोरल संपदाएँ
विविध रंग
मीन और शैवाल
अजूबों का संसार ।
--00--

68.
कैलाश गिरि
पवित्र है जगह
सबका यह तीर्थ
शिव निवास
आदिनाथ का वास
देखकर उल्लास ।
--00--

69.
वन्य जीवन
होता  नहीं आसान
अस्तित्व का प्रयास
जद्दोजहद
भोजन की खोज में
है जान हथेली में ।
--00--


□ मधु सिंघी

70.
असंख्य जीव
पालता वन सदा
आश्रित देव मनु
उपेक्षा दंश
कराहता लाचार
है मौत के कगार ।
--00--

71.
खड़ा अटल
आसमान ताकते
झेलते विभीषिका
मौन सेवक 
गिरिधर के प्यारे
गिरिराज हमारे ।
--00--

72.
नील सागर
अथाह जलराशि
अद्भुत है संसार
विशाल हृद
लहरों पर नाचे
विष्णु पग पखार ।
--00--


□ रंजन कुमार सोनी

73.
सागर जल
लहरों संग फिर 
गुनगुनाते गीत 
मनभावन 
ये जीवन संगीत 
मन हो पुलकित ।
--00--

□ वृंदा पंचभाई

74.
सृष्टि सौन्दर्य
चिर प्रकृति हास
वसुधा के आंचल
श्वेत चादर
अनुपम अनूठी
गिरि आंचल शांत ।
--00--

□ देवेन्द्र नारायण दास

75.
खुले तन पे
मौसमी अचकन
झरने बरसाती। 
जीवन देते
मोड़े हवा का रुख
रोके गिरि की छाती ।
--00--

76.
ऐ दावानल 
     खौफ सदा चिंगारी     
जंगल न जलाओ
वन विलुप्त
पेड़ हो रहे ठूठे
वनचरी बचाओ ।
--00--

77.
सागर थाती
करें फिर मंथन 
मिल जाए संस्कार
निकल आये
अपने छूटे रिश्ते 
अपनापन प्यार ।
--00-- 


□ श्रवण चोरनेले 'श्रवण'

78.
जग जीवन
सागर  की लहरें
उठतीं व गिरतीं
उन्मादग्रस्त
श्वेत फेन बनातीं
नीली काया सुन्दर ।
--00--


□ स्वाति गुप्ता "नीरव"
••••ॐ••••

प्रस्तुति 

प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

संपादक : सेदोका की सुगंध 

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