हाइकु कवयित्री
सुधा राठौर
हाइकु
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हल की नोक
आहिस्ता, धरा बोली
हरी है कोख़ ।
सिर पे सूर्य
परछाईं दुबकी
पैरों के तले ।
छाता प्रसन्न
घूमने की आज़ादी
वर्षा आसन्न ।
धीरज छूटा
खून के आँसू रोये
पाँव के छाले ।
वक़्त न खोना
कल की खुशहाली
आज ही बोना ।
बीज आखर
भाव- भूमि में उगी
शब्द कोंपल ।
सावन झूला
झूल गया किसान
बेटी संतप्त ।
बिछी बिसात
ज़िंदगी शतरंज
शह या मात ।
गंगा कराही
पाप का विसर्जन
नहीं मनाही ।
दर्पण देखा
पढ़ लिया स्वयं को
झूठे अहं को ।
चुहिया दर्ज़ी
साड़ी से बना रही
झीनी ओढ़नी ।
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□ सुधा राठौर
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