हाइकु कवयित्री
डॉ. सुरंगमा यादव
हाइकु
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प्रेम की थाप
ढल गया आकार
कच्ची थी माटी ।
माटी है एक
एक ही कुम्भकार
नाना आकार ।
एक ही ज्योति
हर घट भीतर
कैसा अंतर !
प्रभु ने दिये
हमें प्राणों के दिये
जोत जगायें ।
निज को सार
और को माने थोथा
ऐसा क्यों होता ?
अपनी पारी
सुख-दुःख खेलते
आ बारी-बारी ।
तेल न बाती
निज दीपक बन
जलो संघाती ।
मिलीं खुशियाँ
सात्त्विक विचारों से
मिटी भ्रांतियाँ ।
कहे प्रकृति
'स्व'और 'पर' पर
हो समदृष्टि ।
प्रेम बढ़ाती
मन में निश्छलता
जब है आती ।
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□ सुरंगमा यादव
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