हाइकुकार
लक्ष्मीकांत मुकुल
हाइकु
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उड़े हैं धूल
भेड़ें औे ' गड़ेरिए
चले हैं साथ ।
लहराया है
तीसी - फूलों - सा तेरा
नीला आंचल ।
बेर तोड़ते
फंसी साड़ी कांटों में
खट्टा - सा मन ।
आती है याद
नदी - तट - पोखर
तुम थी साथ ।
माघ - तुषार
भीगीं आंखें यादों की
प्रिया - बिछोह ।
आया वसंत
नहीं कूकी कोयल
अंतर्मन में ।
शहर आते
खोयी पगडंडी - सी
गांव की यादें ।
आतुर बालें
निकली हैं खेतों में
ढका सिवान ।
बीत चुका है
समय धुंधलका
उगी है लाली ।
कोयल कूकी
नहीं टूटा सन्नाटा
मन माटी का ।
उगा पहाड़
खेतों के आँगन में
पाथर-टीला ।
नदी बीच में
पूरा गाँव-गिराँव
रेत किनारे ।
किसे ढूंढती
फुदकती चिड़़िया
बांस-वनों में ।
फुदकते हैं
खरहे की तरह
मेरे सपने ।
शिरीष-फल
बजा रहे खंजडी
बीते युग की ।
उड़ चले हैं
छोर से पंक्तिबद्ध
बकुल-झुंड ।
डाक पत्र में
नहीं अटा जीवन
मेरी व्यथा का ।
उड़े रूमाल
सहेजा जो सालों से
किनके नाम ?
बिदक गई
सब दुनिया सारी
पोत डूबते ।
--00--
□ लक्ष्मीकांत मुकुल
ग्राम – मैरा, पोस्ट – सैसड,
भाया – धनसोई , बक्सर,
(बिहार) – 802117
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