हाइकुकार
नरेंद्र श्रीवास्तव
हाइकु
सावन मेघ
जल कलश लिये
पावस पर्व ।
पावस पर्व
बूँदों की मालाओं से
धरा श्रृंगार ।
प्यासी धरती
बरखा की बूँदों में
घड़ा का पानी ।
काली घटायें
बूँदों को विदा देने
नभ पे आयीं ।
बरखा बूँदें
आकाश से बिछड़ीं
धरा में खोयीं ।
मेघ ने भेजी
सावन सगुन की
बूँदों की बिंदी ।
मेघ की पाती
बूँद बूँद अक्षर
धरा ने छुये ।
मेघ ने भेजे
वर्षा बूँद सुमन
धरा महके ।
पावस पर्व
मेघ समूह करें
जल तर्पण ।
मेघ से आया
वर्षा केसर जल
धरा ने पिया ।
बरखा बूँदें
शीशे के मन्दिर में
तस्वीर तेरी ।
बरखा बूँदें
गुनगुनाती रहीं
विरहा गीत ।
दिन पहाड़
थक के सोयी रात
स्वप्न देखती ।
रोटी की आस
पसीने की बूँदों से
तर दिवस ।
महके पल
यत्र, तत्र, सर्वत्र
जीवन पुष्प ।
भोर से आस
साँझ से शिकायत
यही ज़िन्दगी ।
सूर्य किरणें
अँधेरा तलाशतीं
लौटी निराश ।
गाँव-शहर
ज़िन्दगी की कविता
लिखे पहर ।
दिन और रात
उम्र चढ़ती चले
जीवन सीढ़ी ।
खुशी मिली तो
आँसू झट आ गये
यादें लेकर ।
आँसू भरे थे
नयनों के डिब्बे में
छूते ही गिरे ।
उसने कहा
ज़िन्दगी रंगमंच
गलत नहीं ।
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