हाइकुकार
डॉ. भगवत शरण अग्रवाल
हाइकु
कुछ देते ही
पत्थर खा कर भी
वृक्ष देवता ।
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तोड़ते क्यों हो ?
शीशा तो जो देखेगा
वही कहेगा ।
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सत्य ने छला !
झूठ ने छला होता -
दुख न होता ।
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कहानी मेरी !
लिखी किसी और ने -
जीनी मुझे है !
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बूँद में समा
सागर और सूर्य
हवा ले उड़ी ।
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काश ! दे पाता
मनुष्य को आकाश
ईश को धरा ।
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तुम्हारे बिना
दीवारें थीं, छत थी
घर कहाँ था ?
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टूटे अक्षर
गहराये सन्नाटे
काँपते हाथ ।
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ख़ामोशियों में
पिघल गई रात
बूढ़ाये स्वप्न ।
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मर जाऊँगा ?
यकीन नहीं होता !
फिर क्या होगा ?
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□ डॉ. भगवत शरण अग्रवाल
396, सरस्वती नगर, अहमदाबाद
(गुजरात)
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