हाइकु मञ्जूषा (समसामयिक हाइकु संचयनिका)

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शनिवार, 30 जनवरी 2021

भारतीय हिन्दी काव्य साहित्य की श्रीवृद्धि में प्रतिष्ठित जापानी काव्य शैलियाँ

 भारतीय हिन्दी काव्य साहित्य की श्रीवृद्धि में प्रतिष्ठित जापानी काव्य शैलियाँ


          आठवीं शताब्दी में जापान के इतिहास में "नारा युग के नाम से अभिहित "मान्योशू" काल में ताँका (वाका), सेदोका और चोका तीन काव्य शैलियां प्रसिद्ध हुईं । इसके उपरांत हाइकु, सेन्रियु, रेंगा (श्रृंखलित पद्य), हाइगा, कतौता एवं अन्य कई काव्य शैलियां जापानी साहित्य में प्रचलित हुईं । गद्य/पद्य के मिश्रित रूप "हाइबुन" की शैली यात्रा साहित्य के रूप में प्रचलित रही । इन सभी शैलियों में 5-7 वर्ण पंक्तियों की प्रमुखता देखी जा सकती है । इन शैलियों में "हाइकु" अत्यधिक प्रचलित काव्य शैली के रूप में प्रसिद्ध है । जापान की ये बहुचर्चित काव्य शैलियाँ भारतीय साहित्य में भी विशेष चर्चित व प्रतिष्ठित हैं । इन काव्य शैलियों का प्रारंभिक परिचय देखते हैं -


हाइकु

           हाइकु मूलतः जापान का एक काव्य रूप है, 15 वीं शताब्दी में रेंगा की प्रारंभिक तीन पंक्ति "होक्कु" के बंधन से मुक्ति पाकर स्वतंत्र कविता "हाइकु" के नये नाम से विकसित हुआ । 17 वीं शताब्दी में बाशो द्वारा "हाइकु" को एक काव्य विधा के रूप में नई प्रतिष्ठा प्राप्त हुई । बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी के सौजन्य से भारतीय साहित्यकारों को हाइकु का प्रारंभिक परिचय प्राप्त हुआ । वर्ष 1985 में प्रकाशित "शाश्वत क्षितिज" हिन्दी का प्रथम हाइकु संग्रह है । "हाइकु" एक ऐसी संपूर्ण लघु कविता है जो पाठक के मर्म मस्तिष्क को तीक्ष्णता से स्पष्ट करते हुए झकझोरने की सामर्थ्य रखता है । विश्व की सबसे छोटी और चर्चित विधा "हाइकु" भारत में 5-7-5 वर्णक्रम की त्रिपदी लघु कविता है जिसमें बिम्ब और प्रतीक चयन ताजे होते हैं । एक विशिष्ट भाव के आश्रय में जुड़ी हुई इसकी तीनों पंक्तियां स्वतंत्र रहते हुए भी एक अन्य आश्रित पंक्तियों के बिना अधूरी होती हैं । प्रकृति के साथ जीवन के सौंदर्य बोध से जुड़े जो सहज हाइकु काल सापेक्ष में पाठक के मर्म को स्पर्श करने में समर्थ होते हैं वही कालजयी हाइकु होते हैं । "हाइकु" में एक पूरी कविता का एहसास महत्वपूर्ण होता है ।


सेन्रियु

          सेन्रियु शिल्प की दृष्टि से हाइकु के समान लघु कविता का एक जापानी रूप है । रेंगा काल में "हाइकु" के वजन का "हाइकाई" शब्द हास्य व्यंग की रचनाओं के लिए प्रयुक्त हुआ, ठीक इसी तरह "हाइकु" के वजन का "सेन्रियु" शब्द प्रयुक्त हुआ । हाइकु "हाइकु" है और सेन्रियु "प्रतिहाइकु" है । सेन्रियु में धर्म, मनुष्य की दुर्बलता है, अंधविश्वास है । सेन्रियु  हल्के फुल्के व गहरे हास्य के होते हैं जबकि हाइकु गंभीर होते हैं । सेन्रियु  में हाइकु के विपरीत कीगो या किरेजि शब्द नहीं होते । हाइकु और सेन्रियु में केवल कलेवर की साम्यता है शेष सर्वथा अलग । सेन्रियु शुद्ध जैविक धरातल पर यथार्थ जगत से विषय चुनता है । इसमें मनुष्य के दुर्बल क्षणों पर व्यंग के छींटे होते हैं, सेन्रियु के मूल में मनुष्य है, प्रकृति नहीं । शिल्प की दृष्टि से हाइकु व सेन्रियु दोनों समान हैं परंतु मूल संवेदना की दृष्टि से दोनों पृथक-पृथक हैं । वर्ष 2003 में हिंदी का प्रथम सेन्रियु संग्रह "रूढ़ियों का आकाश" प्रकाशित हुआ है ।


ताँका

          ताँका (वाका) जापान का बहुत ही प्राचीन काव्य रूप है । यह क्रमशः 5-7-5-7-7 के वर्णानुशासन में रची गई पंचपदी रचना है, जिसमें कुल 31 वर्ण होते हैं । इसमें व्यतिक्रम स्वीकार नहीं है । हाइकु विधा के परिवार की इस "ताँका" रचना को "वाका" भी कहा जाता है ताँका का शाब्दिक अर्थ लघुगीत माना गया है । ताँका शैली से ही 5-7-5 वर्णक्रम के "हाइकु" स्वरूप का विन्यास स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त किया है । वास्तविकता यह है कि "ताँका" हाइकु की भांति अतुकांत वर्णिक कविता है । लय इसमें अनिवार्य नहीं, परंतु यदि हो तो काव्यात्मक सौंदर्य बढ़ जाता है । एक महत्वपूर्ण भाव पर आश्रित ताँका  की प्रत्येक पंक्तियां स्वतंत्र होती हैं । शैल्पिक वैशिष्ट्य के दायरे में ही रचनाकार के द्वारा रचित कथ्य की सहजता, अभिव्यक्ति क्षमता व काव्यात्मकता से परिपूर्ण रचना श्रेष्ठ ताँका कहलाती है । हिंदी का प्रथम एकल ताँका संग्रह "अश्रु नहायी हँसी" वर्ष 2009 में आया ।


चोका

        चोका जापानी कविता की एक बहुचर्चित काव्य शैली है । चोका में  न्यूनतम 09 पंक्तियाँ आवश्यक हैं, इस कविता की अधिकतम लंबाई रचनाकार के ऊपर निर्भर है । इस शैली की पंक्तियों में 5 व 7 वर्णों की आवृत्ति होती है । अंतिम पांच पंक्तियों में 5-7-5-7-7 वर्ण की एक ताँका रचना का क्रम व्यवस्थित होता है । चोका मूलतः गायन किया जाता है एवं ऊँचे स्वरों में इसका वाचन भी किया जाता है । वर्ष 2011 में हिंदी का प्रथम चोका संग्रह "ओक भर किरनें" प्रकाशित हुआ है ।


सेदोका

         सेदोका 5-7-7-5-7-7 वर्णक्रम की षट्पदी छः चरणीय एक प्राचीन जापानी काव्य विधा है । इसमें कुल 38 वर्ण होते हैं, व्यतिक्रम स्वीकार नहीं है । इस काव्य के कथ्य कवि की संवेदना से जुड़ कर भाव प्रवलता के साथ प्रस्तुत होने वाली एक प्रसिद्ध काव्य विधा है । सेदोका में निर्दिष्ट भाव से आश्रित पंक्तियाँ "हाइकु" की तरह स्वतंत्र होना एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है । दो कतौते से एक सेदोका पूर्ण होता है । सेदोका भी हाइकु विधा के परिवार की ही एक काव्य शैली है । वर्ष - 2012 में प्रकाशित "बुलाता है कदंब" हिंदी का प्रथम सेदोका संग्रह है ।


रेंगा

          हिंदी हाइकुकारों के लिए यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि "हाइकु" रेंगा की प्रारंभिक तीन पंक्तियां हैं । हेइयान युग में काव्य रचना अभिजात्य वर्ग की सांस्कृतिक अभिरुचि का विषय था । दो अथवा दो से अधिक रचनाकार मिल कर काव्य की रचना करने लगे जिससे रेंगा (श्रृंखलित पद्य) की परंपरा का विकास हुआ । इसमें एक व्यक्ति 5-7-5 वर्णक्रम की प्रथम तीन पंक्तियों की रचना करता है, जिसे "होक्कु" कहते हैं । दूसरा रचनाकार 7-7 वर्ण क्रम की दो पंक्तियां जोड़ कर उसे पूरा करता है । इस 31 वर्ण के ताँका शिल्प की कविता मे अब तीसरा व्यक्ति दूसरे की रची हुई दो पंक्तियों को कविता का पूर्वांश मान कर 5-7-5 वर्णों की अगली कड़ी जोड़ता है,  जिसका पूर्व कड़ी से कोई संबंध होना आवश्यक नहीं है । यह श्रृंखला आगे बढ़ाई जाती है एवं एक स्थान पर इस काव्य श्रृंखला को पूर्णता प्रदान की जाती है । श्रृंखलित पद्य के इस पूर्ण  रूप को "रेंगा" कहा जाता है । वर्ष - 2017 में 66 कवियों द्वारा हिंदी भाषा में रचित "कस्तूरी की तलाश" विश्व के प्रथम रेंगा संग्रह के रूप में प्रकाशित हुआ है । 

         जापानी कवि किकाकु रेंगा की प्रथम तीन पंक्तियाँ 'होक्कु' को वृक्ष के तने के समान, द्वितीयांश को शाखाओं के समान, तृतीयांश को धरती के समान तथा नई-नई कड़ियां जोड़ते चले जाना कोंपलों के समान माना है ।


हाइगा

      जापानी लिपि चित्रात्मक होती है, जिसे कांजी कहते हैं । वहाँ सुलेख (कैलीग्रैफी) को विशेष ध्यान दिया जाता है । जापान में काली स्याही की चित्रांकन कला को "सुमिए" कहते हैं । 17 वीं शताब्दी के प्रारंभ में सुमिए के साथ हाइकु का संयोग निखरा, जिसे "हाइगा" कहा जाने लगा । "हाइकु" में "कु" का अर्थ कविता और "हाइगा" में "गा" का अर्थ चित्र है । इस प्रकार "हाइकु" कविता चित्र के साथ व्यंजित होना हाइगा कहलाता है । "हाइगा" में चित्रांकन, रचना सृजन और हस्तलिपि तीनों महत्वपूर्ण हैं, चित्र कैलीग्रैफी एवं हाइकु तीनों का संगम हाइगा कहलाता है । हाइगा का रेखाचित्र कलात्मक होना आवश्यक नहीं, वरन भावों को चित्रित करने में समर्थ होना आवश्यक है । हाइगा का शाब्दिक अर्थ है "चित्रकाव्य" । जापान में चित्र के समायोजन से वर्णित हाइकु को हाइगा कहा गया है । इस प्रकार "हाइगा" हाइकु का उसके भावार्थ के साथ सामंजस्य पूर्ण चित्र पर प्रदर्शित रूप होता है । भारत में वर्ष 2016 में प्रकाशित "हाइगा आनंदिका" हिंदी का प्रथम हाइगा संग्रह है ।


कतौता

          कतौता 5-7-7 वर्णक्रम की एक त्रिपदी जापानी काव्य रूप है, जिसमें कुल 19 अक्षर होते हैं । एक एकल कतौता रचना वास्तव में आधी-अधूरी कविता के रूप में रची जाती है, परंतु इस विधा में स्वतंत्रता कतौता के रूप में लेखन का प्रयोग हिंदी में किया जा चुका है । जनवरी 2021 में हिंदी भाषा में प्रकाशित भावों की कतरन हिंदी में ही नहीं वल्कि विश्व के प्रथम कतौता संग्रह के रूप में प्रकाशित हुआ है । कतौता 5-7-7 वर्ण क्रम शिल्प की तीन पंक्तियों में निबद्ध, निर्दिष्ट भाव से आश्रित अपने आप में मुकम्मल रूप से स्वतंत्र और पूर्ण रचना है । जापान में इस विधा का उपयोग प्रेमी को संबोधित कविताओं के लिए किया गया था ।


हाइबुन

          हाइबुन एक गद्य कविता है, इसके गद्य में पद्य के पुट रहते हैं । इसे यात्रा विवरण के रुप में लिखा जाता है । यात्रा संदर्भ में बाशो का कथन है कि - "हर दिन एक यात्रा है, और यात्रा ही घर है ।" हाइबुन का "गद्य" हाइकु का स्पष्टीकरण नहीं होता और इसमें उल्लेखित हाइकु गद्य की निरंतरता भी नहीं है । गद्य पाठ में प्रत्येक शब्द की गिनती गद्य कविता की तरह होनी चाहिए । स्तरीय हाइबुन गद्य पाठ को सीमित करता है, जैसे कि उत्तम हाइबुन में 20 से 180 शब्द एवं अधिकतम दो पैराग्राफ़ पर्याप्त हैं । इस लघु गद्य में कसावट आवश्यक है । हाइबुन में आमतौर पर केवल एक हाइकु सम्मिलित किया जाता है, जो गद्य के बाद होता है, गद्य के चरमोत्कर्ष के रूप में "हाइकु" अपनी सेवा प्रदान  करते  हुए हाइबुन का प्रतिनिधित्व करता है ।

         गद्य और हाइकु दोनों के मिश्रण में रस ही महत्वपूर्ण है । गद्य को उस गहराई से जोड़ना चाहिए जिसके साथ हम हाइकु का अनुभव कर सकें । हाइबुन की महत्ता हाइकु को गद्य के अर्थ से सहज जोड़ना बहुत महत्वपूर्ण है । हाइबुन के लेखक को संवेदनशील होकर भी निरपेक्ष होना चाहिए अन्यथा यात्रा के स्थान पर यात्री के प्रधान हो उठने की संभावनाएं बढ़ जाएगी, तथा वह अभिव्यक्त यात्रा साहित्य हाइबुन न रहकर आत्म चरित्र या आत्म स्मरण बन सकता है । इस विधा के पीछे का उद्देश्य हाइबुन लेखक के रमणीय अनुभवों को हुबहू पाठक तक प्रेषित करना है । जिसके माध्यम से पाठक उस अनुभव को आत्मसात  कर  सके उसे अनुभव कर सके ।

            जापान की ये सभी काव्य शैलियाँ अपनी काव्यात्मक कमनीयता एवं प्रभाविष्णुता से भारतीय काव्य साहित्य में घुल-मिल कर भारतीय काव्य साहित्य की श्रीवृद्धि में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं ।


              - प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

                       व्याख्याता-हिन्दी 

          साँकरा, जिला-रायगढ़ (छत्तीसगढ़)

                  मो.नं. - 7828104111

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