हाइकु कवयित्री
साधना कृष्ण
हाइकु
--0--
सावन आया
विहँसे भू पहन
हरा वसन ।
उदास पाखी
तलाश रही पानी
सुखी नदियाँ ।
जीवन गति
मौन अनवरत
करती काम ।
सपने मेरे
शीश महल सम
टूटे बिखरे ।
गीतिका गंध
मदहोश अंतस
भावाविभोर ।
नेह का धन
बेसुमार पास जो
कैसी गरीबी ।
बहती नदी
बस यही कहती
चलते रहो ।
उफनी नदी
कहती रही सदा
धीर रे मन ।
सूखी नदियाँ
जल में प्यासी
भोगती सजा ।
पड़ते रज
बोल उठा पाषाण
ताड़े मुझको ।
सोचे पाषाण
कलकल नदियाँ
प्यास बुझाती ।
ख्वाहिश बुने
परिंदे बैठ अपने
सुघर नीड़ ।
नन्ही चिड़िया
उडती गगन में
सोती घोंसला ।
नयन करे
बेहद मनमानी
हो बदनामी ।
रीत पुरानी
रखना बचा कर
आँखों का पानी ।
बाली धान की
खेतों में खुशहाली
हुलसे मन ।
मंद पवन
बहे चहुँ ओर ही
कम्पित तन ।
उतरी प्राची
बिखरी चहुँ ओर
स्वर्णकिरण ।
□ साधना कृष्ण
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें