हाइकु कवयित्री
शर्मिला चौहान
हाइकु
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मेघ बरसे
भीगी धरा गमके
प्रेम महके ।
बरसे पानी
नवांकुर फूटते
चूनर धानी ।
पेड़ लगाएँ
पाले सींचे बढ़ाएँ
धरा बचाएँ ।
जीवन भर
देते वायु भोजन
ऋणी है जन ।
जिंदगी चली
लेकर कई बलि
कमियां खली ।
वर्ष बीतेंगे
अपनों से दूरियां
दिल रीतेंगे ।
दुनिया सारी
मृगतृष्णा सी ढूंढे
राह निराली ।
मन की प्यास
दिन गिना करता
शुभ की आस ।
परीक्षा घड़ी
जिंदगी सहमी सी
व्यथित खड़ी ।
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□ शर्मिला चौहान
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