हाइकु कवयित्री
अंजु गुप्ता
हाइकु
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हैरान धरा
उगाई थीं फसलें
मकान उगा !
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प्रकृति सम
आधुनिक मानव
बदले रंग ।
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लकीरें मेरी
हैं विधाता ने लिखीं
बदलूंगी मैं !
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नन्ही वो कली
शायद ही मुस्काये
थी रौंदी गयी !
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छायी बदरी
व्याकुल फिर मन
गीला तकिया !
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जर्जर काया
इच्छाएँ खंडहर
जीने को मरे ।
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मन का लावा
ज्वालामुखी के सम
फट ही गया !
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क्रोधित घन
बिजरी भी गरजी
प्रलय आया !
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